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सीजेपी ने की असम पुलिस से थानों में सीसीटीवी कैमरे लगाने की जोरदार मांग

पुलिस द्वारा चलाई जानेवाली गतिविधियों और अभियानों में और भी ज़्यादा पारदर्शिता को सुनिश्चित करने के लिए सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) ने वकीलों, किसानों और श्रमिकों के विभिन्न संगठनों के साथ मिलकर असम पुलिस के पास एक मेमोरेंडम पेश किया जिसमे यह मांग की गई कि प्रदेश के सभी पुलिस थानों में सीसीटीवी कैमरे लगाएं जाएं!

सीजेपी ने फोरम फॉर सोशल हारमोनी, असम माजोरी श्रमिक यूनियन, आल इंडिया किसान मजदूर सभा जैसे कई नामी-गिरामी संगठनों और कुछ स्थानीय वकीलों को अपने इस प्रयास में साझीदार बनाया। हमने साथ मिलकर सुप्रीम कोर्ट के दिसंबर, 2020 के जजमेंट का, जिसमेंपुलिस थानों में सीसीटीवी कैमरे लगाने का मैंडेट जारी किया गया था, हवाला देते हुए असम के डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस (डीजीपी) को लिखा।

सामुदायिक वालंटियरों (स्वयंसेवकों), जिला स्तर के वालंटियरों (स्वयंसेवकों) और मोटिवेटरों तथा वकीलों को लेकर एक जांबाज टीम- सीजेपीकी असम टीम गठित की गई है। इसके द्वारा हर सप्ताह रोजाना राज्य में नागरिकता के मुद्दे से उपजे मानवीय संकट द्वारा बुरी तरह प्रभावित सैकड़ों लोगों और परिवारों कोउपलब्ध न्यायायिक सलाह, काउंसिलिंग और वास्तविक कानूनी सहायता भी प्रदान की जा रही है।हमारे जमीनी कामकाज और रूख के जरिए एनआरसी (2017-2019) में सूचीबद्ध कराने के लिए 12 लाख के करीब लोगों के फॉर्म भरे गए हैं। पिछले एक साल में ही हमलोगों ने असम के बर्बर डिटेंशन कैंपों से 47 लोगों को मुक्त कराने में सफलता हासिल की। हमारी टीम ने साहस के साथ हर माह औसतन 72 से लेकर 96 परिवारों को अर्धन्यायायिक सहायता (paralegal assistance) उपलब्ध कराई है। जिले स्तर की हमारी लीगल टीमें महीने दर महीने 25 विदेशी ट्रिब्यूनलों में लंबित मुकदमों पर काम कर रही हैं। इस तरह जमीनी स्तर के आंकड़ों ने सीजेपी के लिए ठोस तथ्यों के आधार पर हमारे संवैधानिक अदालतों, गुआहाटी हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में प्रभावी हस्तक्षेप को काफी सुगम व सुनिश्चित बनाया है। यह आप और आप जैसे देश के लोगों के जरिए ही संभव हो सका है जिन्होंने हम पर और हमारे काम पर अपना विश्वास बनाए रखा।हमारा मोटो है-सबके लिए समान धिकार।#HelpCJPHelpAssam Donate NOW!

दिसंबर, 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक आदेश के जरिए पुलिस थानों में सीसीटीवी कैमरा लगाने को बाध्यतापूर्ण बना दिया और साथ ही इस बात के खास निर्देश दिए कि इसके जरिए प्राप्त जानकारियों को सुरक्षित रखा जाए। उसने खास तौर पर उन लोकेशनों को भी चिन्हित किया जहां उन सीसीटीवी कैमरों को लगाया जाना चाहिए। जुलाई में असम मानवाधिकार आयोग ने 10 मई को मुख्यमंत्री हेमंत विश्वशर्मा के सत्ता में आने के बाद से पुलिस कस्टडी में हुई 23 लोगों को गोली मारने और उनमे से पांच की मौत हो जाने की घटनाओं को स्वतः संज्ञान में लिया।

इसके मद्देनज़र असम के डीजीपी को वहां के वकीलों और संबंधित सिविल सोसाइटी संगठनों की ओर से एक मेमोरेंडम भेजा गया जिसमें उनका ध्यान 3 दिसंबर, 2020 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा परमवीर सिंह सैनी बनाम बलजीत सिंह (SLPSLP Crl. No.3543 of 2020) के मुक़दमे में दिए गए फैसले की ओर दिलाया गया था। इस फैसले में कोर्ट ने पुलिस थानों में सीसीटीवी कैमरा लगाने को बाध्य्तामूलक बना दिया था।

इस मेमोरेंडम पर निम्न लोगों ने दस्तख़त किए थे:

यह मेमोरेंडम इस फैसले के महत्त्व को रेखांकित करने के साथ-साथ सीसीटीवी लगाए जाने के महत्व को भी सामने लाता है। यह बताता है कि इन कैमरों का लगाया जाना इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इनके जरिए निरूद्ध किए गए लोगों के साथ पुलिस कैसा व्यवहार करती है और वे खुद भी कैसे व्यवहार करते हैं इसे रिकॉर्ड किया जा सकेगा,साथ ही यह भी रिकॉर्ड किया जा सकेगा कि उस वक्त ड्यूटी पर मौजूद अधिकारियों का व्यवहार कैसा है।परिणाम स्वरूप आगे इनकी जांच भी की जा सकेगी। इस मेमों में ठोस रूप से इसकी चर्चा है कि पुलिस थानों में सीसीटीवी लगा देने से पुलिस की हिरासत में हो रही हत्याओं की स्वतंत्र जांच में ही सिर्फ मदद नहीं मिलेगी बल्कि, इससे पुलिस द्वारा गिरफ्तार बंदियों और अभियुक्तों पर अनुचित और अत्यधिक बल-प्रयोग की घटनाओं पर भी रोक लगाई जा सकेगी।

अदालत ने यह भी निर्देशित किया कि सभी थानों में सीसीटीवी कैमरे ठीक किन-किन जगहों पर लगाए गए हैं इसका पूरा-पूरा ब्योरा राज्य द्वारा अनुपालन रिपोर्टों के रूप में अदालत में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

अदालत द्वारा जारी किए गए निर्देश

सुप्रीम कोर्ट ने विशेष रूप से निम्न निर्देश दिए हैं:

अदालत ने पुलिस थानों में किन-किन स्थानों पर ये सीसीटीवी कैमरे लगाएं जाएंगे, यह भी बिल्कुल ठोस रूप से बता दिया पर यह भी बताया कि उन्हें सिर्फ इन्हीं स्थानों तक ही सीमित नहीं रखना है:

सीसीटीवी कैमरों से संबंधित एडिशनल गाइडलाइन:

महत्त्वपूर्ण: यदिबाजार में ऐसे रिकॉर्डिंग उपकरण उपलब्ध हों जिनमें रिकॉर्डिंग को सुरक्षित रखने की क्षमता 18 महीनों तक की नहीं बल्कि उससे कम की हो, तो ऐसे स्थिति में सभी राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों और केंद्र सरकार के लिए भी यह बाध्यतामूलक है कि वे ऐसे उपकरण खरीदें जिनकी स्टोरेज क्षमता ज़्यादा से ज़्यादा दिनों तक की हो और एक साल से कम तक की तो हरगिज नहीं हो।

पुलिस-हिरासत में हिंसा या मौत से संबंधित जब भी कोई शिकायत दर्ज होती है, तब राज्य मानवाधिकार आयोग/मानवाधिकार से संबंधित अदालतें फ़ौरन उस घटना से संबंधित सीसीटीवी कैमरों की फुटेज मंगवा सकती हैं ताकि उन्हें सुरक्षित रखा जा सके तथा जब भी कोई जांच एजेंसी इस घटना की जांच करती है तो उसे यह फुटेज उपलब्ध कराया जा सके।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी कहा है, “पुलिस थानों के प्रवेश द्वार पर और उसके अंदर एक बोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में यह साफ-साफ लिखा रहना जरूरी है कि यह समूचा प्रांगण और थाना सीसीटीवी कैमरे की नज़र में है। यह संदेश बड़े पोस्टर पर अंग्रेजी, हिंदी और स्थानीय भाषाओँ (असमी, बांग्ला और असम की दूसरी भाषाओँ में) लिखा रहना चाहिए।”

इसने आगे कहा है, “पुलिस थानों के बाहर प्रदर्शित बोर्ड पर यह भी साफ-साफ लिखा रहना चाहिए कि मानवाधिकारों के उल्लंघन के बारे में किसी भी व्यक्ति को राष्ट्रीय/राज्य मानवाधिकार आयोग, मानवाधिकारों से संबंधित अदालतों या पुलिस अधीक्षक या फिर किसी अपराध को संज्ञान में लेनेवाले किसी भी सक्षम अधिकारी के पास शिकायत दर्ज करने का अधिकार है।”

इसके अतिरिक्त सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है, “पुलिस थानों के बाहर प्रदर्शित बोर्ड पर आगे यह भी साफ-साफ लिखा रहना चाहिए कि यहां सीसीटीवी फुटेज न्यूनतम किस निर्धारित अवधि तक सुरक्षित रखी जाती है और यह अवधि छः महीने से कम की नहीं होनी चाहिए। पीड़ित व्यक्ति को भी उसके मानवाधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में इसी तरह इस फुटेज को सुरक्षित रखने का अधिकार है।”

माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इसका विशेष तौर पर उल्लेख किया है कि चूंकि यह निर्देश भारतीय संविधान की धारा 21 मेंजिनकी गारंटी की गई है, उन मूलभूत अधिकारों की अगली कड़ी के रूप में है और3 अप्रैल 2018 को जब हमने इस मामले से संबंधित पहला आदेश निर्गत किया था तब से आजतक तकरीबन ढाई वर्ष गुजर जाने के बाद भी इस मामले में संतोषजनक रूप से कुछ किया भी नहीं जा सका है, अतः कार्यपालक/प्रशासनिक पुलिस अधिकारियों को इस आदेश को इसके कथन और इसमें निहित भावना के अनुरूप जितनी जल्दी संभव हो लागू करना होगा।

इस मुकदमे की पृष्ठभूमि

22 नवंबर, 2016 को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के न्यायाधीश फ़तेह दीप सिंह ने बलजीत सिंह और अन्य बनाम स्टेट ऑफ पंजाब,CRWPCRWPCRWP No. 1245, 2016 के एक मुक़दमे में अपना फैसला देते हुए बताया था कि पुलिस द्वारा प्रार्थी के लड़कों की अवैध हिरासत, संविधान की धारा 21 में प्रदत्त उनके जीने के अधिकार का उल्लंघन थी।

2020 में परमवीर सिंह सैनी बनाम बलजीत सिंह (SLP Crl. No.3543, 2020) के मुक़दमे में उपरोक्त तरह के मामले के ही दौरान सर्वोच्च अदालत के सामने एक स्पेशल लीव पेटीशन (विशेष अनुमति याचिका) दायर किया गया जिसमें पुलिस थानों में सीसीटीवी लगाने जैसे और भी बड़े मुद्दे को उठाया गया था। सितंबर, 2020 में रोहिंटन फली नरीमन, नवीन सिन्हा और इंदिरा बनर्जी की पीठ ने अपने निर्णय में सभी राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों को सीसीटीवी कैमरे लगाने के मामले पर ठीक-ठीक उनका पक्ष रखने को कहा।

परमवीर सिंह के मुक़दमे में दिसंबर, 2020 को दिए गए अपने फैसले में पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के शफी मोहम्मद बनाम स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश (2018) 5SC SSC 311 के मुक़दमे में न्यायाधीश रोहिंटन फली नरीमन और आदर्श कुमार गोयल द्वारा 2018 के जजमेंट का हवाला दियाऔर साथ ही राज्यों को निर्देशित किया कि वे एक ऐसी निगरानी की व्यवस्था बनाए जिसके तहत एक स्वतंत्र कमिटी सीसीटीवी कैमरों के फुटेज का अध्ययन कर सके और एक निर्धारित अवधि पर अपने ऑब्जरवेशन की रिपोर्ट प्रकाशित करे।

एनसीआरबी के आंकड़े

नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि 2005 से लेकर 2018 के बीच पुलिस रिमांड में 500 मौतें दर्ज हुई हैं जिनमें से 281 पर मुकदमे किए गए हैं और इनमें 54 पुलिसकर्मियों पर ही चार्जशीट दाखिल की गई है। यहां दिलचस्प बात है कि इसमें एक भी पुलिसकर्मी को सज़ा नहीं हुई है।रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि उपरोक्त अवधि में रिमांड लेने से पहले 700 मौतें दर्ज की गई हैं। इनमें 312 पर मुकदमे दर्ज किए गए हैं, 132 लोगों पर चार्जशीट दाखिल हुई है और 13 साल की इस लम्बी अवधि में मात्र सात लोगोंको सज़ा हुई है।

एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक पुलिस हिरासत में मरे 527 लोगों में से 33 मौतें(6.1%) हिरासत में पुलिस द्वारा मारपीट के दौरान लगी चोट के कारण हुई हैं। सिर्फ 2019 में पुलिस हिरासत में हुई 85 मौतों में से दो मौतें(2.4%) पुलिस द्वारा की गई मारपीट की वजह से हुई थीं।

सुप्रीम कोर्ट ने अपनी पूरी बुद्धिमत्ता के साथ ये निर्देश जारी किए है ताकि पुलिस हिरासत में हो रही हिंसा और मौतों की घटनाओं में अंततः कुछ कमी लाई जा सके जो पिछले कुछ वर्षों से लगातार बढ़ रहीहैं और जिनसे काफी बदनामी हुई है। चूंकि नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) पुलिस हिरासत में हुई हिंसा का कोई रिकॉर्ड नहीं रखता, इसलिए उनसे संबंधित कोई सूचना या जानकारी नहीं मिल पाती। ऐसे में यदि सीसीटीवी कैमरे लगाने की यह व्यवस्था बन पाती है तो इससे पुलिस अधिकारियों कि जवाबदेही बढ़ाई जा सकेगी।

इस प्रकार असम पुलिस द्वारा अदालत के उपरोक्त आदेशों के अनुपालन को सुनिश्चित करने और पुलिस हिरासत में हिंसा या मौत की कोई भी घटना गुमनामी के अंधेरे में न खो जाए इसकी भी गारंटी करने तथा सरकारी अधिकारियों द्वारा ऐसे अपराधों के शिकार पीड़ितों को न्याय दिलाने के सिलसिले में यह मेमोरेंडम बिल्कुल समयोचित है।

 

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