जब राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) ने Crime in India 2023 की रिपोर्ट साझा की तो एक आंकड़ा थोड़ी राहत देता दिखा वह था “राज्य के खिलाफ अपराधों में 13% की गिरावट।” पहली नजर में यह लग सकता है कि माहौल स्थिर और शांत है यानी सशस्त्र विद्रोह या देशद्रोह के मामले कम हुए, टकराव कम हुआ, देश ज्यादा शांत। लेकिन, जैसा कि अक्सर दमन या नियंत्रण से जुड़ी आंकड़ों के मामले में होता है- और हकीकत में हर आंकड़े के साथ – कहानी उन आंकड़ों में नहीं है जो दिखाई देते हैं, बल्कि उन चीजों में है जिन्हें यह डेटा गिनती नहीं करता।
2023 में, भारत में “राज्य के खिलाफ अपराध” की संख्या 5,272 थी, जो पिछले साल 6,062 थी।
इस बीच, स्वतंत्र पर्यवेक्षकों, पत्रकारों और वकीलों ने UAPA (Unlawful Activities Prevention Act) और NSA (National Security Act) के तहत गिरफ्तारी, समन और जांच में बढ़ोतरी की भी रिपोर्ट दी। यह विरोधाभास एक पैटर्न की ओर इशारा करता है: राज्य शायद वास्तविक टकराव कम नहीं कर रहा, बल्कि असहमति को फिर से वर्गीकृत (reclassify) कर रहा है। जो आंकड़ों में नहीं दिखता, वह अक्सर जेलों में, अस्पष्ट धाराओं के तहत दर्ज FIRs में और जमानत की सुनवाई के बीच लंबे मौन समय में मौजूद होता है।
गिनती में जो नहीं है उसे गिनना
NCRB द्वारा इस्तेमाल की गई “राज्य के खिलाफ अपराध” श्रेणी सिद्धांततः तटस्थ है। यह देशद्रोह, UAPA, आधिकारिक रहस्यों का उल्लंघन और सार्वजनिक व्यवस्था के खिलाफ अपराध जैसी पुरानी धाराओं को एक ही सांख्यिकीय समूह में जोड़ देती है जिससे अपराधों के कानूनी अंतर, जिनका राजनीतिक महत्व अलग–अलग होता है, छिप जाता है। बिना किसी विभाजन के गिरावट की रिपोर्ट करके, एनसीआरबी ने “राष्ट्रीय शांति” की संभावना जताई है।
फील्ड रिपोर्टिंग एक अलग कहानी बयां करती है। उत्तर प्रदेश में, 2020-2023 के बीच कथित प्रतिबंधित संगठनों या विरोध प्रदर्शनों से जुड़े होने के कारण 260 से ज्यादा लोगों पर यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया गया। असम में, लगभग 240 यूएपीए मामले दर्ज किए गए, जिनमें से ज्यादातर आम ग्रामीणों के खिलाफ कथित “चरमपंथी सहानुभूति” के लिए दर्ज किए गए। जम्मू–कश्मीर में, स्थानीय अधिकारियों ने 2023 में जन सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) के तहत 400 से ज्यादा प्रिवेंटिव डिटेंशन की पुष्टि की, लेकिन एनसीआरबी ने राजद्रोह या सांप्रदायिक हिंसा के एक भी मामले की जानकारी नहीं दी (और “राज्य के खिलाफ अपराध” के तहत दर्ज सांप्रदायिक हिंसा के एकमात्र मामले उत्तर प्रदेश से आए)।
जम्मू–कश्मीर के टेबल में राजद्रोह या सांप्रदायिक अपराधों का न होना कोई स्टैटिस्टिकल लेवलिंग नहीं है; यह एक पॉलिटिकल थिएटर है। जब इसने 2017 के बाद सांप्रदायिक हिंसा पर रिपोर्ट करना बंद कर दिया और “अविश्वसनीयता” के कारण नफरत भरे अपराधों के आंकड़े जारी करना बंद कर दिया, तो एनसीआरबी ने असहमति और पहचान–आधारित दमन को दर्ज करने की अपनी क्षमता भी समाप्त कर दी। राज्य नौकरशाही की संरचना से अपनी शांति प्राप्त करता है यानी जो कोडेड नहीं है, उसका अस्तित्व ही नहीं है।
असहमति की सीमा
भारत में उत्पीड़न तेजी से स्थानीय होता जा रहा है। “राज्य के खिलाफ अपराधों” में 13% (कमी) का राष्ट्रीय दावा राज्य स्तर पर गंभीर भिन्नताओं को छुपाता है। उत्तर प्रदेश, असम, मणिपुर और जम्मू–कश्मीर – केंद्र के प्रत्यक्ष या निकट नियंत्रण वाले राज्य – यूएपीए के आधे से ज्यादा मामलों के लिए जिम्मेदार हैं।
उदाहरण के लिए, मणिपुर में, जहां जातीय हिंसा के परिणामस्वरूप 200 से ज्यादा लोगों की मौत हुई और 60,000 लोग विस्थापित हुए, ऐसे में एनसीआरबी ने इन हत्याओं को “सांप्रदायिक या जातीय हिंसा” के बजाय “दंगे” और “आगजनी” के अंतर्गत वर्गीकृत किया है। गलत नामकरण परंपराओं का इस्तेमाल करके, एनसीआरबी गृहयुद्ध जैसे मानदंडों के टूटने को कानून–व्यवस्था की गड़बड़ी बताकर संघर्ष की राजनीतिक जड़ों का आकलन करने की अनदेखी करता है। असम में चल रहे मामले में, जहां सरकार ने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के विरोध के बाद असहमति और नागरिकता के मूल्यों की रक्षा के लिए यूएपीए के इस्तेमाल के बढ़ाया है, ऐसे में छात्र नेताओं और पत्रकारों को लंबी अवधि के लिए गिरफ्तार किया गया है, जो बाद में “सार्वजनिक अव्यवस्था” के अपने सामान्य रूप में गायब हो जाते हैं।
ये शहर कानून को नए ढंग से पेश करके एक विरोधाभासी शांति पैदा करता है। NCRB के आंकड़े स्थिरता का मॉडल दिखाते हैं, क्योंकि दमन को कानून की अन्य धाराओं में फैला दिया गया है। दिल्ली इसका उदाहरण है, जहां राष्ट्रीय कानून प्रवर्तन की प्राथमिकताएं दिखती हैं: ब्यूरोक्रेटिक शांति (bureaucratic calm) बनाए रखना और राजनीतिक दमन को छुपाना।
दिल्ली: नियंत्रण की राजधानी
एनसीआरबी के 2023 के आंकड़ों के अनुसार, दिल्ली में यूएपीए के तहत केवल छह मामले दर्ज किए गए और कुछ अन्य राजद्रोह के तहत दर्ज किए गए – ये संख्या 2020 के सीएए विरोधी प्रदर्शनों, किसानों के विरोध प्रदर्शनों और दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्रों और उनके शिक्षकों की गिरफ़्तारियों से संबंधित मामलों के बारे में जानकारी के बिल्कुल उलट हैं। दिल्ली पुलिस, जो गृह मंत्रालय का एक अंग है, असहमति के केंद्रीकरण के लिए एक सेंसरशिप राज्य का मॉडल बन गई है: छात्रों को साजिश के लिए गिरफ्तार किया गया, हास्य कलाकारों से व्यंग्य के लिए पूछताछ की गई, प्रदर्शन करने वालों पर “राज्य के खिलाफ अपराध” के बजाय “दंगा” करने का आरोप लगाया गया।
मीर फैसल और काजी शिबली जैसे पत्रकारों को कई बार पूछताछ के लिए बुलाया गया है; देवांगना कलिता और आसिफ इकबाल तन्हा जैसे छात्र, जिन्हें दिल्ली दंगों की साजिश के मामले में रिमांड पर रखा गया था, उन पर यूएपीए के तहत मुकदमा चल रहा है, हालांकि उनके खिलाफ सबूत कमजोर हैं और निर्णयों ने अभियोजन की संभावित ज्यादती (prosecutorial overreach) को चुनौती दी है।
गणनाओं को दर्शाने का यह तरीका दिल्ली के आंकड़ों को एक सुशासन वाले शहर की तस्वीर पेश करने की अनुमति देता है, जहां असहमति, स्वतंत्र अभिव्यक्ति और कानून के दायरे में गतिविधियों की अनुमति है। वास्तविक अनुभव एक अलग कहानी बयां करता है, एक ऐसे शहर की जहां पुलिसिंग दमनकारी नीतियों से नहीं, बल्कि निगरानी, समन और सोशल मीडिया पर न्यायिक कार्रवाई के लगातार मौजूद खतरे से होती है।
इसलिए, दिल्ली का दमन प्रत्यक्ष क्रूरता के बजाय प्रशासनिक संयम के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। यह संयम की राजधानी है – एक ऐसा शहर जहाँ शांति कागजों और प्रक्रियाओं के जरिए बनाई जाती है।
मौन की संरचना
NCRB द्वारा बनाई गई यह भ्रांति चार स्तरीय संरचना यानी पुनर्वर्गीकरण, लोप, निवारक निरोध और डिजिटल दमन में बंटी हुई है जिसका उद्देश्य दमन को नौकरशाही की दिनचर्या में बदलना है।
महाराष्ट्र पुनर्वर्गीकरण का एक उदाहरण है। एनसीआरबी ने 2023 के अपने तुलनात्मक आंकड़ों में एक यूएपीए और एक राजद्रोह का मामला दर्ज किया है, जबकि भीमा कोरेगांव का मुकदमा अदालत में चल रहा है। अंतर यह नहीं है कि गिरफ्तारियां कम हुईं, बल्कि वर्गीकरण बदल गया है– राजनीतिक मामलों को सार्वजनिक अव्यवस्था का दर्जा दिया गया है। साथ ही, ब्यूरो ने 2017 से लिंचिंग या नफरत भरे अपराधों को दर्ज करने से गुरेज किया है, जिससे नेशनल ऑडिट से हिंसा की पूरी श्रेणियों को हटा दिया गया है। जिसे गिना नहीं जा सकता, उस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता।
प्रिवेंटिव डिटेंशन इस चुप्पी को और बढ़ाता है। जम्मू–कश्मीर में, 2023 में 400 से ज्यादा लोगों को पीएसए के तहत प्रिवेंटिव डिटेंशन में रखा गया था, उनमें से किसी पर भी यूएपीए या राजद्रोह के तहत आरोप नहीं लगाया गया था। यह अस्थायी कर्फ्यू या यात्रा प्रतिबंधों के लिए भी कहा जा सकता है जो कभी औपचारिक एफआईआर तक नहीं ले जाते हैं। डिजिटल नियंत्रण चुप्पी की संरचना को पूरा करता है। भारत में 2023 में 80 से ज्यादा इंटरनेट शटडाउन कुए गए, जो दुनिया में सबसे ज्यादा थे (https://www.accessnow.org/wp-content/uploads/2024/05/2023-KIO-Report.pdf)। इनमें से प्रत्येक शटडाउन राज्य की हिंसा को दस्तावेज तैयार करने से सीमित करता है और इसलिए, एनसीआरबी अपनी अगली रिपोर्ट लिख सकता है कि सबकुछ शांत हैं। इस प्रकार, ब्यूरो का डेटा, अपराध का एक तटस्थ आईना नहीं है।
कागज पर आजादी
न्यायपालिका कभी–कभार इस चुप्पी को तोड़ने के लिए दखल देती है, लेकिन शायद ही कभी इसे तोड़ पाती है। पेट्रीसिया मुखिम बनाम मेघालय राज्य मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने पत्रकार पेट्रीसिया मुखिम के खिलाफ चल रही आपराधिक प्रक्रिया को रद्द कर दिया, जिसमें आरोप लगाया गया था कि उन्होंने शिलांग में सांप्रदायिक हिंसा भड़कने के बाद सरकार की निष्क्रियता के बारे में फेसबुक पर पोस्ट करके सरकार के खिलाफ दुश्मनी भड़काई। पुलिस ने कथित तौर पर दुश्मनी को बढ़ावा देने के लिए उन पर आईपीसी की धारा 153ए और 505 के तहत आरोप लगाए लेकिन न्यायालय ने पाया कि यह पोस्ट समानता और जवाबदेही की मांग कर रही थी और महत्वपूर्ण बात यह है कि जवाबदेही की यह मांग संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) द्वारा संरक्षित एक कार्य है। न्यायालय ने अपने पिछले न्याय संहिता के अनुरूप यह माना कि सरकारी कार्रवाई की विफलताओं की आलोचना करने का अधिकार लोकतांत्रिक विमर्श का हिस्सा है और चिंता की वैध अभिव्यक्तियों को दबाने के लिए आपराधिक कानून का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।
एनसीआरबी की चुप्पी से यह अलगाव और भी गहरा हो जाता है। एनसीआरबी इनमें से किसी भी अभियोजन को “राज्य के खिलाफ अपराध” नहीं मानता, जबकि ये अभियोजन दर्शाते हैं कि वास्तव में असहमति को मैनेज कैसे किया जाता है। दमन को अनिश्चित मानकर, ब्यूरो व्यवस्था का भ्रम बनाए रखता है। नेशनल ऑडिट में, भारत शांतिपूर्ण दिखाई देता है क्योंकि शोर को जानबूझकर मिटा दिया गया है। जितने कम अपराध दर्ज किए जाते हैं, उतनी ही अधिक सफलता शांति बनाए रखने में दिखाई देती है–स्वतंत्रता से नहीं, बल्कि मौन से।
गिरावट को समझना
एनसीआरबी द्वारा रिपोर्ट की गई “राज्य के खिलाफ अपराधों” में 13% की कमी, शांति का प्रमाण नहीं है बल्कि यह आंकड़ों को दबाकर किए जा रहे दमन का प्रमाण है। ये आंकड़े एक ऐसी राजनीतिक संस्कृति का संकेत देते हैं जिसमें दमन को प्रशासनिक, कानूनी और डिजिटल माध्यमों से नियंत्रित किया जाता है। दिल्ली में मामलों की चयनात्मक रिपोर्टिंग, जम्मू–कश्मीर का सांख्यिकीय ब्लैक होल, और ‘नफरत भरे अपराध‘ के अंतर्गत इंट्रीज को हटाना, ये सब मिलकर शांति की एक राष्ट्रीय तस्वीर बनाते हैं, जो पूरी तरह से कागज पर ही है।
भारत का लोकतांत्रिक संकट अब दमनकारी चुप्पी का है। राज्य बिना किसी प्रत्यक्ष सेंसरशिप के काम कर सकता है; वह खोखली श्रेणियों के साथ काम कर सकता है। एक बार जब आधिकारिक आंकड़ों से असहमति गायब हो जाती है तो जवाबदेही शून्य हो जाती है। एनसीआरबी की स्प्रेडशीट वास्तविकता की रिपोर्ट नहीं करतीं बल्कि वे वास्तविकता को व्यवस्थित करती हैं।
भारत में अपराध 2023 को सही मायने में समझने के लिए यह समझना होगा कि राज्य ने सभ्यता–विरोधी कला में महारत हासिल कर ली है, जो आधिकारिक आंकड़ों में झलकती है। हर अनुपस्थित संख्या एक अनुपस्थित कहानी है; हर गिरावट एक लड़खड़ाते लोकतंत्र का प्रमाण है। जितने कम अपराध दर्ज किए जाएंगे, असहमति के लिए उतनी ही कम जगह होगी। आज भारत के लोकतंत्र में, चुप रहना शांति का प्रमाण नहीं है बल्कि यह एक नीति है।
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