सिविल सोसाइटी संगठनों ने संयुक्त बयान में कहा, “हम, हस्ताक्षरकर्ता संगठन, राजस्थान विधानसभा द्वारा 9 सितम्बर 2025 को पारित ‘राजस्थान अवैध धर्मांतरण निषेध विधेयक, 2025’ की कड़े शब्दों में निंदा करते हैं और इसे अस्वीकार करते हैं। हम राज्यपाल से अपील करते हैं कि वे इस पर हस्ताक्षर न करें और अनुच्छेद 200 के तहत इसे राष्ट्रपति के पास भेजें। साथ ही हम इस असंवैधानिक विधेयक के विरोध में सक्रिय जन-अभियान चलाएंगे।”
संगठनों ने बयान में कहा कि हमारा वक्तव्य चार भागों में है:
- इस कानून की निंदा और अस्वीकृति के तर्क।
- राज्यपाल से हस्ताक्षर न करने की अपील हेतु रणनीति।
- बीते दो सप्ताह में ईसाई समुदाय पर हुए हमले।
- बिल का विश्लेषण।
समन्वय समूह की ओर से सवाई सिंह ने कहा, “वर्तमान में 11 राज्यों में धर्मांतरण कानून लागू हैं, राजस्थान राज्यपाल की स्वीकृति की प्रतीक्षा में है और तमिलनाडु ने 2006 में इसे रद्द कर दिया था। राजस्थान अब 13वां राज्य बन गया है जिसने यह कानून पारित किया है। यह विधेयक दमनकारी है और भाजपा द्वारा संघ की बहुसंख्यकवादी विचारधारा थोपने तथा अल्पसंख्यक समुदायों में भय पैदा करने का उपकरण है। अन्य राज्यों के कानूनों की तुलना में यह और अधिक कठोर, व्यापक और असंवैधानिक है।”
इसने 13 राज्यों का जिक्र करते हुए कहा कि इससे पहले ये राज्य ऐसा कर चुके हैं:
- ओडिशा (1967)
- मध्य प्रदेश (1968, नया कानून 2021)
- अरुणाचल प्रदेश (1978)
- छत्तीसगढ़ (2000 और 2006)
- तमिलनाडु (2002, निरस्त 2006)
- गुजरात (2003, संशोधन 2021)
- हिमाचल प्रदेश (2006, संशोधन 2019)
- झारखंड (2017)
- उत्तराखंड (2018)
- उत्तर प्रदेश (2020, संशोधन 2024)
- हरियाणा (2022)
- कर्नाटक (2022)
- राजस्थान (2025)
बयान में कहा गया है, “पिछले दो हफ्तों में ही बिल के पारित होने के बाद ईसाई समुदाय पर 9 से अधिक हमले हो चुके हैं। ये घटनाएं अलवर, हनुमानगढ़, डूंगरपुर, कोटपुतली-बेहर और जयपुर (मुख्यमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र सहित) में हुई हैं। यह दर्शाता है कि इस कानून ने संघ से जुड़े संगठनों को अल्पसंख्यकों पर हमले करने का लाइसेंस दे दिया है और राज्य पुलिस भी अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता को अपराध की तरह देखने लगी है। यह विधेयक संविधान की धारा 14, 19, 21 और 25 का उल्लंघन करता है, जिसे हम संगठन स्वीकार नहीं करेंगे।”
रणनीति के तौर पर संगठनों ने सुझाए बिंदु:
- राज्यपाल से मिलकर आग्रह करना कि वे इस पर हस्ताक्षर न करें और राष्ट्रपति को भेजें।
● सभी समुदायों, विशेषकर अल्पसंख्यकों के बीच संवाद और सार्वजनिक बहस आयोजित करना।
● राज्यभर में सभाएं, रैलियां और सोशल मीडिया अभियान चलाना।
● राज्यपाल को हस्ताक्षर/पोस्टकार्ड अभियान भेजना।
● यदि कानून लागू होता है तो सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देना।
विज्ञप्ति में कहा गया कि 2006 और 2008 में भी संगठनों ने राज्यपाल को बिल पर हस्ताक्षर न करने और राष्ट्रपति को भेजने के लिए सफलतापूर्वक प्रेरित किया था।
ईसाई समुदाय पर हमले और पुलिस की भूमिका
जॉन मैथ्यू ने कहा, “3 सितंबर को जब यह कानून विधानसभा में प्रस्तुत किया गया, उसके बाद से अब तक 10 घटनाएं हमारे संज्ञान में आई हैं। ऐसा लगता है मानो सरकार का संदेश पुलिस अधिकारियों तक पहुंचा दिया गया हो कि वे ईसाइयों को डराने-धमकाने के लिए स्वतंत्र हैं और बजरंग दल/वीएचपी को खुली छूट है। उनके गुंडागर्दी वाले कृत्यों पर एफआईआर नहीं होगी, बल्कि ईसाई पादरियों की गिरफ्तारी होगी।”
उन्होंने कहा, “अलवर, कोटपुतली–बहरोड़, डूंगरपुर, श्रीगंगानगर और जयपुर – इन छह जिलों में 10 घटनाएं रिपोर्ट हुई हैं। इनमें से नौ मामलों में पुलिस ने बजरंग दल और वीएचपी के पक्ष में हस्तक्षेप किया। दो स्थानों पर पादरियों को गिरफ्तार किया गया। दक्षिणपंथी ताकतों के खिलाफ एफआईआर सिर्फ एक मामले (जयपुर) में दर्ज हुई।”
मुज़म्मिल रिज़वी ने कहा, “सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि जयपुर के प्रताप नगर (मुख्यमंत्री का विधानसभा क्षेत्र) में लगातार ईसाइयों पर हमले हो रहे हैं। यहां पुलिस और बजरंग दल को खुली छूट है। न कोई गिरफ्तारी, न रोक-टोक, न ही घायलों का चिकित्सकीय परीक्षण। यह स्पष्ट है कि पुलिस पूरी तरह से समझौता कर चुकी है और इन घटनाओं में शामिल है। हम मांग करते हैं कि दक्षिणपंथी गुंडों के खिलाफ तत्काल कार्रवाई हो, दर्ज सभी एफआईआर की निष्पक्ष जांच हो तथा मिलीभगत करने वाले पुलिसकर्मियों पर भी कार्रवाई की जाए।”
बिल का विश्लेषण (संक्षेप में):
● धारा 2 में प्रलोभन की परिभाषा इतनी व्यापक है कि सामान्य बातचीत भी अपराध मानी जा सकती है। सजा: 7–14 साल कैद और 5 लाख जुर्माना। धारा 5 में “लव जिहाद” की अवधारणा शामिल है। सजा: 20 साल कैद और 25 लाख जुर्माना।
● “घर वापसी” पर कानून लागू नहीं होगा। धारा 3(4) के अनुसार “मूल धर्म” में लौटने पर यह धर्मांतरण नहीं माना जाएगा। “मूल धर्म” की कोई परिभाषा नहीं है, मानो हिंदू धर्म को डिफ़ॉल्ट घोषित किया गया हो।
● सामूहिक धर्मांतरण अपराध घोषित है। इससे डॉ. आंबेडकर का 1956 का बौद्ध धर्मांतरण भी अपराध माना जाएगा।
● अनिवार्य कठोर सजा (7 साल से आजीवन कारावास, 30 लाख जुर्माना) इसे न्यायालय में असंवैधानिक बनाती है। संगठनों का पंजीकरण रद्द किया जा सकता है, बुलडोज़र कार्रवाई संभव है।
● निजता का उल्लंघन: 60 दिन पूर्व आवेदन और सार्वजनिक सूचना अनिवार्य है, जो पुट्टुस्वामी निर्णय (2018) के खिलाफ है।
● यह बिल विधायी क्षमता पर भी सवाल खड़ा करता है क्योंकि विषय केंद्रीय सूची में आता है।
● यह मौलिक अधिकार “धर्म प्रचार” (propagate) की भी गलत व्याख्या करता है।
समूह ने कहा कि चूँकि यह कानून दमनकारी और असंवैधानिक है तथा अनुच्छेद 14, 19, 21 और 25 का उल्लंघन करता है, इसलिए इसे अनुच्छेद 200 के तहत राष्ट्रपति के पास भेजा जाना चाहिए।
ज्ञात हो कि इस समन्वय समूह में जयपुर क्रिश्चियन फेलोशिप, राजस्थान समग्र सेवा संघ, PUCL, APCR राजस्थान, राजस्थान बौद्ध महासंघ, NFIW, AIDWA, दमन प्रतिरोध आंदोलन (राजस्थान), यूथ बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ़ इंडिया (YBS), जमाअत-ए-इस्लामी (राजस्थान), जमीअत उलेमा-ए-हिन्द, SDPI राजस्थान, राजस्थान नागरिक मंच, दलित-मुस्लिम एकता मंच, वेलफ़ेयर पार्टी ऑफ़ इंडिया (राजस्थान) और अंबेडकराइट पार्टी ऑफ़ इंडिया राजस्थान शामिल हैं।
संगठनों का पूरा बयान हिंदी में यहाँ उपलब्ध है:
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