दक्षिणपंथी समूहों की तरफ से आर्थिक बहिष्कार के आह्वान आम बात हो चुके हैं और उनके प्रतिनिधि सार्वजनिक कार्यक्रमों में बोलते हुए ऐसे आह्वान मुस्लिम समुदाय के आर्थिक बहिष्कार के लिए करते हैं। ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रम निरपेक्षता की झीनी नकाब के बिना खुलेआम अल्पसंख्यक विरोधी होते हैं। दक्षिणपंथी वक्ताओं में जैसे होड़ लगी है और उनके भाषणों का सर्वाधिक आम विषय कपोल कल्पित “लव जिहाद“, “ज़मीन जिहाद“, ज़बरन धर्मांतरण और हिंदुओं में भय पैदा कर आर्थिक मोर्चे पर मुस्लिमों का बहिष्कार आदि हैं।
पहले, ऐसी घटनाएं पृथक घटनाओं के रूप में देखी जाती थीं। मध्य प्रदेश में चूड़ी बेचने वाला, जो कथित रूप से हिंदू नाम रखे हुए था, मथुरा (उत्तर प्रदेश) में डोसा विक्रेता जिसके स्टॉल का नाम “श्रीनाथ डोसा“ था, उज्जैन (मप्र) में कबाड़ का व्यापारी, जिसे “जय श्री राम“ बोलने पर मजबूर किया गया, करवा चौथ के दौरान मुस्लिम मेहंदी वालों के बहिष्कार का आह्वान। यह सभी घटनाएं भले मुस्लिम समुदाय के इन लोगों की रोजी रोटी को प्रभावित कर रही थीं, लेकिन अधिकांश ने इसे एक समुदाय को आर्थिक रूप से उत्पीड़ित करने के सम्मिलित प्रयास के रूप में नहीं देखा। वास्तविकता जानने के लिए और यह दिखाने के लिए कि कैसे यह एक समुदाय के लिए आर्थिक संकट में परिवर्तित हो रहा है, “बिंदुओं को जोड़ना“ जरूरी था।
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लेकिन वर्तमान माहौल, जहां आर्थिक बहिष्कार की खुलेआम घोषणाएं की जा रही हों, समुदाय की पीड़ा खुलकर सबके सामने आ गयी है। इसके बावजूद, विपक्ष में किसी राजनीतिक दल की तरफ से समुदाय के लिए बेहतर जीवन का कोई वायदा नहीं किया जा रहा।
जनवरी 30 को टी राजा सिंह ने मुंबई में “हिंदू जन आक्रोश मोर्चा“ में अपने हिंदू भाइयों को मुस्लिम विक्रेताओं से कोई भी चीज़ खरीदने से मना किया और हलाल उत्पादों का बहिष्कार करने को कहा। आर्थिक बहिष्कार यहीं नहीं रुक जाता। यह कई रूपों में आकार लेता है। यह “मुस्लिम व्यक्ति से फल-सब्ज़ी न लो“ पर नहीं रुकता, यह महिलाओं को चेतावनी तक जाता है कि वह देखें कि उनका उबर/ओला चालक और उनका दर्जी या चूड़ियां बेचने वाला मुस्लिम तो नहीं है।
वास्तविक आर्थिक प्रभाव
मुस्लिमों के बहिष्कार के ऐसे खुले आह्वानों का सीधा प्रभाव समुदाय को काफी नुकसान पहुंचाता है। ऐसा भी नहीं है कि यह सब हाल में होने लगा है। यह तथ्य कि मुस्लिम समुदाय बड़े पैमाने पर आर्थिक रूप से कमज़ोर है, कई शोध-अध्ययनों में साबित हो चुका है और निरंतर आर्थिक बहिष्कार उन्हें और पीछे धकेलेगा।
यूएई की सार्वजनिक रायशुमारी अनुसंधान संस्था गैलप के 2010-11 में किये एक सर्वेक्षण अध्ययन, जिसमें छह हजार भारतीयों के साक्षात्कार लिये गये, के अनुसार अपने जीवन स्तर से संतुष्ट लोगों में मुस्लिम 51 फीसदी, हिंदू 63 फीसदी और अन्य 66 फीसदी थे। मुस्लिमों को यह कहते पाया गया था कि उनकी वर्तमान घरेलु आय पर गुज़ारा “मुश्किल“ या “बहुत मुश्किल“ था। 18 फीसदी हिंदुओं और 12 फीसदी अन्य के मुकाबले 23 फीसदी मुस्लिमों का कहना था कि पिछले वर्ष ऐसे मौके आये कि उनके पास अपने या अपने परिवारों के लिए भोजन खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। आंकड़ों के अनुसार सकारात्मक अनुभव मुस्लिमों में कम थे जो ऐसे सवालों के जवाबों से पता चला, “क्या आपने ठीक से आराम किया है?“ “क्या कल आपके साथ सम्मानित रूप से व्यवहार किया गया?“, “क्या कल आप मुस्कुराये या हंसे?“ और “क्या कल आपने कुछ दिलचस्प सीखा या किया?“ समूचे आंकड़े यहां देखे जा सकते हैं।
2011 जनगणना के अनुसार भारत के 3,70,000 भिखारियों में से एक चौथाई मुस्लिम हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने पाया कि मुख्य तौर पर स्वरोज़गार में संलिप्त होने के बावजूद मुस्लिम समुदाय की रिण सुविधाओं तक पहुंच सीमित है।
2018 में “विज़न 2025 : सामाजिक-आर्थिक असमानताएं, भारत के आर्थिक विकास को समावेशी एजेंडा की जरूरत क्यों है?“ शीर्षक से रिपोर्ट (अर्थशास्त्री अमीर उल्लाह खान और इतिहासकार अब्दुल अज़ीम अख्तर“ लिखित) ने पाया कि ज्यादातर मुस्लिमों का कहना था कि उनकी सामाजिक-आर्थिक हालत में पिछले दस सालों में कोई सुधार नहीं हुआ। एक सर्वेक्षण के अनुसार, मासिक प्रति व्यक्ति खर्च के मामले में मुस्लिम सबसे निचले पायदान पर थे, शहरी इलाकों में अनुसूचित जाति-जनजाति लोगों से भी नीचे और ग्रामीण इलाकों में अनुसूचित जनजाति लोगों से थोड़ा ऊपर। यह टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित हुआ था।
2004 और 2011-12 के भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण (आईएचडीएस) का विश्लेषण करते हुए क्रस्टोफ जेफरलट, कलइयारसन ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा था कि पश्चिम बंगाल और गुजरात में मुस्लिमों की आय हिंदुओं की आय का 63 फीसदी है और हरियाणा के मुस्लिम, हिंदू जितना कमाते हैं, उसका 33 फीसदी ही कमा पाते हैं (इसका एक कारण मेवात जैसे मुस्लिम बहुल ज़िलों की कमज़ोर हालत है, इसके विपरीत हिंदू बहुल पड़ोसी गुड़गांव की समृद्धि है) यह भी पाया गया कि कई राज्यों में मुस्लिमों की आय हिंदू दलितों से कम थी।
2019 में, लेखकों की इस जोड़ी ने एनएसएसओ रिपोर्ट (पीएलएफएस-2018) और एनएसएस-ईयूएस (2011-12) का विश्लेषण किया, देश में मुस्लिम युवाओं के सामाजिक-आर्थिक हालात की अन्य सामाजिक समूहों के मुकाबले पड़ताल की। उन्होंने पाया कि शैक्षणिक संस्थानों में मुस्लिम युवाओं का फीसद सबसे कम है। लेख में कहा गया, “स्वयंभू रक्षक समूहों की गतिविधियों के कारण मुस्लिम युवक अपने आप में सिमट गये होंगे।“
ऐसे आर्थिक बहिष्कार का एक और तरीका मंदिर मेलों में मुस्लिम कारोबारियों को प्रतिबंधित करना है। दक्षिण कन्नड़ में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, चंपा शस्ती उत्सव, कुक्के श्री सुब्रमणियम मंदिर (नवंबर 2022), सुल्लिया श्री चाणकेश्वा मंदिर, मंगलुरू (जनवरी 2023), श्री महालिंगेश्वरा मंदिर, कावुरु (जनवरी 2023), दक्षिण कन्नड़ ज़िले के विठ्ठल नगर में पंचलिंगेश्वरा मंदिर (जनवरी 2023)।
आर्थिक बहिष्कार की खुली घोषणाएं
पिछले साल मार्च में भारतीय जनता पार्टी महासचिव चिक्कमगरवल्ली थिम्मे गौड़ा रावु उर्फ सीटी रवि ने कहा था, “हलाल आर्थिक जिहाद है। इसका मतलब है कि यह जिहाद के लिए इस्तेमाल होता है ताकि मुस्लिम अन्य के साथ कारोबार न करें। यह लागू हो चुका है। जब उन्हें लगता है कि हलाल मांस का इस्तेमाल होना चाहिए, तो यह कहने में क्या बुरा है कि इसका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए।“ उन्होंने हलाल मांस के बारे में यह भ्रामक जानकारी भी फैलाई यह कहकर कि हलाल मांस “उनके (मुस्लिमों के) भगवान“ को चढ़ावा उन्हें (मुस्लिमों को) प्रिय है पर हिंदुओं के लिए यह किसी की झूठन है।“ उन्होंने आगे कहा, “हलाल इस तरह योजनाबद्ध तरीके से तैयार किया गया है कि उत्पाद केवल मुस्लिमों से खरीदे जा सकें, अन्य से नहीं।“ उन्होंने मीडिया से पूछा, “जब मुस्लिम हिंदुओं से मांस खरीदने से मना करते हैं तो आप हिंदुओं को उनसे खरीदने पर ज़ोर क्यों देते हैं? लोगों को यह कहने का भी क्या अधिकार है?“
इससे संकेत पाकर, दक्षिणपंथी समूहों ने ऐसे पोस्टर लगाये थे जिनमें हिंदू विक्रेताओं से कर्नाटक में उगाडी, जो पिछले साल 2 अप्रैल को मनाया गया था, के दौरान हलाल मांस का बहिष्कार करने के लिए कहा गया था और घर-घर जाकर इस बारे में जागरूकता अभियान चलाया था।
अनुच्छेद 21, 14 और 15 गारंटियां हैं कि हर व्यक्ति को समानता और बिना भेदभाव के जीने का अधिकार है। अनुच्छेद 19 कहीं आने जाने व आर्थिक गतिविधि में संलिप्त होना सुनिश्चित करता है। जहां अनुच्छेद 14 कहता है कि राज्यसत्ता देश की सीमा में किसी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता अथवा समान संरक्षण से मना नहीं करेगी, वहीं अनुच्छेद 15 धर्म, नस्ल, जाति, लैंगिकता, जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करती है। अनुच्छेद 15(2) के तहत किसी भी नागरिक पर दुकानों, सड़कों, राज्यसत्ता के पैसे से बने या आम लोगों के इस्तेमाल के लिए बने सार्वजनिक स्थलों तक पहुंच से धर्म, नस्ल, जाति, जन्म स्थान के आधार पर कोई रुकावट या शर्त नहीं लगायी जाएगी।
पूर्वोत्तर दिल्ली के ब्रह्मपुरी में, जनवरी में एक पोस्टर लगाया गया था और सोशल मीडिया में व्यापक तौर पर साझा किया गया था। इसमें क्षेत्र के हिंदू मकान मालिकों से अपने घर मुस्लिम खरीदारों को न बेचने को कहा गया था। वह सड़क जहां ऐसे पोस्टर पाये गये थे, हिंदुओं व मुस्लिमों की मिश्रित आबादी रहती है और नागरिकों ने मिलकर पोस्टर के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई।
उत्तराखंड से उभरे एक दक्षिणपंथी नेता राधा सेमवाल धोनी ने पिछले महीने एक वीडियो रिकॉर्ड किया था जिसमें उन्होंने मुस्लिम दुकानदारों पर कैमरा लगाकर उनके नाम व आधार कार्ड के बारे में पूछा था। उन्होंने दावा किया कि वह खुद को हिंदू बताते हैं और लखनऊ से आया बताते हैं। वीडियो में वह कहती हैं कि विक्रेता झूठ बोलते हैं और सब्ज़ियों पर थूकते हैं और यह उनके इलाके (जहां वह रहती हैं) में बेचते हैं। वह उनसे पूछती है, “आप यहां क्यों आये हैं? आपके पास आधार कार्ड क्यों नहीं है? क्या आप हमें ऐसी सब्ज़ियां बेचना चाहते हैं जिन पर थूका गया हो?“ इस पर एक विक्रेता कहता है, “यह सच नहीं है, हम सब्जि़यों पर थूक नहीं रहे।“
12 मार्च को गुजरात से एक तथाकथित “कार्यकर्ता“ काजल सिंहाला को मुंबई के मीरा रोड इलाके में हिंदू जनाक्रोश मोर्चा (सकाल हिंदू समाज की तरफ से आयोजित कार्यक्रम) में बुलाया गया था जहां उन्होंने नफरती भाषण दिया। कई ज़हरीली और अपमानजनक बातों के साथ उन्होंने फल-सब्ज़ी बेचने वाले मुस्लिम विक्रेताओं के बारे में यह भ्रामक बात फैलाई और समुदाय के आर्थिक बहिष्कार का प्रचार किया व मुस्लिमों से चीज़ें खरीदने के बारे में भय फैलाकर महिलाओं से सिर्फ हिंदुओं से खरीदारी करने को कहा।
ऐसे नफरती भाषणों पर ध्यान नहीं देना और उन्हें ज्यादा तूल नहीं देना, भोलापन है। नफरत के इन खुले रूपों के नतीजतन समुदाय और दरकिनार हो रहा है और इसका प्रभाव दूरगामी है। इसके अलावा, वर्तमान नफरती ब्रिगेड की तरफ से एक समुदाय की गरिमा, आजीविका व उसके अस्तित्व पर हमलों का नुकसान समुदाय की आने वाली पीढ़ियों को भोगना होगा।
Image Courtesy: Erum Gour/The Quint