हम प्राचीन और विशिष्ट दिल्ली जिमखाना में चल रहे एक हाई प्रोफाइल साहित्य उत्सव के सार्वजनिक मंच पर हैं, जो देश के सत्तारूढ़ संभ्रांत अभिजात्य वर्ग का गढ़ है, जब एक बुजुर्ग सज्जन खड़े होकर मुझ पर उग्र हो उठते हैं: ‘मैं पिछले आधे घंटे से आपकी बात सुन रहा हूं, आप एक देशद्रोही की तरह बात करते हैं, हमें आपको यहां से बाहर फेंक देना चाहिए!’ मैं सिर्फ कश्मीर के सभी हितधारकों के साथ संवाद को फिर से शुरू करने की ज़रूरत पर बोल रहा था, तथा पत्थरबाजी और घाटी में ‘आम आदमी’ और राजनीतिक नेतृत्व के बीच बढ़ रही दूरियों पर अपनी चिंता ज़ाहिर की थी। आयोजक स्थिति को नियंत्रित करने में सफल रहे इससे पहले कि हालात बदतर होते। मेरा आलोचना करने वाले बुजुर्ग एक सेवानिवृत्त वरिष्ठ सेना अधिकारी निकले; गर्व से भरे और सम्माननीय भारतीय, लेकिन जिसकी विश्वदृष्टि में घाटी में मानवाधिकारों के उल्लंघन की किसी भी बात को सुनने के लिए जरा-सा भी समय या मन:स्थिति नहीं है।
जो लोग संघर्ष/टकराव वाले क्षेत्रों में मानवाधिकार का समर्थन करते हैं, उन्हें हमेशा व्यंगात्मक रूप में ‘कोमल दिल के लिबरल झोलेवाले’ के रूप में लक्षित किया जाता है। अब, इस विभाजनकारी शब्दावली में एक नया शब्द जोड़ा गया है: “राष्ट्रविरोधी”। तेजी से राजनीतिक रूप से ध्रुवीकरण की शिकार जलवायु में, मानवाधिकारों का कथानक अब एक ऐसे विषाक्त और उन्मादी ढांचे में बंध गया है जो तर्कसंगत संवाद की बहुत कम जगह देता है। जब पेलेट गन चलाकर अंधे कर दिए गए बच्चों के बारे में चिंता ज़ाहिर करना विश्वासघात के रूप में देखा जाने लगे, तो फिर यह किसी भी प्रकार की जुटान या संवादिता को बहुत मुश्किल बनाता है। शोर से भरा ‘राष्ट्रवादी’ तर्क, अक्सर वर्दी में मौजूद किसी भी आदमी के कंधे पर बन्दूक रखकर चलाता है, और अन्य सभी आवाजों को डुबाने की कोशिश करता है। यही वजह है कि जब एक कश्मीरी को जीप से बांधकर सड़क पर घुमाया जाता है की जाती है, तो किसी से भी सेना के उस मेजर से सवाल करने की उम्मीद नहीं की जाती जिसने मानवाधिकार का खुला उल्लंघन करते हुए वह विवादास्पद फैसला लिया था।
यह चुप्पी का घूंघट ही है जिसे उठाया जाना चाहिए: एक मजबूत राष्ट्र के भीतर असुविधाजनक सत्य का सामना करने की क्षमता और लचीलापन होना चाहिए। ये सच्चाईयाँ सिर्फ कश्मीर घाटी तक ही सीमित नहीं रहती हैं, जो एक अर्थ में, भारतीय राज्य के मानवीय मूल्यों को खो देने और अपने नागरिकों की पीड़ा को हल कर पाने में विफलता का सबसे दृश्य प्रतीक है। लेकिन भारतीय स्वतंत्रता के 70 साल ऐसे उदाहरणों से भरे हुए हैं जहां हमारे गणतांत्रिक संविधान ने अपने नागरिकों को विफल किया है, जहां हमारी ‘पवित्र पुस्तक’ द्वारा दी गई स्वतंत्रता और अधिकारों का निर्लज्जता से उल्लंघन किया गया है। इस देश में दंगों और नरसंहारों के कितने मामलों में हमने प्रायोजित लक्षित हिंसा के पीड़ितों को न्याय दिलाया है या कोई परिणाम तक दिया है? और फिर, महिलाओं, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, किसानों, गरीबों और भूमिहीन लोगों के खिलाफ अत्याचार हो, तो कितनी बार ऐसा हुआ है कि भारतीय राज्य पीड़ितों के साथ दृढ़ता से खड़ा हुआ है?
मीडिया में बैठे हम लोग, खासकर टीवी मीडिया भी उतनी ही जिम्मेदार है। टीआरपी के चक्कर में फंसकर, किसान आत्महत्या या मजदूर आंदोलन जैसे मुद्दों को हम कितना एयर-टाइम देते हैं? क्या एक किसान, जो किसी क्रूर धन-ऋणदाता/साहूकार द्वारा शोषण का शिकार हो रहा है, उसके पास भारतीय नागरिक के रूप में कोई अधिकार नहीं है? एक टीवी स्टूडियो की आकर्षक दुनिया में, इस देश के बड़े हिस्से सचमुच अंधेरे में डूबे इलाके बन चुके हैं। हम छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे विशाल राज्यों से रिपोर्ट करते हैं, उदाहरण के लिए, केवल तब जब कोई नक्सली हमला होता है और घात लगाकर एक दर्जन पुलिसकर्मियों को मार दिया जाता है। और उसके बाद भी, हम एक गंभीर और जटिल मुद्दे को कर्कश स्टूडियो में ले आते हैं और ब्लैक एंड व्हाइट की झूठी दोहरी बहस तक सीमित कर देते हैं: कि या तो आप भारतीय राज्य के साथ हैं या नहीं तो आपको ‘राष्ट्रविरोधी’ वामपंथी के रूप में लक्षित कर दिया जाएगा जिसके हाथ माओवादियों / आतंकवादियों से मिले हुए हैं।
राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं।
अनुवाद सौजन्य – देवेश त्रिपाठी