अब तक जो हमें पता चला है: 4 जून, 2025
4 जून 2025 को गौहाटी हाई कोर्ट ने असम सरकार को निर्देश दिया कि वह अब्दुल शेख और मजीबर रहमान के परिजनों को उनकी मौजूदा स्थिति की जानकारी दे। दोनों लोगों को पहले फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल (FT) द्वारा “विदेशी” घोषित किया गया था, लेकिन कोविड-19 के दौरान उन्हें डिटेंशन सेंटर से रिहा कर दिया गया था। रिपोर्ट के अनुसार, 25 मई 2025 की रात को पुलिस ने उन्हें चिरांग जिले में उनके घरों से उठाया। (ऐसी गैरकानूनी हिरासतों की डिटेल रिपोर्टें यहां पढ़ी जा सकती हैं।)
सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) की कानूनी सहायता से दाखिल की गई दो अलग-अलग रिट याचिकाओं की सुनवाई में गौहाटी हाई कोर्ट की न्यायमूर्ति कल्याण राय सुराणा और न्यायमूर्ति मालश्री नंदी की खंडपीठ ने राज्य सरकार और फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल (FT) के वकील को निर्देश दिया कि वे रिकॉर्ड पर यह जानकारी पेश करें कि क्या दोनों व्यक्ति इस समय हिरासत में हैं या उन्हें निर्वासित (डिपोर्ट) कर दिया गया है। यह मामला आगे की सुनवाई के लिए 9 जून को सूचीबद्ध किया गया है। सुनवाई के दौरान न्यायालय की पीठ ने मौखिक रूप से यह टिप्पणी की कि हिरासत में लिए गए व्यक्तियों के परिजनों को उनकी वर्तमान स्थिति की जानकारी दी जानी चाहिए, चाहे वे नागरिक हों या नहीं।
हर सप्ताह, असम में CJP (सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस) की समर्पित टीम जिसमें कम्युनिटी वॉलंटियर, डिस्ट्रिक्ट वॉलंटियर मोटिवेटर और वकील शामिल हैं राज्य के 24 से अधिक जिलों में नागरिकता संकट से प्रभावित लोगों को अहम पैरालीगल सहायता, परामर्श और कानूनी मदद पहुंचाती है। हमारे प्रयासों के जरिए 2017 से 2019 के बीच 12,00,000 लोगों ने सफलतापूर्वक NRC के फॉर्म जमा किए। हर महीने हम जिला स्तर पर फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल मामलों की पैरवी करते हैं। इस तरह के लगातार प्रयासों के चलते हम हर साल लगभग 20 मामलों में सफलता हासिल करते हैं, जिनमें लोगों को उनकी भारतीय नागरिकता फिर से बहाल हो जाती है। यह जमीनी आंकड़ा हमारे द्वारा संवैधानिक अदालतों में किए जा रहे दखल को सटीक और प्रभावशाली बनाता है। आपका सहयोग इस अहम कार्य को शक्ति देता है। सबके लिए समान अधिकारों की लड़ाई में हमारे साथ खड़े हों #HelpCJPHelpAssam. Donate NOW!
हालांकि फिलहाल, अदालत ने यह जांच करने से इनकार कर दिया कि ये हिरासतें और संभावित निर्वासन (डिपोर्टेशन) कानूनी हैं या नहीं, याचिकाओं में उठाए गए मुद्दों को दरकिनार करते हुए, जिनमें मनमानी गिरफ्तारियों, कानूनी सुरक्षा के अभाव और असम में जबरन निर्वासन की कार्यवाही के इर्द-गिर्द फैले दंडमुक्त माहौल को लेकर चिंता जताई गई थी।
मामलों की पृष्ठभूमि
अब्दुल शेख को साल 2018 में और मजीबर रहमान को साल 2019 में फॉरिनर्स ट्रिब्यूनल (FT) की सुनवाई में “विदेशी” घोषित किया गया था। परिवार की तरफ से दायर याचिकाओं के साथ जो आदेश लगाए गए हैं, उनमें बहुत ही कम वजहें बताई गई हैं और किसी दूसरी राष्ट्रीयता का भी स्पष्ट जिक्र नहीं है। दोनों को इसके बाद डिटेंशन सेंटर में रखा गया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा महामारी के दौरान दिए गए निर्देशों के अनुसार, दो साल की हिरासत पूरी करने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया था।
संदर्भ के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने रिट याचिका (सिविल) संख्या 1045/2018 (सुप्रीम कोर्ट लीगल सर्विस कमेटी बनाम भारत संघ और अन्य) में 10 मई 2019 को एक आदेश दिया था। इस आदेश में कहा गया था कि जो लोग डिटेंशन सेंटर में 3 साल से ज्यादा समय बिता चुके हैं, उन्हें कुछ शर्तों के साथ रिहा किया जा सकता है। इसके बाद, सुओ मोटू रिट याचिका (सिविल) संख्या 1/2020 में सुप्रीम कोर्ट ने 13 अप्रैल 2020 को एक और आदेश दिया, जिसमें अनिवार्य हिरासत अवधि को घटाते हुए 2 साल कर दिया गया। साथ ही, रिहाई के लिए यह शर्तें रखी गईं- जमानती बॉन्ड, जमानती व्यक्ति (sureties), और बायोमैट्रिक जानकारी देना अनिवार्य होगा।
रिहाई के बाद, दोनों लोगों ने उन शर्तों का पालन किया जिनमें हर सप्ताह पुलिस थाने में रिपोर्ट करना शामिल था। दोनों याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर याचिका के अनुसार, यह बताया गया है कि दोनों ने आखिरी बार 21 मई को काजोलगांव पुलिस स्टेशन पर रजिस्टर में हस्ताक्षर किए थे, जो कि उनके उठाए जाने से मात्र चार दिन पहले की बात है।
चाटीबर्गांव गांव के रहने वाले अब्दुल शेख और मध्यम सलीझोड़ा के मजदूर मजिबार रहमान को 25 मई 2025 को रात लगभग 11:30 बजे काजोलगांव पुलिस स्टेशन के पुलिस कर्मियों द्वारा जबरन उनके घरों से उठाया गया। न तो कोई गिरफ्तारी मेमो था, न कोई वारंट और न ही उनकी पहले की जमानत रद्द करने का कोई औपचारिक नोटिस दिया गया था। उनके परिवारों की याचिकाएं – जिन्हें उनके बेटे और पत्नी ने दायर किया है – में बताया गया है कि अगले दिन सुबह, जब परिवार के सदस्य पुलिस स्टेशन पहुंचे तो उन्हें कोई जानकारी नहीं दी गई, दोनों से मिलने की अनुमति नहीं मिली और बिना कोई स्पष्टीकरण दिए वापस भेज दिया गया।
जब परिवारों ने एफआईआर दर्ज कराने की कोशिश की तो पुलिस ने उसे लेने से इंकार कर दिया। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को रजिस्टर्ड डाक द्वारा शिकायतें भेजने के बाद ही उन्होंने कागजी कार्रवाई शुरू की। माटिया डिटेंशन सेंटर में पूछताछ से कोई जानकारी नहीं मिली। इसके बाद के दिनों में परेशान करने वाली रिपोर्टें सामने आने लगीं जिनमें “विदेशी” घोषित व्यक्तियों को कथित रूप से अंतरराष्ट्रीय कानून और संविधान का उल्लंघन करते हुए चुपके से बांग्लादेश भेजे जाने की बातें थीं।
उनकी याचिकाओं में यह जोर दिया गया है कि उन्हें बिना किसी औपचारिक वारंट, गिरफ्तारी मेमो या जमानत रद्द किए हुए उनके घरों से गिरफ्तार किया गया। परिवार के सदस्यों का दावा है कि उन्हें इन व्यक्तियों की स्थिति की जानकारी नहीं दी गई और उन्हें स्वयं FIR दर्ज कराने की अनुमति नहीं मिली। आखिरकार उन्होंने अपनी शिकायतें वरिष्ठ अधिकारियों तक पहुंचाने के लिए रजिस्टर्ड डाक का सहारा लिया।
परिवारों द्वारा मांगी गई कानूनी राहत
दोनों याचिकाएं – जिन्हें सनिदुल शेख (अब्दुल के बेटे) और रजिया खातून (मजिबार की पत्नी) ने दायर किया है- यह दावा करती हैं कि ये दोनों लोग जन्म से भारतीय नागरिक हैं। वे संपत्ति के मालिक हैं, असम में मतदाता के रूप में पंजीकृत हैं और कभी भी देश छोड़कर नहीं गए। उनके माता-पिता भी जन्म से भारतीय थे और लंबे समय से असम के निवासी रहे हैं। लेकिन गरीबी, अशिक्षा और कानूनी सहायता की कमी के कारण उन्होंने FT (Foreigners Tribunal) के निर्णयों को कभी चुनौती नहीं दी। और जैसा कि उनकी याचिकाओं में भी उल्लेख किया गया है, भारत का नागरिकता कानून जन्म से भारतीय नागरिकों को विशेष “नागरिकता प्रमाणपत्र” या दस्तावेज रखने की आवश्यकता नहीं मानता।”
परिवारों ने अपनी याचिकाओं के जरिए हैबियस कॉर्पस रिट या इसी तरह के आदेश की मांग की थी, जिसके तहत राज्य को दोनों व्यक्तियों को सक्षम न्यायालय या मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने का निर्देश दिया जाए। उन्होंने बिना उचित कानूनी प्रक्रिया का पालन किए, जिसमें स्थापित प्रक्रियाओं के अनुसार राष्ट्रीयता की पुष्टि भी शामिल है, किसी भी निर्वासन कार्रवाई पर रोक लगाने का भी अनुरोध किया।
इन याचिकाओं में विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट में लंबित राजुबाला दास बनाम भारत संघ मामले का उल्लेख किया गया है, जिसमें असम राज्य ने सितंबर 2023 में एक हलफनामा दाखिल किया है जिसमें निर्वासन की प्रक्रिया के चरणों का डिटेल दिया गया है, जिसमें कूटनीतिक पुष्टि और विदेश मंत्रालय के साथ समन्वय शामिल है। अहम बात यह है कि अब्दुल शेख और मजिबार रहमान का नाम उन व्यक्तियों में नहीं था जिन पर जमानत उल्लंघन या फरार होने का आरोप था। साथ ही, उनकी रिहाई के आदेश कभी रद्द नहीं किए गए। वे उस समय तक पूरी तरह से नियमों का पालन करते रहे जब तक कि अचानक वे गायब नहीं कर दिए गए।
याचिकाओं में यह भी तर्क दिया गया कि विदेशी ट्रिब्यूनल (FT) के निर्णयों में ठोस कारण नहीं बताए गए और उन्होंने किसी विशिष्ट विदेशी नागरिकता को निर्णायक रूप से स्थापित नहीं किया, जिससे निर्वासन की स्थिति में संभावित नागरिकविहीनता (statelessness) का खतरा पैदा होता है। हालांकि, उच्च न्यायालय ने आज की सुनवाई में इस तर्क को स्वीकार नहीं किया।
न्यायालय की टिप्पणियां
दोनों मामलों में गौहाटी उच्च न्यायालय ने यह स्वीकार किया कि परिजनों को अपने रिश्तेदारों की मौजूदा स्थिति की जानकारी पाने का संवैधानिक अधिकार है। न्यायालय ने राज्य सरकार और विदेशी न्यायाधिकरण (FT) के वकील को निर्देश दिया कि वे संबंधित व्यक्तियों की स्थान-स्थिति से जुड़ी विस्तृत जानकारी अदालत में पेश करें और यदि निर्वासन किया गया हो, तो उसकी स्पष्ट सूचना भी दी जाए। दोनों मामलों में पीठ ने यह निर्देश दिया कि राज्य तथा FT के अधिवक्ता “व्यक्ति की वर्तमान स्थिति से संबंधित जानकारी दें” और “यदि निर्वासन हुआ है, तो उसकी जानकारी भी प्रस्तुत की जाए।”
हालांकि, न्यायालय ने यूनियन ऑफ इंडिया को नोटिस जारी करने से इंकार कर दिया और न ही निर्वासन पर रोक लगाने के लिए कोई अंतरिम आदेश पारित किया। न्यायालय ने यह टिप्पणी की कि विदेशी न्यायाधिकरण (FT) के आदेशों के खिलाफ कोई अपील नहीं की गई है और न ही उन्हें रद्द किया गया है, इसलिए यह व्यक्तियों की स्थिति के लिए वैधानिक निर्धारण के रूप में मान्य है।
मामला अब अगली सुनवाई के लिए सोमवार, 9 जून 2025 को सूचीबद्ध किया गया है।
ये मामले असम में एक तेजी से सामान्य होती जा रही स्थिति को उजागर करते हैं, जहां विदेशी न्यायाधिकरणों (FTs) द्वारा “विदेशी” घोषित किए गए व्यक्तियों – जो अक्सर सीमित साक्ष्यों या एकपक्षीय कार्यवाही के आधार पर होते हैं – को जमानत पर रिहा किए जाने के कई साल बाद भी देश से निकाले जाने का खतरा बना रहता है। इन याचिकाओं में गिरफ्तारी, हिरासत और निर्वासन की प्रक्रिया से जुड़े गंभीर सवाल उठाए गए हैं -विशेष रूप से उन परिस्थितियों में, जहां संबंधित व्यक्ति की नागरिकता की अब तक पुष्टि नहीं हुई है और कानूनी सुरक्षा उपायों को दरकिनार किया गया लगता है।
हालांकि आज का निर्देश परिवारों को आधिकारिक जानकारी प्राप्त होने की दिशा में कुछ राहत जरूर देता है, लेकिन संभावित निर्वासन की वैधता या प्रक्रिया में हुई चूकों की जांच करने से उच्च न्यायालय का इंकार, इस पूरे मसले से जुड़े व्यापक और गहरे सवालों को अधूरा छोड़ सकता है।
सनिदुल शेख बनाम भारत संघ एवं अन्य में पारित आदेश नीचे पढ़ा जा सकता है:
रजिया खातून बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले में पारित आदेश नीचे पढ़ा जा सकता है।
राजुबाला बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्देश
इस मामले में 21 मार्च 2025 को पारित आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने, अन्य बातों के साथ, यह भी कहा कि:
“4 फरवरी 2025 के आदेश के तहत, भारत संघ को उन व्यक्तियों के संबंध में कार्रवाई करने का निर्देश दिया गया था, जिन्हें ट्रिब्यूनल ने भारतीय नागरिक नहीं बताया है, लेकिन उनकी नागरिकता अज्ञात है। हम यूनियन ऑफ इंडिया को इस मामले में प्रतिक्रिया देने के लिए अप्रैल 2025 के अंत तक का समय देते हैं। यह प्रतिक्रिया 6 मई 2025 को विचाराधीन होगी।”
“जो व्यक्ति हिरासत केंद्र में बंद हैं और अपनी नागरिकता घोषित करने वाले आदेशों को चुनौती देना चाहते हैं, असम राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण उन्हें आवश्यक सहायता प्रदान करेगा।”
उपरोक्त आदेश असम राज्य द्वारा 20 मार्च 2025 को दायर किए गए हलफनामे के बाद पारित किया गया, जिसमें 63 बंदियों का डिटेल दिया गया था। इसी मामले में 5 सितंबर 2023 को दायर एक पूर्व हलफनामे में उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए निर्वासन की रूपरेखा पेश की गई थी। यह हलफनामा गृह मंत्रालय के निदेशक अरविंद शर्मा द्वारा दायर किया गया था, जिसमें निर्वासन की प्रक्रिया विस्तार से जिक्र था।
सुप्रीम कोर्ट के 4 फरवरी 2025 के पूर्व आदेश में यह सख्त संकेत दिया गया था कि संघ सरकार के पास कई व्यक्तियों के पते और नागरिकता से संबंधित डिटेल उपलब्ध नहीं हैं। आदेश में कहा गया है कि राष्ट्रीय सत्यापन स्थिति (National Verification Status) की तिथियां, जिन्हें कथित तौर पर विदेश मंत्रालय (MEA) को भेजा गया था और अन्य विवरण भी अस्पष्ट हैं।
यह मुद्दे इसलिए अहम हो जाते हैं क्योंकि असम अधिकारियों द्वारा सार्वजनिक रूप से यह घोषित किया गया है कि लोगों के खिलाफ मौजूदा कार्रवाई (जिन्हें “अवैध प्रवासी” बताया जा रहा है) हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत की गई है।
सुप्रीम कोर्ट के 21 मार्च और 4 फरवरी के आदेश यहां पढ़े जा सकते हैं।