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ध्रुवीकरण की संरचना: भारत में (2024–2025) चुनावी रणनीति के रूप में सांप्रदायिक नफरत भरे भाषण का संरचनात्मक विश्लेषण

पिछले कई चुनावों में- 2024 के लोकसभा चुनाव हों या महाराष्ट्र, दिल्ली, हरियाणा, झारखंड, जम्मू-कश्मीर और अब बिहार के चुनाव- नफरत भरी भाषा अब अपवाद नहीं रही। वह अब आम बात हो गई है। यह अब मॉडल कोड ऑफ़ कंडक्ट (MCC) का उल्लंघन नहीं है, अब यह कोई छोटी-मोटी उकसावे वाली बात नहीं है, अब यह कुछ मुट्ठी भर स्थानीय लोगों की संलिप्तता नहीं रही। यह एक पूरा राजनीतिक तरीका बन गया है जिसे तेज किया गया है, फैलाया गया है, विकसित किया गया है और संस्थागत बनाया गया है। जो बातें पहले छोटी-मोटी, या स्थानीय मानी जाती थीं, वे अब चुनावी राजनीति की मुख्य भाषा बन गई हैं: डर पैदा करने वाले शब्द, गालियां और अपमान, भीड़ को बांटने की चालें और और ध्रुवीकरण की एक सोची-समझी रणनीति, जिसे चौंका देने वाले अनुशासन के साथ लागू किया गया।

भाषणों, वीडियो, रैलियों, नारों, मीडिया पैटर्न, शिकायतों और रिपोर्टों की तुलना करने पर पता चलता है कि यह सिर्फ बयानबाजी से कहीं ज्यादा बड़ी बात है। यह एक ऐसे पॉलिटिकल सिस्टम को दिखाता है जो तेजी से अस्तित्व के लिए खतरा पैदा करने पर निर्भर करता है। पॉलिटिकल मैसेज सामाजिक डर के साथ घुल-मिल गया है। सामाजिक डर एडमिनिस्ट्रेटिव पैरालिसिस के साथ मिल गया है। प्रशासन की काम करने में अक्षम स्थिति अब नेताओं के चुनावी फायदे का हिस्सा बन गई है। इस घालमेल में, लोकतंत्र का मतलब ही बदल रहा है: चुनाव अब मुकाबला करने वाला भविष्य नहीं बल्कि मुकाबला करने वाली नफरत देते हैं; अब राजनीति की वैधता जनता की सेवा से नहीं, बल्कि गुस्सा भड़काने और उसे कायम रखने से मिलती है।

सीजेपी हेट स्पीच के उदाहरणों को खोजने और प्रकाश में लाने के लिए प्रतिबद्ध है, ताकि इन विषैले विचारों का प्रचार करने वाले कट्टरपंथियों को बेनकाब किया जा सके और उन्हें न्याय के कटघरे में लाया जा सके। हेट स्पीच के खिलाफ हमारे अभियान के बारे में अधिक जानने के लिए, कृपया सदस्य बनें। हमारी पहल का समर्थन करने के लिए, कृपया अभी दान करें!

इस बदले हुए माहौल में, हेट स्पीच एक तंत्र की तरह काम करती है। यह दुनिया गढ़ती है। यह सोच को आकार देती है। यह आस-पड़ोस के बाजारों को फिर से तैयार करती है, पुलिस के व्यवहार पर असर डालती है, विजिलेंट की आवाज को बढ़ावा देती है और सबसे छोटे स्तर पर एक-दूसरे पर निर्भरता को तोड़ती है। यह कुछ समय के लिए नहीं है। इसे जिया जाता है, फैलाया जाता है, अपनाया जाता है और लागू किया जाता है। इसके अलावा, इसका लंबे समय तक चलने वाला नुकसान न सिर्फ भारत की माइनॉरिटीज़ को होता है, बल्कि भारत की लोकतांत्रिक क्षमता को भी होता है। नफरत न सिर्फ चुनावी हथियार बन जाती है बल्कि शासन करने का एक तरीका भी बन जाती है; न सिर्फ पोलराइजेशन का एक तरीका बल्कि आबादी को मैनेज करने का एक तरीका भी।

यह लेख इस नए राजनीतिक तंत्र का जायजा लेता है। यह चुनावी माहौल में इस्तेमाल की जाने वाली इमेजरी और स्टीरियोटाइप; उनसे पैदा होने वाले डर; उनसे पैदा होने वाले मोबिलाइज़ेशन के पैटर्न; उन्हें मज़बूत बनाने वाली प्रशासनिक चुप्पी; उन्हें बढ़ावा देने वाले मीडिया नेटवर्क; और सबसे जरूरी बात, महाराष्ट्र, दिल्ली और बिहार जैसे राज्यों द्वारा इस तंत्र को अपने सामाजिक-राजनीतिक हालात के हिसाब से ढालने के अलग-अलग तरीकों की जांच करता है। खासकर बिहार में, हेट स्पीच जाति के ढांचे को बदलने का एक टूल बन गई – यह एक बहुत बड़ा स्ट्रेटेजिक बदलाव है जिसका राज्य के राजनीतिक भविष्य पर गहरा असर पड़ेगा।

इस “पोलराइज़ेशन के आर्किटेक्चर” का असली मकसद दो तरह का है: पहला, एक एग्ज़िस्टेंशियल थ्रेट नैरेटिव बनाकर मेजोरिटी (यानी हिंदू) वोट बैंक को मजबूत करना; और दूसरा, गवर्नेंस की नाकामियों की जगह धार्मिक झगड़े को दिखाकर – खासकर बिहार जैसे राज्यों में – सामाजिक-आर्थिक सच्चाई और जाति के समीकरणों को सिस्टमैटिक तरीके से धुंधला करना। इस लेख में चर्चा किया गया है कि चुनाव के दौरान हेट स्पीच अब छोटी-मोटी बातों से बढ़कर एक जरूरी और कई मंचों वाली कैंपेन स्ट्रेटेजी बन गई है, जिसका मकसद बहुसंख्यक समुदाय के लिए एग्ज़िस्टेंशियल थ्रेट का डर पैदा करके बहुसंख्यक वोट बैंक को मजबूत करना है।

खास बात यह है कि इस आर्टिकल के साथ दिल्ली, महाराष्ट्र और लोकसभा चुनावों के दौरान दिए गए सांप्रदायिक और भड़काऊ भाषणों वाले डॉक्यूमेंट्स भी अलग-अलग अटैच किए गए हैं।

CJP का इलेक्शन हेट वॉच एक खास मॉनिटरिंग सिस्टम के तौर पर काम करता है, जिसे भारत के चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता को नुकसान पहुंचाने वाली हेट स्पीच को ट्रैक करने, दस्तावेज तैयार करने और चुनौती देने के लिए तैयार किया गया है। चुनाव के दौरान, CJP रोजाना भाषणों, चुनावी रैलियों, रोड शो, धार्मिक सभाओं, लोकल व्हाट्सएप सर्कुलेशन, हाइपरलोकल इवेंट्स और मीडिया ब्रॉडकास्ट का स्कैन करता है। सांप्रदायिकता भड़काने के हर मामले को टाइमस्टैम्प किया जाता है, ट्रांसक्राइब किया जाता है, आर्काइव किया जाता है और मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट, RPA और हेट-स्पीच ज्यूरिस्प्रूडेंस के अनुसार जांचा जाता है। यह प्रक्रिया काफी ध्यान से किया जाता है। ये टीम न सिर्फ अपशब्दों या हिंसक आह्वान बल्कि डॉग-व्हिसल, योजनाबद्ध साजिशों (“लव जिहाद,” “लैंड जिहाद,” “वोट जिहाद”), रस्मी नारे, विजिलेंट मोबिलाइजेशन और चुनावी मौसम की सांप्रदायिक अफवाहों को भी शामिल करती है। जोर इस बात को समझने पर है कि नफरत एक राजनीतिक तकनीक के तौर पर कैसे काम करती है-यह कहां से शुरू होती है, इसे कौन बढ़ाता है, यह कितनी तेजी से फैलती है और यह चुनाव क्षेत्र के भावुक माहौल को कैसे प्रभावित करती है।

इलेक्शन हेट वॉच का एक मुख्य काम औपचारिक जवाबदेही तय करना है। हर सत्यापित उल्लंघन को इलेक्शन कमीशन में एक स्ट्रक्चर्ड MCC शिकायत के तौर पर फाइल किया जाता है- जिसे सबूत, कानूनी रेफरेंस, URL, ट्रांसक्रिप्ट और इस बात के स्पष्ट एनालिसिस के साथ सपोर्ट किया जाता है कि भाषण चुनावी नियमों का उल्लंघन कैसे करता है। CJP  ऐसी शिकायतों के गहरे पैटर्न की पहचान करता है जैसे बार-बार अपराध करने वाले जिन पर कोई कार्रवाई नहीं होती; कुछ ऐसे ग्रुप जो चुनाव के पहले पोलराइजेशन के एडवांस एजेंट के तौर पर काम करते हैं; स्थानीय आंदोलनकारियों से हेट स्पीच का स्टार कैंपेनर में बदलना; डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की चुप्पी या चुनिंदा कार्रवाई और जब भी चुनाव पास आते हैं तो अल्पसंख्यकों के खिलाफ लामबंदी में हुई वृद्धि को दर्ज करता है। इसलिए हेट वॉच सिर्फ गलत इस्तेमाल को डॉक्यूमेंट करने से कहीं ज़्यादा करता है—यह चुनावों के दौरान नफरत फैलाने के सिस्टेमैटिक, साइक्लिकल नेचर को उजागर करता है और इस बात पर रोशनी डालता है कि कैसे इंस्टीट्यूशनल बेपरवाही इसे बढ़ाने में मदद करती है। इसलिए हेट वॉच केवल दुर्व्यवहार को दर्ज ही नहीं करता बल्कि यह चुनावों के दौरान नफरत फैलाने की प्रणालीगत और चक्रीय प्रकृति को उजागर करता है और यह दिखाता है कि किस तरह संस्थागत उदासीनता इसकी बढ़ोतरी को संभव बनाती है।

नफरत का राष्ट्रीय खाका: कैसे रूढ़िवाद चुनावी रणनीति बन जाते हैं

महाराष्ट्र, दिल्ली, बिहार, और लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान जिन भी राज्यों का अध्ययन किया गयाहर जगह एक चौंकाने वाली शैली दिखाई दी है। यह एक तयशुदा प्रस्तुति है, जो जिले से जिले, रैलियों से व्हाट्सऐप फ़ॉरवर्ड तक, सड़क किनारे के भाषणों से लेकर प्राइम-टाइम स्टूडियो की स्क्रीन तक बिना किसी मुश्किलों के घूमती रहती है। इस लिस्ट का मेन कैरेक्टर मुस्लिम है जो नागरिकता के दायरे से पूरी तरह बाहर है। इसे हमेशा घुसपैठ करने वाला, लालच देकर बहकाने वाला, डेमोग्राफिक स्कीमर, इलाके का साजिश करने वाला, इकोनॉमिक पैरासाइट, सांस्कृतिक हमलावर बताया जाता है।

इस नफरत को फैलाने के लिए जिन मुख्य चेहरों को सामने लाया जाता है और जिससे सबसे ज्यादा फायदा उठाती है वह विचारधारात्मक बहुसंख्यकवादी संरचना, अर्थात् RSS के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (BJP)- वे इसके सबसे ज्यादा ध्रुवीकृत राज्यों (उत्तर प्रदेश, असम और उत्तराखंड) के संवैधानिक रूप से नियुक्त शीर्ष पदाधिकारी (मुख्य कार्यकारी नेता) होते हैं। इसके बाद इस नफरत का आगे प्रसार या नीचे तक पहुंचाना स्थानीय स्तर के, मान्यता प्राप्त पदाधिकारियों द्वारा किया जाता है, जो दक्षिणपंथी संगठनों से जुड़े होते हैं और शासन के बेहद क़रीबी सहयोगी होते हैं।

“घुसपैठिया” शब्द उस केंद्रबिंदु के रूप में काम करता है जिसके चारों ओर यह पूरी पारिस्थितिकी तंत्र घूमती है। यह केवल एक अपमानजनक शब्द के रूप में नहीं बल्कि एक राजनीतिक सिद्धांत के रूप में उभरता है। नफरत केवल अस्वीकार या नापसंदगी व्यक्त करके काम नहीं करती बल्कि यह “दूसरे” को इतना खतरनाक दुश्मन के रूप में बनाने करके काम करती है कि राष्ट्रीय अस्तित्व की रक्षा के लिए संवैधानिक सुरक्षा तक झुकने को मजबूर हो जाए। नतीजतन, अपनी बेटी के साथ स्कूल जा रहा एक मुस्लिम व्यक्ति, और एक बांग्लादेशी आतंकवादी में कोई फर्क नहीं रह जाता।

टमाटर बेचने वाला एक मुस्लिम दुकानदार और रोहिंग्या घुसपैठिए में कोई फर्क नहीं रह जाता। यह गिरावट कोई गलतफहमी नहीं है बल्कि यह एक जानबूझकर किया गया राजनीतिक दखल है जो सभी संवैधानिक सुरक्षा को कमजोर बना देता है।

घुसपैठिए के साथ-साथ, हम “जिहाद” की साज़िशों को भी बढ़ते हुए देख रहे हैं। ये साजिश वाले तर्क- लव जिहाद, जमीन जिहाद, आबादी जिहाद, वोट जिहाद-बयानबाजी की रणनीति का मास्टरस्ट्रोक हैं। ये जीवन के बिल्कुल सामान्य और रोजमर्रा के पहलुओं-जैसे प्रेम, शादी, जमीन खरीदना, बच्चे का जन्म, मतदान- को भी एक खतरनाक साजिश के हिस्से के रूप में पेश करने की अनुमति देते हैं। साजिश की थ्योरी की खूबसूरती इसमें नहीं है कि यह विश्वासयोग्य है, बल्कि इसमें है कि यह बेहद व्यापक है। यह किसी भी चीज को समाहित कर सकती है, हर चीज की व्याख्या कर सकती है और किसी भी हिंसा को सही ठहरा सकती है। चुनावी पार्टियों के लिए, यह रणनीतिक रूप से सोने जैसी संपत्ति है।

इस शब्दावली में इंसानियत को कम करने वाले रूपक (metaphors) भी शामिल हैं जैसे दीमक, सांप, राक्षस। इंसानियत को कम करना हिंसा की शुरुआत है, जो बयानबाजी और काम के बीच साइकोलॉजिकल रुकावट को कम करता है। महाराष्ट्र और लोकसभा के भाषणों में ऐसी असंवेदनशील जैसी शब्दावली का इस्तेमाल एक ऐसी नैतिक दुनिया बनाने की साफ कोशिश दिखाता है जिसमें टारगेट को नुकसान पहुंचाना खत्म करने जैसा लगता है, न कि क्रूरता।

फिर, पवित्रता और गंदगी का भाषाई ढांचा है। दिल्ली में, दुकानदारों को भगवा झंडे दिखाने या सबके सामने अपनी हिंदू पहचान बताने के लिए मजबूर किया जाता है। इसके पीछे असली दावा यह है कि मुस्लिम सामाजिक, सांस्कृतिक, या खाने-पीने की चीजों को लेकर भी गंदे होते हैं। अगर कोई मुस्लिम दुकानदार अपनी पहचान छिपाता है तो उसे धोखेबाज बता दिया जाता है। अगर वह बताता है, तो उसे अलग-थलग कर दिया जाता है। यह एक ऐसी स्थिति है जिससे कोई जीत नहीं सकता, जिसे अल्पसंख्यकों की रोजी-रोटी को खतरे में डालने के लिए तैयार किया गया है।

अलग-अलग राज्यों में एक जैसे उदाहरण दोहराए जाने से एक बड़ी सच्चाई पता चलती है: नफरत को स्टैंडर्ड बनाया जा रहा है।

अस्तित्व के लिए खतरे की थीम वाली तिकड़ी

सांप्रदायिक अभियान की रणनीति एक संकीर्ण लेकिन प्रभावशाली विषयों के सेट पर निर्भर करती है, जो स्थानीय स्तर पर बनाई जाती है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर लगातार एक जैसे रहते हैं। ये विषय अल्पसंख्यक समुदाय, विशेष रूप से मुसलमानों, को अमानवीय रूप में पेश करने का काम करते हैं और उन्हें एक एकीकृत, ठोस खतरे के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो स्थानीय प्रशासनिक मुद्दों से परे जाता है।

1. घुसपैठिया’ और नागरिकता का रूपक: जनसांख्यिकीय डर को भड़काना

बिहार, महाराष्ट्र और लोकसभा चुनाव अभियान में मूल संदेश यह है कि विपक्षी पार्टियां “बांग्लादेशी घुसपैठियों” और “रोहिंग्या शरणार्थियों” को देश की सुरक्षा को कमजोर करने और स्थानीय संसाधनों को चुराने की अनुमति दे रही हैं।

डर बढ़ गया: यह थीम सीधे तौर पर डेमोग्राफिक रिप्लेसमेंट, आर्थिक नुकसान और नेशनल सिक्योरिटी से समझौते का डर पैदा करती है जिससे चुनाव में पॉलिसी के बजाय जिंदा रहने का विकल्प बनता है।

2.‘जिहाद’ की साजिश का ढांचा : नैतिक डर और सामाजिक अलगाव को हवा देना

‘जिहाद’ शब्द को अलग-अलग सोशल और इकोनॉमिक एक्टिविटीज़ के प्रीफिक्स (शुरुआत में जुड़ने वाला भाग) के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है ताकि बहुसंख्यक समुदाय में हमेशा नैतिक डर की हालत पैदा हो सके।

साजिश का थीम डर का केंद्र कार्रवाई में बदलना
लव जिहाद हिंदू पारिवारिक ढांचे को कमजोर करने के लिए महिलाओं को प्रेमजाल में फंसाकर जबरन धर्मांतरण कराने का डर। कड़े धर्मांतरण-विरोधी कानूनों की मांग और इस प्रथा की निंदा करने के लिए खुलेआम आयोजित रैलियां।
जमीन जिहाद सार्वजनिक या विवादित भूमि पर धार्मिक संरचनाओं के अवैध निर्माण के जरिए व्यवस्थित क्षेत्रीय और सांस्कृतिक अतिक्रमण का डर। स्थानीय स्तर पर कथित अतिक्रमण के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और पुलिस शिकायतें, जो कभी-कभी ऐतिहासिक सड़क संकेतों की तोड़फोड़ तक पहुंच जाती हैं (जैसे, दिल्ली में अकबर रोड के साइनबोर्ड को नुकसान पहुंचाना)।
आर्थिक/हलाल जिहाद अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा आर्थिक नियंत्रण हासिल कर लेने और बहुसंख्यक समुदाय को वित्तीय रूप से हाशिए पर धकेल देने का डर। बिहार में केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने लोगों से अपील की कि वे केवल हिंदू विक्रेताओं से खरीदें, सिर्फ झटका मांस खाएं और हलाल से परहेज़ करें।
वोट जिहाद एक संगठित,  एक जैसे अल्पसंख्यक वोट बैंक द्वारा लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को कमजोर कर देने का डर। इसका इस्तेमाल विरोधी ध्रुवीकरण रणनीतियों को वैध ठहराने और बहुसंख्यक समुदाय द्वारा एकजुट वोटिंग करने के लिए किया जाता है।
“घुसपैठिया” आधारित बयानबाजी दावा किया जाता है कि “बांग्लादेशी” और “रोहिंग्या” अवैध रूप से देश में प्रवेश कर रहे हैं, जनसांख्यिकीय खतरा पैदा कर रहे हैं और नागरिकों की नौकरियां और संसाधन छीन रहे हैं। इस बयानबाजी का इस्तेमाल उन्हें निर्वासन करने और मतदाता सूची से हटाने की मांग के लिए किया जाता है।

 

बिहार में मुसलमानों के खिलाफ कुछ नफरत भरे भाषण (हेट स्पीच) के उदाहरण नीचे दिए गए हैं:

1. रघुनाथपुर, बिहार

असम के CM और BJP नेता हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा, “रघुनाथपुर आने से पहले, मैंने सोचा था कि मैं भगवान राम, भगवान लक्ष्मण और देवी सीता के दर्शन करूंगा, लेकिन मुझे बताया गया कि यहां कई राम, लक्ष्मण और सीता हैं और ओसामा भी है। तो मैंने पूछा, ओसामा कौन है? यह ओसामा पहले वाले ओसामा बिन लादेन जैसा है। हमें राज्य में सभी ओसामा बिन लादेन का खात्मा पक्का करना है। ओसामा के पिता का क्या नाम था? उन्हें शाहबुद्दीन कहा जाता था…”

 

 

2. केओटी, दरभंगा, बिहार

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के चुनाव प्रचार भाषण की अहम बातें: “बिहार की जमीन पर घुसपैठियों को आने देकर बिहार की सुरक्षा से समझौता किया जा रहा है – ये वही लोग हैं जो आपको जाति के आधार पर बांटते हैं, घुसपैठियों को बुलाते हैं, आपकी आस्था से खेलते हैं और फिर राष्ट्रीय सुरक्षा को कमजोर करने का काम करते हैं। हमें इन घुसपैठियों को घुसने नहीं देना चाहिए। जैसे कश्मीर में आर्टिकल 370 खत्म किया गया और पाकिस्तानी लोगों को बाहर निकाला गया, वैसे ही हम अपने बॉर्डर इलाकों से घुसपैठियों को हटाएंगे, आपराधिक गतिविधियों में शामिल किसी भी व्यक्ति की संपत्ति जब्त करेंगे और उस संपत्ति को गरीबों में बांटेंगे – NDA सरकार यह करेगी। NDA उम्मीदवार मुरारी मोहन झा को फिर से चुनें; किसी भी ऐसे व्यक्ति को आने न दें जो घुसपैठियों को पनाह देता हो, अराजकता फैलाता हो या त्योहारों और उत्सवों के दौरान मिथिला की संस्कृति का अपमान करता हो।”

 

 

3. हाजीपुर, वैशाली, बिहार

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा वर्चुअली एक सार्वजनिक रैली में दिए गए चुनावी भाषण के मुख्य बिंदु: “क्या घुसपैठियों को बिहार की वोटर लिस्ट में होने का हक होना चाहिए? मुझे आपका जवाब पता है – ऐसा नहीं होना चाहिए। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने बिहार में ‘घुसपैठिया बचाओ’ यात्रा निकाली, क्योंकि हमारे खिलाफ चुनाव लड़ने वाली ये सभी पार्टियां इन घुसपैठियों को अपना वोट बैंक मानती हैं। और मेरा मानना है कि ये घुसपैठिए हमारे युवाओं से नौकरियां छीन रहे हैं, गरीबों के अनाज का हिस्सा ले रहे हैं और देश को असुरक्षित बना रहे हैं। राहुल जी, जितनी चाहें उतनी ‘घुसपैठिया बचाओ’ यात्राएं निकालें- हम बिहार और देश से हर घुसपैठिए को चुन-चुनकर बाहर भेजेंगे और हम उनके नाम वोटर लिस्ट से हटाने का भी काम करेंगे। यह भारतीय जनता पार्टी का फैसला है, यह NDA का फैसला है।”

 

 

4. हर्सिधि, पूर्वी चंपारण, बिहार

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के चुनावी भाषण के मुख्य बिंदु: “हमने नकली धंधेबाजों, धार्मिक परिवर्तन, दंगों, और ‘लव जिहाद,’ ‘लैंड जिहाद,’ और ‘थूक जिहाद’ के खिलाफ सख्त कार्रवाई की है। इसके अलावा, अवैध रूप से संचालित मदरसों और धार्मिक उग्रवाद को रोकने के लिए हमने उत्तराखंड में मदरसा बोर्ड को भंग करने का निर्णय लिया है। आने वाले दिनों में, केवल वही मदरसे उत्तराखंड में संचालित होंगे जो हमारे शिक्षा बोर्ड द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम पढ़ाएंगे। बिहार में जीत के बाद, इनहीं उपायों को यहां लागू किया जाएगा ताकि इसकी सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। आप किसके साथ हैं? क्या आप उस बीजेपी-एनडीए के साथ हैं जो राष्ट्रीय हित को सबसे ऊपर रखता है या उन लोगों के साथ हैं जो घुसपैठियों का समर्थन करते हैं? क्या आप यूनिफॉर्म सिविल कोड के साथ हैं, या उन लोगों के साथ हैं जो शरीयत कानून लाते हैं और महिलाओं के उत्पीड़न को खुला लाइसेंस देते हैं?”

 

 

5. छपरा, सारण, बिहार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार भाषण की खास बातें: “याद रखिए – तुष्टिकरण और वोट-बैंक की राजनीति में डूबी RJD और कांग्रेस, घुसपैठियों को बचाने के अलावा कुछ नहीं कर सकतीं। ये घुसपैठिए उनके माई-बाप बन गए हैं। उन्होंने अपनी सारी राजनीतिक ताकत उन्हें बचाने में लगा दी है।”

 

 

यह तरीके सीधे तौर पर कमजोर तबकों के खिलाफ हिंसा और सामाजिक और आर्थिक भेदभाव को लागू करने में बदल जाता है। उदाहरण के लिए, दिल्ली में एक BJP पार्षद ने न सिर्फ एक मुस्लिम दुकानदार से अपना नाम दिखाने को कहा, बल्कि पहचान के आधार पर व्यापार को आसान बनाने के लिए हिंदू दुकानदारों की दुकानों पर भगवा झंडे भी लगा दिए, जिससे साफ तौर पर यह नफरत फैली कि “दूसरा समुदाय” खाने पर थूकता है।

3. अमानवीयकरण और सीधे भड़काना: अपमान से हिंसा तक का मार्ग

आखिरी, सबसे खतरनाक थीमैटिक स्टेज में अमानवीय भाषा का इस्तेमाल होता है जो टारगेट कम्युनिटी के खिलाफ हिंसा को स्वीकार्य और सही ठहराता है।

डर का इमोशनल इंफ्रास्ट्रक्चर: नफरती बयान कैसे खतरा पैदा करती है

हेट स्पीच गुस्से के बारे में लग सकती है, लेकिन इसका असली कारण डर है। गुस्सा भीड़ को इकट्ठा करता है; डर आंदोलनों को बनाए रखता है। अलग-अलग राज्यों में, चार सावधानी से बनाए गए डर बार-बार दिखाई देते हैं।

पहला है आर्थिक डर। बिहार जैसे गरीब, खेती वाले राज्यों में-या महाराष्ट्र के मजदूर वर्ग के इलाकों में-बातें घुसपैठियों पर केंद्रित होती हैं जो सरकारी फायदे चुरा रहे हैं, गैर-कानूनी तरीके से जमीन पर कब्जा कर रहे हैं, नौकरियां ले रहे हैं, ऐसे वेलफ़ेयर पा रहे हैं जिनके वे हकदार नहीं हैं। यह बातें इसलिए असरदार हैं क्योंकि यह असली आर्थिक निराशाओं का फायदा उठाती हैं लेकिन उन्हें स्ट्रक्चरल असमानता से हटाकर माइनॉरिटीज की ओर मोड़ देती हैं। यह बेरोजगारी या कमी पर जायज गुस्से को सांप्रदायिक नाराजगी में बदल देती है।

दूसरा है सांस्कृतिक डर। यह डर सभ्यता के पतन के नैरेटिव का रूप ले लेता है। हिंदू संस्कृति को घेरे में दिखाया जाता है; परंपराओं को खतरे में दिखाया जाता है; त्योहारों को लड़ाई के मैदान के तौर पर दिखाया जाता है। छठ पूजा जैसे रीति-रिवाज – जो कभी सभी समुदायों के बीच होते थे – अब पुलिसिंग और सांप्रदायिक संकेत का अखाड़ा बन गए हैं। जो कभी नदियों और भक्ति का त्योहार था, वह दुश्मनी का अड्डा बन गया है।

तीसरा है डेमोग्राफिक डर। यह लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान राष्ट्रीय स्तर के भाषणों में सबसे ज्यादा साफ दिखा। मुस्लिम फर्टिलिटी को बढ़ा-चढ़ाकर बताकर और डेमोग्राफिक बदलाव को मुस्लिम साजिश बताकर, नेता लोगों में डर पैदा करते हैं। डेमोग्राफिक डर दुनिया भर में एथनिक मेजॉरिटी के सबसे असरदार तरीकों में से एक है-यह मेजॉरिटी को उनकी अपनी कल्पना में डरे हुए माइनॉरिटी में बदल देता है।

चौथा है सेक्सुअल डर। औरतों का शरीर कम्युनिटी की चिंता की जगह बन जाता है। “बहू-बेटी की इज्जत” वाली बातें मुस्लिम मर्दों को सेक्सुअल शिकारी और हिंदू मर्दों को रक्षक बताती हैं। यह औरतों की आजादी को कम्युनिटी की लड़ाई का मैदान बना देता है और हिंसक मोरल पुलिसिंग को सही ठहराता है। यह डर खासकर महाराष्ट्र में हथियार बन गया है, जहां लव जिहाद की बातें सड़क पर होने वाले भाषणों और हाई-प्रोफाइल रैलियों में छाई हुई हैं।

ये सभी डर मिलकर एक नैतिक डर पैदा करते हैं जिसमें ज्यादातर लोगों का खुद का बचाव न सिर्फ राजनीतिक रणनीति बन जाता है, बल्कि सिविक वेल्थ भी बन जाता है।

लामबंदी और विभाजन की ऑपरेशनल प्लेबुक

साम्प्रदायिक बढ़ोतरी एक सुविचारित, तीन-स्तरीय कार्यान्वयन पैटर्न का पालन करती है, जिसे इस तरह डिज़ाइन किया गया है कि इसे गति मिले और मुख्य राजनीतिक दल को उचित बहाना (plausible deniability) प्रदान करे।

तीन-स्टेज वाले एस्केलेशन मॉडल: एक के बाद एक राज्य में एक खास एक जैसा दिखता है: हेट स्पीच तीन-स्टेज एस्केलेशन मार्ग का पालन करती है। यह मार्ग सैद्धांतिक नहीं है। यह महाराष्ट्र फाइल, दिल्ली डोजियर और बिहार के हेट-स्पीच आर्काइव में साफ दिखता है।

पहले स्टेज में, नीचले स्तर के लोग नफरत फैलाने का काम शुरू करते हैं। ये लोग अक्सर छोटे, कम जाने-पहचाने संगठन होते हैं-विजिलेंट ग्रुप, स्थानीय धार्मिक संगठन, कट्टर सांस्कृतिक संगठन। वे बिना रोक-टोक के काम करते हैं और बोलने की आजादी की हदें पार करते हैं। उनका काम चिंता के शुरुआती बीज बोना है।

दूसरे स्टेज में, स्थानीय नेता इन बातों को बढ़ावा देते हैं। उनके भाषण स्ट्रेटेजी के हिसाब से टारगेटेड होते हैं, जिसमें जगहों के नाम लिए जाते हैं, संभावित खतरों की पहचान की जाती है और बहिष्कार या बॉयकॉट की अपील की जाती है। वे छोटे-मोटे नारों को चुनावी मैसेज में बदलने का काम करते हैं।

तीसरे स्टेज में, राष्ट्रीय नेता वही बयानबाजी अपनाते हैं। यह सबसे जरूरी पल होता है, जहां भाषा कानून जैसी हो जाती है, जिसमें अथॉरिटी का वजन होता है। जब वरिष्ठ मंत्री “घुसपैठिया” जैसे शब्द दोहराते हैं तो वे पूरे इकोसिस्टम को वैधता देते हैं। जो सड़क पर अफवाह के तौर पर शुरू होता है, वह कैंपेन का सेंट्रल थीम बन जाता है।

यह तरीका यह पक्का करती है कि हेट स्पीच अलग थलग न रहे। यह मेनस्ट्रीम पॉलिटिकल मैसेजिंग बन जाती है, जिससे पूरे देश में नाराजगी की एक भाषा बन जाती है। (Read: Elections 2024: The lead up to the first two phases of voting have seen far right leaders deliver anti-Muslim hate speech across India and April: CJP’s hate watch campaign analyses several hate incidents reported across the country in the last week)

स्टेज 1: चरमपंथी तत्व सक्रिय हो जाते हैं (ग्राउंडवर्क)

यह प्रक्रिया चुनावों से 3-4 महीने पहले शुरू होती है, जिसमें समर्पित अतिदक्षिणपंथी संगठन जमीन तैयार करने का काम करते हैं।

बिहार से उदाहरण:

1. गया, बिहार

विश्व हिन्दू परिषद (VHP), मातृशक्ति और दुर्गा वाहिनी ने कई स्थानों पर दुर्गा अष्टमी और शस्त्र पूजन कार्यक्रम आयोजित किए। इस कार्यक्रम के दौरान महिलाएं हथियार लेकर उठीं और धार्मिक नारे लगाए।

 

 

2. कैमूर, बिहार

राष्ट्रीय सनातन सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष भगवती शुक्ला ने इस समूह द्वारा आयोजित एक धार्मिक सम्मेलन में “लव जिहाद” की मुसलमान विरोधी साजिश सिद्धांत को बढ़ावा दिया और झूठा दावा किया कि हर दिन इसके नाम पर 3 लाख से अधिक हिन्दू लड़कियां मारी जाती हैं। उन्होंने यह भी घोषणा की कि वे उन लोगों को काट देंगे जो गायों का मांस काटते हैं।

 

 

3. बेतिया, पश्चिमी चंपारण, बिहार

विश्व हिंदू परिषद (VHP) के स्थापना दिवस के एक कार्यक्रम के दौरान, नेता अंबरीश सिंह ने मुस्लिम विरोधी बातें कहीं और दावा किया कि मुसलमान अलग कानून और पहचान चाहते हैं। उन्होंने कहा कि जो लोग “भारत माता की जय” नहीं कहते, वे “नागरिक हो सकते हैं लेकिन हमारे भाई नहीं हैं।” उन्होंने सांप्रदायिक सद्भाव के नारों का मजाक उड़ाया और VHP के मिशन को “लव जिहाद,” गोहत्या और धर्म परिवर्तन को खत्म करने से जोड़ा।

 

 

4. भगवानपुर, वैशाली, बिहार

विश्व हिंदू परिषद (VHP) के स्थापना दिवस कार्यक्रम में, बजरंग दल के स्टेट कन्वीनर प्रकाश पांडे ने सांप्रदायिक सद्भाव के नारों को खारिज कर दिया और “लव जिहाद,” “लैंड जिहाद,” धर्म परिवर्तन और गोहत्या को लेकर मुस्लिम विरोधी साजिश की थ्योरी फैलाई। उन्होंने हिंदुओं से अपनी पहचान बचाने के लिए हथियार उठाने की भी अपील की।

 

 

स्टेज 2: स्थानीय नेताओं द्वारा माहौल तैयार करना (डेजिग्नेटेड एजिटेटर्स)

अगले स्टेज में “डेजिग्नेटेड एजिटेटर्स” शामिल होते हैं- हर राज्य में एक या दो लोग जो लगातार नफरत भरे बयान देते हैं। ये नेता स्वीकार किए जाने वाले बयानबाजी की हदें परखते हैं और मीडिया में शुरुआती पैठ बनाते हैं।

उदाहरण:

  1. महाराष्ट्र- नितेश राणे ने डोंगरी में कॉन्सपिरेसी थ्योरी फैलाई और हिंसा की धमकी दी। कैमरे में किसी को जलाने की धमकी देते और ‘लैंड जिहाद’ की कॉन्सपिरेसी थ्योरी फैलाते हुए पाए गए।

https://cjp.org.in/nitesh-rane-peddles-conspiracy-theories-and-threaten-violence-in-dongri-thane

2.  महाराष्ट्र- CJP ने सीरियल हेट ऑफेंसिव काजल हिंदुस्तानी के खिलाफ महाराष्ट्र पुलिस में शिकायत दर्ज कराई है। शिकायत में, CJP ने सख्त कार्रवाई करने और सांप्रदायिक, हेट स्पीच के लिए BNS, 2023 की धारा 196, 197(1), 352 और 353 के तहत मुकदमा चलाने की मांग की।

https://cjp.org.in/cjp-files-complaint-before-maharashtra-police-against-serial-hate-offender-kajal-hindustani

3.  महाराष्ट्र- CJP ने नफरत फैलाने वाले भाषणों के लिए नितेश राणे और अश्विनी उपाध्याय के खिलाफ अन्य पुलिस शिकायतें दर्ज कराईं। नितेश राणे और अश्विनी उपाध्याय की भड़काऊ बयान महाराष्ट्र में कई जगहों पर फैल गईं।

https://cjp.org.in/cjp-lodges-additional-police-complaints-against-nitesh-rane-and-ashwini-upadhyay-for-hate-speeches

4.  महाराष्ट्र- मुंबई में हिंदू जन आक्रोश रैली में मुसलमानों के खिलाफ साजिश की थ्योरी फैलाई जा रही है। नितेश राणे जैसे नेताओं ने भाषण में ‘जिहादी’ कहकर लोगों पर दंगे कराने के लिए ‘बांग्लादेशियों’ और ‘रोहिंग्या’ को लाने का आरोप लगाया।

https://cjp.org.in/hindu-jan-akrosh-rally-in-mumbai-sees-conspiracy-theories-being-peddled-against-muslims

स्टेज 3: स्टार कैंपेनर कमान संभालते हैं

एक बार जब जमीन बंट जाती है और थीम तय हो जाती हैं तो बड़े राष्ट्रीय नेता (PM मोदी, अमित शाह, राजनाथ सिंह, योगी आदित्यनाथ) आगे आते हैं और हेट स्पीच के अंतर्निहीत संदेश को अपनाते हैं-स्थानीय स्तर पर भड़काने से नेशनल सिक्योरिटी और रिसोर्स के खतरे की ओर शिफ्ट करते हैं-ताकि नैरेटिव को सही साबित किया जा सके और बड़े ऑडियंस तक पहुंचा जा सके। इसमें एक या दो मौलानाओं को नैरेटिव से मेल खाने वाले बयान देने के लिए “पकड़ने” की टैक्टिक भी शामिल है, यह सुनिश्चित करते हुए कि बयानबाजी को माइनॉरिटी के गुस्से (जैसे, बिहार में इमरान मसूद के बयान का इस्तेमाल) के जवाब के तौर पर दिखाया जाए।

जातीय समीकरणों को अस्पष्ट करना और दलितों को राजनीतिक हथियार बनाना

बिहार और लोकसभा चुनावों में एक अहम रणनीति यह है कि दलितों, आदिवासियों और OBC समुदाय को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करके समाजिक न्याय के गठबंधनों को तोड़ा जाए। सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाले भाषणों का अहम मकसद जातीय समीकरणों को गुमराह करना और प्रशासन की असफलताओं से लोगों का ध्यान हटाना होता है।

साझा सार्वजनिक और त्योहारों के स्थानों को साम्प्रदायिक बनाना

विभाजन की रणनीति साझा सांस्कृतिक प्रतीकों और स्थानों का कब्जा करने तक भी फैलती है।

धार्मिक और राजनीतिक जगहों को टारगेट करना

बिहार के उदाहरण:

 1. गया, बिहार

एक सरकारी कार्यक्रम में डेवलपमेंट प्रोजेक्ट का उद्घाटन करते हुए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन लोगों पर निशाना साधा जिन्हें उन्होंने “घुसपैठिया” (घुसपैठिए) कहा और बिहार के बॉर्डर वाले ज़िलों में डेमोग्राफिक बदलाव का आरोप लगाया। उन्होंने जोर देकर कहा कि घुसपैठियों को बिहार के युवाओं और भारतीय नागरिकों की रोजी-रोटी और संसाधन चुराने नहीं दिए जाएंगे और हर “घुसपैठिया” को देश से निकालने के लिए एक डेमोग्राफी मिशन बनाने का ऐलान किया।

 

 

2. बरौनी, बेगूसराय, बिहार

गृह मंत्री अमित शाह ने एक भाषण में उन लोगों पर निशाना साधा जिन्हें उन्होंने “घुसपैठिए” कहा। उन्होंने सवाल किया कि क्या उन्हें वोटिंग का अधिकार मिलना चाहिए, वोटर लिस्ट में शामिल होना चाहिए या उन्हें मुफ्त खाना राशन, रोजगार, घर या मेडिकल मदद मिलनी चाहिए, यह दावा करते हुए कि राहुल गांधी बिहार के लोगों से ज्यादा उन्हें प्राथमिकता देते हैं। उन्होंने आगे आरोप लगाया कि “घुसपैठिए” विपक्षी नेताओं के लिए वोट बैंक का काम करते हैं और उनमें से हर एक को हटाने का संकल्प लिया।

 

 

3. डेहरी, रोहतास, बिहार

गृह मंत्री अमित शाह ने एक भाषण दिया जिसमें उन्होंने उन लोगों पर निशाना साधा जिन्हें उन्होंने “घुसपैठिया” कहा। उन्होंने कांग्रेस नेता राहुल गांधी के कैंपेन को “घुसपैठिया बचाओ यात्रा” कहकर मजाक उड़ाया और वहां मौजूद लोगों से पूछा कि क्या घुसपैठियों को वोटिंग का अधिकार, फ्री राशन, नौकरी, घर या मेडिकल मदद मिलनी चाहिए। उन्होंने आरोप लगाया कि भारतीय युवाओं के बजाय घुसपैठियों को ये फायदे मिल रहे हैं और चेतावनी दी कि अगर विपक्ष जीतता है, तो “बिहार के हर घर में सिर्फ घुसपैठिए होंगे।”

 

 

4. दानापुर, पटना, बिहार

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कैंपेन के भाषण की मुख्य बातें: “INDI अलायंस ने एक नया कैंपेन शुरू किया है – डेवलपमेंट बनाम ‘बुर्का’। जब बिहार और उसके युवा डेवलपमेंट की बात कर रहे हैं, तो कांग्रेस और RJD ‘बुर्के’ के जरिए अपनी पहुंच बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। क्या उन्हें फेक पोलिंग करने की इजाजत मिलनी चाहिए? क्या ‘विदेशी घुसपैठियों’ को बिहार के गरीबों, दलितों और नागरिकों को लूटने की खुली छूट मिलनी चाहिए? दुनिया में कहीं भी, किसी को भी अपनी पहचान और चेहरा दिखाना होगा, लेकिन वे चाहते हैं कि कोई भी बिना चेहरा दिखाए वोट दे।”

 

 

बयानबाजी से टकराव तक: कैसे नफरत फैलाने वाली भाषा रोजमर्रा की जिंदगी को बदल देती है

महाराष्ट्र, दिल्ली और बिहार में, नफऱत फैलाने वाली भाषा के ठोस और वास्तविक परिणाम सामने आते हैं। यह सार्वजनिक स्थानों को पुनर्गठित कर देती है। यह बाजारों को अलग-अलग क्षेत्रों में बदल देती है। यह रोजमर्रा की बातचीत को भी पहचान की घोषणा का माध्यम बना देती है।

दिल्ली में, मुस्लिम दुकानदारों पर भगवा झंडे लगाने का दबाव सिर्फ सांकेतिक नहीं है। यह एक तरह का दबाव है जो गुमनामी को खत्म करता है, कमजोरी को सामने लाता है और आर्थिक जिंदगी को समुदाय के हिसाब से चलने पर निर्भर बना देता है। महाराष्ट्र में, बॉयकॉट कैंपेन की वजह से दुकानों पर हमले हुए, रोजी-रोटी में रुकावट आई और मजदूरों को बेइज़्ज़त किया गया। बिहार में, “बांग्लादेशी दुकानदारों” के बारे में अफवाहों से आम मजदूरों को अपने आप परेशान किया जाने लगा है। अलग-अलग राज्यों में पंचायत के प्रस्तावों ने मुस्लिम व्यापारियों को लोकल मार्केट से बाहर करने की कोशिश की है – यह एक ऐसा तरीका है जो भेदभाव वाले स्ट्रक्चर की तरह है जहां आर्थिक हिस्सेदारी पहचान पर निर्भर हो जाती है।

जैसा कि उम्मीद थी, हिंसा हुई। भीड़ के हमले, युवा जोड़ों को परेशान करना, दुकानों में तोड़फोड़, इमामों को धमकाना, मुस्लिम-बहुल इलाकों की निगरानी-ये “लॉ एंड ऑर्डर की घटनाएं” नहीं हैं। ये दुश्मनी के लिए बनाए गए बहस वाले माहौल का सीधा नतीजा हैं।

जब नफरत भरी बातें सार्वजनिक जगहों पर फैल जाती हैं, तो हिंसा कोई भटकाव नहीं बल्कि एक उम्मीद की जाने वाली प्रतिक्रिया बन जाती है। एक समाज जिसे पड़ोसियों को घुसपैठिया समझने की ट्रेनिंग दी जाती है, वह टकराव के लिए तैयार समाज होता है।

संगठित मददगार: मीडिया और संस्थागत निष्क्रियता

इस पैटर्न का आखिरी और सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यह व्यापक धारणा है कि मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट (MCC) व्यावहारिक रूप से निष्क्रिय है। यह धारणा इसलिए मजबूत होती है क्योंकि शक्तिशाली व्यक्तियों के खिलाफ शिकायतों पर लगातार कोई कार्रवाई नहीं होती। इस हिस्से में यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि चुनावी कानून और MCC के अस्तित्व के बावजूद, इनका प्रवर्तन बेहद कमजोर है, जिससे अपराध दोहराए जाने के लिए प्रोत्साहन मिलता है।

1. मीडिया का प्रभाव और डिजिटल लड़ाई का मैदान

मीडिया का तंत्र एक महत्वपूर्ण शक्ति बढ़ाने वाला तत्व बनकर काम करता है, जो विभाजनकारी नैरेटिव को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने में मदद करता है।

2. MCC का विरोधाभास: नियम हैं, पर कार्रवाई नहीं

सबसे चिंताजनक बात यह सामने आई है कि अलग-अलग राज्यों में संस्थाएं लगातार निष्क्रिय बनी रहती हैं। महाराष्ट्र में सिविल सोसाइटी समूहों द्वारा की गई MCC शिकायतों पर करीब करीब कोई कार्रवाई नहीं हुई। दिल्ली में खुलेआम दिए गए नफरती भाषणों पर प्रशासन ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया। जहां चुनाव आयोग ने नोटिस जारी भी किए, वहां भी आगे की कार्रवाई नहीं हुई।

यह ठहराव प्रशासनिक कामकाज की कमजोरी नहीं, बल्कि एक राजनीतिक पसंद है। जिलाधिकारी, जिन्हें कानून खुद से कार्रवाई करने का अधिकार देता है, अक्सर कुछ नहीं करते। पुलिस भी कई बार निष्पक्ष रखवाले की बजाय या तो तमाशबीन बनी रहती है या फिर चुनी हुई जगहों पर ही कार्रवाई करती है। चुनाव वाले दिन दिए जाने वाले विज्ञापन-जो साफ तौर पर अवैध हैं-हर साल बिना किसी डर या सजा के जारी रहते हैं।

कानून लागू न होने की वजह से नफरत फैलाने वाले भाषण सिर्फ रुकते नहीं बल्कि उल्टा बढ़ते हैं। (Read: From Welfare to Expulsion: Bihar’s MCC period rhetoric turns citizenship into a campaign weapon)

MCC का उल्लंघन चुनावी नफरत का लाइसेंस कैसे बन जाता है: भारत के आज के चुनावी माहौल की सबसे परेशान करने वाली बातों में से एक सिर्फ हेट स्पीच का बढ़ना ही नहीं है, बल्कि इस पर इंस्टीट्यूशनल रिस्पॉन्स का लगभग पूरी तरह से खत्म हो जाना है। मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट-जिसे पहले चुनावों का नैतिक नियम-कानून माना जाता था-अब सिर्फ एक प्रतीकात्मक कागज बनकर रह गया है। महाराष्ट्र, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार और 2024 लोकसभा चुनाव के दौरान, नफरत फैलाने वाले भाषण, सांप्रदायिकता भड़काने और यहां तक कि खुले तौर पर हिंसा के लिए उकसाने की कई मामले स्पष्ट तरीके से दर्ज की गई और वायरल हुई घटनाओं की जानकारी जल्दी और पूरी सटीकता के साथ चुनाव आयोग को दी गई थी। फिर भी चुनाव आयोग की प्रतिक्रिया कभी चुप्पी, कभी बिना किसी ठोस कार्रवाई वाले नोटिस और कभी सिर्फ औपचारिक बातें करने तक ही सीमित रही। इस चुनिंदा ढिलाई ने MCC का अर्थ ही बदल दिया है: जो नियम चुनावों को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया था, वह अब ऐसा नियम बन गया है जिसे नेता बेझिझक तोड़ सकते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि सजe मिलना या तो मुश्किल है, या असमान है या फिर आसानी से टाल दी जाती है। रोकने की कमी एक तरह की इजाजत बन जाती है।

न्याय व्यवस्था- खासकर संवैधानिक अदालतों- की प्रतिक्रिया ने इस संस्थागत खालीपन को और बढ़ा दिया है। हाई कोर्ट अक्सर चुनावों के दौरान नफरत भरे भाषण से संबंधित याचिकाओं को या तो खारिज कर देते हैं या टाल देते हैं। अधिकतर मामलों में वे तकनीकी कारणों का हवाला देते हैं या फिर शिकायतकर्ताओं को उन्हीं अधिकारियों के पास वापस भेज देते हैं, जो पहले ही कार्रवाई करने से इनकार कर चुके होते हैं। और भी चिंताजनक बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी हाल के वर्षों में दखल न देने वाला रुख अपना लिया है। अदालत बार-बार यह कहकर पीछे हट जाती है कि वह “बेबस” है, “सीमित” है या उसे सक्रिय निर्देश देने में “हिचकिचाहट” है। यह न्यायिक निष्क्रियता तटस्थ नहीं है। जब अदालतें सांप्रदायिक नफरत को एक गंभीर संवैधानिक हमले की तरह नहीं लेतीं तो वे अनजाने में ही इसे चुनावी राजनीति का सामान्य हिस्सा बना देती हैं। जब देश की सर्वोच्च अदालत यह संकेत देती है कि वह तब तक कार्रवाई नहीं कर सकती जब तक कोई और पहले कदम न उठाए, तो नफरत एक स्वीकार्य राजनीतिक भाषा की तरह स्थापित होने लगती है।

इस संस्थागत परित्याग का लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यह एक ऐसा राजनीतिक माहौल बनाता है जहां सबसे जोरदार और उत्तेजक राजनीतिक व्यक्ति सबसे ज्यादा लाभ उठाते हैं। यह कट्टरपंथ को बढ़ावा देता है, बार-बार उल्लंघन करने वालों को हिम्मत देता है और उन कमजोर समुदायों की आवाज दबा देता है, जो उन्हीं संस्थाओं पर से विश्वास खो देते हैं, जिनका काम उन्हें सुरक्षा देना है। MCC अब बस दिखावा बन गया है, चुनाव आयोग (ECI) केवल देखता रहता है और अदालतें जैसे मौजूद ही नहीं हैं। अंत में ऐसा चुनावी माहौल बन जाता है, जहां नफरत भरे भाषण सिर्फ होते ही नहीं हैं- बल्कि बिना किसी रोक-टोक के खुलेआम फैलते हैं। जब राज्य यह संकेत देता है कि नफरत राजनीतिक रूप से फायदेमंद है और कानूनी रूप से कोई परिणाम नहीं होगा, तो यह न केवल सार्वजनिक बातचीत को प्रभावित करता है बल्कि चुनावों की संवैधानिक नींव को भी कमजोर करता है। ऐसे माहौल में, सांप्रदायिक प्रचार कोई अपवाद नहीं रह जाता बल्कि यह लोकतांत्रिक भागीदारी की नई “भाषा” बन जाता है।

इन चार चुनावी चक्रों के दौरान CJP द्वारा भेजी गई कुछ MCC शिकायतें आप यहां, यहां, यहां और यहां पढ़ सकते हैं।

बिहार: जातिगत राजनीति का रणनीतिक सांप्रदायिकरण

बिहार इस मामले में अलग है, क्योंकि यहां बदलाव गहरा और अधिक प्रभावशाली रहा है। महाराष्ट्र या दिल्ली के उलट, जहां सालों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया गया, बिहार में ऐतिहासिक रूप से शासन जातिगत समीकरणों पर आधारित रहा है। राजनीतिक गठबंधन OBC एकजुटता, दलित अधिकारों की मांग और जाति-आधारित पहचान की गणना पर बनाए जाते थे। मुसलमान, हालांकि चुनावी नजर से अहम थे, उन्हें जाति-आधारित गठबंधनों में शामिल किया जाता था, बजाय इसके कि उन्हें मुख्य विरोधी के रूप में पेश किया जाए।

हालिया बिहार चुनाव में, नफरत भरे भाषण का इस्तेमाल इस राजनीतिक परिदृश्य को बदलने के लिए किया गया। ‘घुसपैठिया’ जैसे नैरेटिव का इस्तेमाल OBC और EBC की आर्थिक नाराजगी को मुसलमानों की ओर मोड़ने के लिए किया जाता है। बिहार में नफरत भरे भाषण केवल सांप्रदायिक बयानबाजी नहीं हैं, बल्कि यह जाति राजनीति को बदलने का टूल भी हैं। मुसलमानों को कल्याण योजनाओं के लाभार्थी, जमीन हड़पने वाले या जनसंख्या संबंधी खतरे के रूप में पेश करके, यह भाषण पिछड़े जातियों और मुस्लिम समुदाय के बीच लंबे समय से बनी एकजुटता को तोड़ देता है। इस तरह तैयार किए गए भाषण के जरिए यह भी किया जाता है कि सबसे हाशिए पर रहने वाली जातियों की वास्तविक जातिगत पिछड़ापन और भेदभाव की समस्याओं को कम दिखाया जाए, जबकि असली शोषक अक्सर प्रमुख ‘हिंदू’ समुदाय से होते हैं।

यह बदलाव छठ पूजा के सांप्रदायिकरण में दिखता है, जो बिहार के सबसे मिलते-जुलते सांस्कृतिक स्थलों में से एक है। यह OBC का गुस्सा भड़काने के लिए AI से बने वीडियो के सर्कुलेशन में दिखता है। यह स्पष्ट रूप से दिखता है कि हिन्दुत्व समूह अपनी जातिगत पैठ बढ़ाने के लिए दलित और OBC युवाओं को लगातार जोड़ रहे हैं।

बिहार में, और अन्य जगहों की तरह, नफरत भरे भाषण सिर्फ समुदायों को अलग नहीं कर रहे हैं, बल्कि उन्हें पूरी तरह से नया आकार दे रहे हैं।

लोकतंत्र का पतन: अधिकारों, नागरिकता और सार्वजनिक तर्क का क्षरण

चुनाव में हेट स्पीच का कुल मिलाकर असर भारत के संवैधानिक ढांचे को कमजोर करना है। हेट स्पीच असमानता, भेदभाव और असुरक्षा पैदा करके आर्टिकल 14, 15 और 21 का उल्लंघन करती है। यह दो-स्तर का सिस्टम बनाकर नागरिकता के विचार को खत्म कर देता है: वे जो पूरी तरह से इसके सदस्य हैं और वे जिन्हें लगातार अपना होना साबित करना पड़ता है।

नुकसान सिर्फ कानूनी नहीं है। यह ज्ञान से जुड़ा है। हेट स्पीच नागरिकों की लोकतांत्रिक तरीके से सोचने की क्षमता को खत्म कर देती है। संवैधानिक संस्थाओं की पूरी तरह विफलता- चाहे वह संवैधानिक अदालतें हों या चुनाव आयोग – जो निर्णायक और दंडात्मक कार्रवाई करने के लिए बनाई गई थीं और भी बेख़ौफ़ी और सामान्यीकरण को बढ़ावा देती है। परिणाम यह होता है कि नफरत भरे भाषण और उसका असर असली बहस को दबा देता है, शासन को केवल पहचान की लड़ाई तक सीमित कर देता है और राजनीतिक असहमति को अवैध या अविश्वसनीय बना देता है। ऐसे माहौल में, चुनाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं रह जाते, बल्कि सत्ता दिखाने का रंगमंच बन जाते हैं।

निष्कर्ष: लोकतांत्रिक निष्ठा को वापस पाना

विश्लेषण से पता चलता है कि चुनावी नफरत भरे भाषण में हालिया वृद्धि न तो आकस्मिक है और न ही प्रतिक्रिया मात्र। यह एक बहुत ही संगठित, कई स्तरों पर फैली और वित्तीय रूप से समर्थित राजनीतिक संरचना का नतीजा है, जिसे सांप्रदायिक सक्रियता बढ़ाने के लिए तैयार किया गया है।

भारत के वर्तमान चुनाव एक राजनीतिक परिदृश्य को उजागर करते हैं, जहां नफरत भरे भाषण कोई असामान्य घटना नहीं बल्कि एक संगठनात्मक आधार बन चुका है। यह चुनाव अभियानों की रूपरेखा तय करता है, मतदाताओं को जुटाता है, पहचान को फिर से व्यवस्थित करता है और शासन के स्वरूप को प्रभावित करता है। यह पड़ोसियों को दुश्मन में बदल देता है और सार्वजनिक स्थानों को युद्धभूमि बना देता है। यह बिहार जैसी जगहों में जाति राजनीति को नया आकार देता है, दिल्ली जैसी जगहों में आजीविकाओं को तबाह करता है और महाराष्ट्र जैसी जगहों में हिंसा को वैधता प्रदान करता है।

सबसे खतरनाक यह है कि यह एक नए राजनीतिक क्रम को सामान्य बना देता है, जिसमें डर ही सत्ता की मुख्य आधार बन गया है।

भारत अब एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। अगर नफरत चुनावों की मुख्य भाषा बनी रहती है, तो चुनाव खुद लोकतांत्रिक नवीनीकरण के साधन नहीं रह जाते। वे सामाजिक नियंत्रण के उपकरण बन जाते हैं। भारत के लोकतंत्र का भविष्य केवल इस बदलाव को पहचानने पर नहीं बल्कि इसे कानूनी, राजनीतिक और नैतिक रूप से तात्कालिक तरीके से सामना करने पर निर्भर करता है।

नफरत केवल एक भाषण नहीं है।

यह एक व्यवस्था है।

और व्यवस्थाएं अपने आप नहीं गिरतीं-इन्हें समाप्त करना पड़ता है।

वो पूर्व-चुनावी नफरत की मशीनरी जिसने महाराष्ट्र को सांप्रदायिक युद्धक्षेत्र बना दिया:

 

राजधानी एक प्रयोगशाला बन गई, जहां चुनाव से पहले सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति पर काम किया गया।

 

2024 के चुनावी भाषण और पूरे भारत में नफरत के हथियार के रूप में इस्तेमाल की गई रणनीतियां:

 

संदर्भ:

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https://www.indiatvnews.com/delhi/delhi-assembly-elections-2025-police-registers-over-1100-cases-of-mcc-violations-model-code-of-conduct-detained-35516-people-latest-updates-2025-02-07-975130