ये कहानी उन भारतीय माँओं की है जो अपने बच्चों के लिए न्याय की लड़ाई लड़ रही हैं। वह महिलाएं जो कठिन सवाल पूछने की हिम्मत रखती हैं लेकिन उन्हें अपनी दृढ़ता का जवाब पुलिसिया हिंसा और बर्बरता के रूप में मिलता है। यह औरतें अटल, साहसी तथा सत्य की खोज में दृढ़ हैं। लेकिन इन सभी को अपने दृढ़ संकल्प के बदले में सरकार की ओर से उदासीनता ही हाथ लगी है। इनकी कहानियां भारत अपनी माँओं से कैसा सलूक करता है, इसका प्रतिबिम्ब है।
ये कहानी फातिमा नफीस की है, जिनका बेटा नजीब अहमद अक्टूबर 2016 में अपने विश्वविद्यालय के छात्रावास से रहस्मयी तरीके से लापता हो गया था और जिसका अबतक पता नहीं चला है। नजीब दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से बायोटेक्नोलॉजी में मास्टर्स कर रहा था। वह काफी तेज और बुद्धिमान छात्र था, फातिमा को उसके उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद थी। लेकिन एक शाम, एक छात्र संघ के कुछ छात्रों ने उस पर हमला कर दिया। ये छात्र संघ एक प्रमुख राजनैतिक दल की ईकाई है । विवाद के ठीक दूसरे दिन नजीब लापता हो गया। उसके दोस्तों को संदेह हुआ कि शायद नजीब के साथ कुछ गलत हुआ है। नजीब की मां फातिमा ने अपने बेटे के गायब होने के संबंध में
स्पष्टीकरण मांगा। लेकिन किसी ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। पुलिस ने भी नहीं बताया कि आखिर हुआ क्या।
बाद में मामले को जांच एजेंसी सीबीआई, जो भारत की सबसे अच्छी जांच एजेंसी मानी जाती है, को सौंपा गया| पांच महीने से यह मामला सीबीआई के पास होने के बावजूद, आज तक नजीब का कोई पता नहीं है। फातिमा लगातार वाजिब सवाल पूछती रहती हैं। नजीब के कुछ दोस्तों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ फातिमा ने अपने बेटे के लापता होने की पहली वर्षगांठ (13-14 अक्टूबर, 2017) को सीबीआई की अप्रभावी जांच के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध किया। “कहां है मेरा बेटा? कौन बताएगा मुझे,” वह बार बार यही पूछ रही थीं।
16 अक्टूबर को फातिमा दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर प्रदर्शन कर रही थीं। अदालत में अपने बेटे को लेकर फातिमा की याचिका पर सुनवाई की जा रही थी। फातिमा ने जैसे ही मीडिया से बात करना शुरू किया, कुछ पुलिसबल की महिलाऐं आईं और फातिमा को पकड़कर, उनको घसीटते हुए पुलिस वैन में ले गई। इस दौरान वो पुलिस से गुहार लगाती रही और संघर्ष करती रहीं लेकिन पुलिस ने उनको नहीं छोड़ा। जिस तरह से पुलिस ने एक दुर्बल और बूढ़ी महिला से दुर्व्यवहार किया उससे यह साफ़ हो गया की पुलिस को उनकी परवाह नहीं थी। पुलिस का दावा है कि वह उन्हें हिरासत में इसलिए ले गई क्योंकि वह हाईकोर्ट परिसर में प्रवेश करने की कोशिश कर रही थीं, जबकि प्रत्यक्षदर्शियों ने इसकी पुष्टी नहीं की। सवाल यह नहीं कि वह अदालत परिसर में प्रवेश करने की कोशिश कर रही थीं या उनका हिरासत में लेना वैध था|
मुद्दा यह है की प्रदर्शन स्थल से उनको किस तरीके से ले जाया गया। पुलिस ने उनके साथ जो क्रूरता बरती वह सबने देखा। क्या भारत में माओं के साथ इस तरह का सुलूक किया जाता है?
लेकिन फातिमा अकेली नहीं है।
दलित छात्र रोहित वेमुला की मां, राधिका वेमुला को भी अपने बेटे को न्याय दिलाने के संघर्ष में दण्डित और अपमानित किया गया था। उनके बेटे रोहित हैदराबाद विश्वविद्यालय में पीएचडी के छात्र थे और जनवरी 2016 में रोहित ने आत्महत्या कर ली| उनकी मृत्यु के बाद उभरे छात्र आंदोलन ने इसे “संस्थागत हत्या” करार दिया। रोहित एक छात्र कार्यकर्ता थे और अंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन के सदस्य थे। वे अक्सर दलितों के अधिकारों के लिए लड़ते थे और मानवाधिकारों के उल्लंघन के विरोध भी करते थे। वर्ष 1993 में हुए बम विस्फोट के मामले में मुख्य आरोपी याकूब मेमन की फांसी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन पर उनके मुखर बयान के बाद, एक छात्र संघ के सदस्यों ने उन्हें “राष्ट्र
विरोधी” की संज्ञा दी थी। उसी समूह के सदस्यों ने भी कथित रूप से उन पर इतनी बुरी तरह हमला किया कि उन्हें सर्जरी करानी पड़ी।
रोहित को छात्रावास से निलंबित कर दिया गया था और वहां उनके घुसने पर भी रोक लगा दी गयी थी। विश्वविद्यालय ने कथित तौर पर उनकी स्कॉलरशिप बंद कर दी थी। ये कदम उठाने से 13 दिन पहले, बाकी जिन छात्रों को उनके छात्रावास के कमरे से निकला गया था, वह यूनिवर्सिटी परिसर में एक अस्थायी दलित वेलावाड़ा (भारतीय गांवों में दलितों के लिए अलग जगह) में सो रहे थे। विश्वविद्यालय प्रशासन तथा कथित छात्र संघ की महीनों की धमकी, उत्पीड़न,शारीरिक हिंसा और मानसिक यातनाओं के बाद रोहित के लिए आत्महत्या करना अंतिम रास्ता था। आत्महत्या करने से एक महीने पहले, कुलपति को लिखे पत्र में रोहित ने लिखा था कि प्रत्येक दलित छात्र को दाखिले के समय जहर की एक बोतल और फांसी का फंदा दे देना चाहिए। यह दस्तावेज भारतीय विश्वविद्यालयों में आज़ादी के सत्तर साल बाद, आज भी प्रचलित नस्लीय, जातिगत हिंसा और भेदभाव पे एक तीखा कटाक्ष था।
लेकिन जहाँ रोहित की कहानी ख़त्म होती है, वहीँ से शुरू होती है राधिका की अग्निपरीक्षा की कहानी|
एक शोकाकुल मां राधिका, की याचिका पर कार्रवाई करने के बजाय सरकारी मशीनरी ने न सिर्फ उनकी विश्वसनीयता और उनके अपने बच्चों के पालन पोषण की क्षमता पर सवाल उठाया, बल्कि उनके चरित्र पर भी कीचड उछाला।सबसे पहले केंद्र सरकार ने (प्रमुख महिला मंत्रियों के माध्यम से) उन पर दलित होने के बारे में झूठ बोलने का आरोप लगाया। आरोप यह था, कि राधिका ओबीसी (अन्य पिछडी जाति) परिवार से है इसलिए उन्हें दलित नहीं माना जा सकता। लेकिन जैसा कि बाद में पता चला और साबित भी हुआ कि राधिका वास्तव में दलित प्रवासी मजदूरों के परिवार में पैदा हुई थी और उन्हें ओबीसी परिवार ने गोद लिया था। यद्यपि वह कभी भी अपने जैविक परिवार से नहीं मिली, लेकिन राधिका अपने दत्तक परिवार के कुछ सदस्यों के हाथों भेदभाव का शिकार हुईं क्योंकि वह दलित थीं। वास्तव में तभी वह अपने दलित पूर्वजों के बारे में जागरूक हुईं।
दूसरा आरोप यह था कि राधिका के पति और रोहित के पिता दलित नहीं थे, इसलिए रोहित को दलित नहीं माना जा सकता है। लेकिन राधिका की पहचान को उनके पति की पहचान पर आधारित करना यह साबित करता है कि किस तरह यह जातिय और लैंगिक भेदभाव का प्रतीक है।
हालांकि, अप्रैल 2016 में जिले के कलेक्टर जो कि इस मामले पर प्राधिकारी हैं, नेशनल एससीएसटी कमिशन के पूछे जाने पर प्रमाणित करते हैं कि वह वास्तव में एक दलित थीं। बाद में कलेक्टर ने पहले की रिपोर्ट/प्रमाण पत्र को रद्द करने के दबाव में आकर राधिका को यह नोटिस जारी कर दिया कि वह 15 दिन के अंदर साबित करें कि वह दलित हैं। जब यह सच्चाई सामने आई कि राधिका वास्तव में दलित है तो मामला शांत हो गया। राधिका वेमुला के खिलाफ इस तरह के बेबुनियाद और झूठे आरोप लगाना का एकमात्र मकसद उनको अपने बेटे के लिए न्याय की मांग करने से रोकना था |
लेकिन राधिका की पीड़ा सिर्फ मानसिक दुखों तक सीमित नहीं थी। 26 फरवरी 2016 को, तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृती ईरानी की संसद में दिए गए जोशीले लेकिन तथ्यामक रूप से सवालिया भाषण के दो दिन बाद, जब राधिका दिल्ली में अपने बेटे के लिए कैंडिल लाइट विजिल में हिस्सा ले रही थीं, तब पुलिस द्वारा दुर्व्यवहार किया गया और उन्हें घसीटा गया। रोहित की मां और दोस्तों ने उनकी मौत की पहली वर्षगांठ पर हैदराबाद में एक प्रदर्शन किया था। राधिका ने विश्वविद्यालय के गेट के बाहर रोहित के साथी छात्रों को संबोधित किया और यह कहा की उनका जीवन खतरे में था। पुलिस ने उन्हें विश्वविद्यालय के परिसर में प्रवेश करने से रोक दिया और
प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए गेट के बाहर बैरिकेड लगाए। फातिमा की तरह, राधिका को भी जल्द ही हिरासत में लिया गया |
इन दोनों मामलों को देखकर यह साफ़ पता चलता है कि भारत किस प्रकार अपनी मांओं को अपमानित, दंडित, अवरोधित और शर्मिंदा करता है। और अगर यह आपके सपनों का भारत नहीं है, तो शायद आप भारत की माताओं की गरिमा को पुनर्स्थापित करने में मदद करने के लिए एक छोटा सा कदम उठा सकते हैं।
सिटिजन फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) इस सामूहिक पीड़ा और चिंता को कार्रवाई में बदल देगा। माताओं के खिलाफ हिंसा समाप्त करने हेतु प्राधिकारियों से हस्तक्षेप करने के लिए कृपया हमारी एनसीडब्ल्यू की याचिका पर हस्ताक्षर करके इस मुहिम में शामिल हों। हम वीमन ह्यूमन राईट्स डिफेंडर्स (एचआरडी) की सुरक्षा को मजबूत करने के लिए एनएचआरसी से भी संपर्क करेंगे।
कृपया हमारी याचिका पर तुरंत हस्ताक्षर करें।
मुख्य छवि: प्रसिद्ध छवि गर्निका का रूपांतर ( सौजन्य आमिर रिज़वी ) अनुवाद सौजन्य: सुष्मिता