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भगवान जगन्नाथ, मुसलमान भक्त सालबेग और मशहूर पुरी रथयात्रा

पूरी दुनिया में मशहूर पुरी की रथयात्रा का धूमधाम के साथ आग़ाज़ हो चुका है. आस्था के अध्याय दोहराने का ये सफ़र अगले 9 दिनों तक पूरी गहमागहमी के साथ जारी रहेगा. परंपरा के मुताबिक़ हर साल की तरह यह रथयात्रा पुरी की ग्रांट रोड से गुज़रते हुए सालबेग की मज़ार पर उन्हें याद करने रुकेगी और फिर कुछ विराम के बाद भगवान का रथ भक्तों की भजन की धुन पर आगे के सफ़र की ओर रवाना होगा.  

विद्वानों का ऐसा मानना है की सालबेग से पहले पुरी के श्री जगन्नाथ मंदिर में सिर्फ़ संस्कृत श्लोकों को पाठ किया जाता था, ऐसे  दौर में सालबेग ने भजन के लिए आम जनता की भाषा उड़ीया को चुना और  भगवान जगन्नाथ तक अवाम की पहुंच को आसान बना दिया.  इन भजनों में उन्होंने गोपियों, ब्रज संस्कृति और कृष्ण की महिमा के साथ बहुत बार यशोदा-कृष्ण प्रसंग को भी अपना विषय बनाया है जिस कारण वो भक्तों के बीच ‘वत्सला’ नाम से भी लोकप्रिय हैं.

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आज भी भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा जब जन्मस्थान श्री गुंडीचा मंदिर की तरफ़ बढ़ती है तो रथ सजाने के लिए सालबेग की कविता की पंक्तियों का इस्तेमाल किया जाता  हैं.

सालबेग की अदृश्य पुकार है रथयात्रा का पड़ाव

‘आहे नीला सैला प्रबल माता बराना

मो अराता नालिनी बनाकू काला डलाना’

[हे  नीले पर्वत…  मज़बूत ताक़तवर और अपराजेय,

हे, शांत कमलरूपी जंगल, नाश (शत्रु का) करो.]

इन पंक्तियों की तरह कृष्ण की भक्ति में डूबे सालबेग के अनेक भजन आज तक लोगों की ज़बान पर हैं. कहा जाता है कि जहांगीर को दौर में कुली ख़ान उर्फ़ लालबेग नामक एक मुग़ल सूबेदार ओड़िसा के सफ़र के दौरान एक ब्राम्हण विधवा की ख़ूबसूरती पर मोहित हो गए थे. बाद में उन्होंने इस स्त्री से विवाह कर लिया था. इस हिंदू-मुसलमान जोड़े से जन्में सालबेग बचपन से ही भगवान कृष्ण की ओर झुकाव रखते थे. युवा होकर सालबेग ने मुग़ल सेना का रूख़ किया. एक रोज़ किसी जंग के दौरान वो बुरी तरह घायल हो गए थे, जिसके बाद मां के कहने पर उन्होंने जगन्नाथ से प्रार्थना की. सपने में भगवान के दर्शन पाकर जब वो दोबारा स्वस्थ हुए तो उन्होंने पूरा जीवन भक्ति और भजन के नाम समर्पित कर दिया.

धार्मिक नियमों के कारण के भगवान जगन्नाथ मंदिर में अन्य धर्मों का प्रवेश वर्जित था, इसलिए सालबेग को मुसलमान घराने से नाता रखने का कारण जीवन भर मंदिर में प्रवेश नहीं मिला और भगवान के दर्शन पाने की उनकी इच्छा पूरी नहीं हो पाई. फिर कृष्ण के प्रेम में उन्होंनें  कुछ समय वृंदावन में बसेरा किया. वहां कुछ दिन गुज़ारने के बाद जब वो साधुओं की एक टोली के साथ भजन गुनगुनाते पुरी की रथयात्रा में शामिल होने जा रहे थे तो रास्ते में ही उनकी सेहत बिगड़ जाने से मौत हो गई थी. उन्हें पुरी के क़रीब ही रास्ते में ग्रांट रोड पर दफ़ना दिया गया.

अचानक मौत की दस्तक़ से सालबेग की जगन्नाथ दर्शन की कामना अधूरी ही रह गई थी लेकिन उन्हें अपनी भक्ति पर भरोसा था. इस भक्ति और भरोसे का ही नतीजा था कि उस वर्ष जब जगन्नाथ की रथयात्रा निकली तो अपने भक्त को दर्शन देने के लिए यह रथ सालबेग की मज़ार पर रूक गया. ऐसा माना जाता है कि सालबेग की अदृश्य पुकार ने रथ रोक लिया था. मज़ार के पड़ाव पर रूकना तब से हर साल रथयात्रा का अभिन्न हिस्सा बन गया.

भारत की मिट्टी ऐसे कवि, भक्त और गीतकारों के सौंपे हुए ख़जाने से चमक रही है, जिन्होंने अलग-अलग समय में अपनी रचनाओं से धार्मिक एकता का उदाहरण पेश किया है. 17वीं शताब्दी के कवि सालबेग का असर भक्ति आंदोलन पर भी देखा जा सकता है. भक्ति धारा के कवियों ने साबित किया कि किसी पुजारी के बिना भी सीधे तौर पर भगवान की अराधना की जा सकती है. इस परंपरा में कबीर,मीरा, रविदास आदि के साथ ओड़िसा की ज़मीन से दासिया बाउरी और सालबेग का नाम भी आता है. देश की ख़ूबसूरत सामाजिक-सांस्कृतिक बुनावट में प्रार्थना और स्तुतियों के लिए आज भी इस मुसलमान कवि भक्त के गीत गाए जाते हैं. सालबेग धर्म और आस्था तक आम इंसान की पहुंच को आसान बनाने के लिए हमेशा याद किए जाएंगें और पुरी की रथयात्रा देश में हिन्दू- मुस्लिम भाईचारे और आपसी प्रेम के इतिहास की एक जीती -जागती गवाह बन कर ज़िंदा रहेगी.

Image Courtesy: m.punjabkesari.in

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