सम्पादकीय नोट : न्याय एक एकीकृत अवधारणा है। इसलिए, संस्थागत स्तर पर हम एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोपों से जुड़े मामले में न्याय करने के लिए न्यायालय की विफलता को स्वीकार किए बगैर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों पर चर्चा नहीं कर सकते हैं। इसलिए जबतक कि भविष्य में कोई भौतिक बदलाव (उदाहरण के लिए, जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए संरचनात्मक तंत्र की शुरूआत) नहीं की जाती है तब तक के लिए सर्वोच्च न्यायालय से संबंधित यह सम्पादकीय बतौर चेतावनी इस ब्लॉग पर भविष्य की सभी पोस्टों का हिस्सा बनी रहेगी।]
‘हमें कानूनी सवाल को तय करना होगा कि जब आपने खुद ही अदालतों का दरवाजा खटखटाया है तो फिर आप उसी मुद्दे पर विरोध कैसे कर सकते हैं।’
- सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस ए.एम. खानविलकर और सी.टी. रविकुमार के द्वारा मौखिक बहस के दौरान किया गया सवाल। जिसकी चर्चा यहाँ की गई है।
शब्द ‘प्रश्न’ की व्याख्या करते हुए ऑक्सफ़ोर्ड अंग्रेजी डिक्शनरी इसे ‘एक बिंदु या विषय की जाँच या चर्चा करने के लिए’, या किसी ‘एक समस्या या फिर समस्या का आधार होने वाला मामला’, या फिर किसी ‘एक (विषय) पर बहस, विवाद या तर्क’ के रूप में परिभाषित करती है। इस तरह से इस डिक्शनरी में ‘कानूनी’ शब्द को ‘क़ानून के वास्ते या उससे संबंधित’ के रूप में परिभाषित करता है; अर्थात वह जो क़ानून के दायरे में आता है।’ यह आगे ‘क़ानून के प्रश्न’ को ‘क़ानून के विवादित बिंदु से संबंधित एक मुद्दे के रूप में परिभाषित करता है जिस पर कानूनी निर्णय या राय की ज़रूरत होती है।’ उदाहरण के लिए, चुनावी बांड योजना या इलेक्टोरल बॉन्ड जिसमें कई कानूनी सवाल या क़ानून से जुड़े प्रश्न संवैधानिक चुनौती के रूप में बने हुए हैं। इस चुनौती को सुप्रीम कोर्ट पिछले साढ़े तीन सालों से इनकार कर रही है। यह एक मसला है जिस पर हम इस निबंध में बाद में वापस लौटकर आयेंगे। दूसरी तरफ, यदि मुझे अपने सिर के बल पर खड़ा होना पड़ जाये तो मेरे रीढ़ के लिए सवाल खड़ा हो सकता है। लेकिन यह ‘कानूनी प्रश्न’ नहीं है और यदि सुप्रीम कोर्ट ऐसा कहता है कि ऐसा ही था, ऐसी स्थिति में फिर इसके खुद के संबंध में बड़े सवालों का सामना करना पड़ सकता है। क्योंकि फिर एक प्रतिबद्ध संस्था के रूप में उसके समक्ष विधि नियम की रक्षा करना सबसे बड़ा सवाल बन जाता है।
शब्दों का महत्व होता है। शब्द हर समय मायने रखते हैं, लेकिन वे विशेष रूप से तब और भी ज़्यादा मायने रखते हैं जब उनका इस्तेमाल करने वाली संस्था सर्वोच्च न्यायालय है, जिसको क़ानून बनाने और घोषित करने एवं एक अरब से अधिक लोगों के जीवन को प्रभावित करने की संवैधानिक ताक़त सौंपी गई है। हालाँकि अदने–बौनो (हम्प्टी–डंपटी) को यह घोषणा करने का पूरा अधिकार है कि ‘जब मैं शब्द का इस्तेमाल करता हूँ, तो उसका मतलब वही होता है जो मैं कहना चाहता हूँ।’ परन्तु संवैधानिक अदालत को इस तरह से व्यवहार का अधिकार नहीं है। जब तक कि वह जनता को यह नहीं बताना चाहता कि उसको संविधान के तहत अपनी भूमिका के लिए कोई आदर या सम्मान नहीं है।
4 अक्तूबर 2021 को सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों (खानविलकर और जे. जे. रवि कुमार) की पीठ ने किसान महापंचायत बनाम भारतीय संघ नामक टाइटल से संबंधित मामले की सुनवाई करते हुए, अपने आदेश के दूसरे पन्ने में कहा कि :
संबंधित पक्षों के जानकार वकीलों और भारत के अटॉर्नी जनरल को सुनने के बाद हम इस मुद्दे पर कि क्या विरोध करने का अधिकार एक पूर्ण अधिकार (Absolute Right) की जाँच करना ठीक समझते है. खासतौर से तब, जबकि याचिकाकर्ता ने रिट दायर करके संवैधानिक न्यायलय के सामने कानूनी उपायों की गुज़ारिश की है. ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि किसी ऐसे मुद्दे पर, जोकि पहले से ही अदालत में विचाराधीन है, क्या उस पर विरोध का सहारा अख़्तियार किया जा सकता है?
किसी एक पैराग्राफ को जिसमें कई सारी कानूनी, तार्किक और नैतिक त्रुटियाँ मौजूद हों, उसे समझना काफी मुश्किल है. आइये इसे अलग-अलग कर इसकी जांच करते हैं.
क़ानून की खामी नंबर 1: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (ए) और (बी) शांतिपूर्ण तरीके से विरोध करने का मौलिक अधिकार देता है. अनुच्छेद 19 (1)(ए) और (बी) के तहत आने वाले सभी अधिकार को केवल संविधान के अनुच्छेद 19 (2) और (3) के तहत आने उप-खण्डों के आधार पर ही प्रतिबंधित किया जा सकता है (और, कुछ ऐसे प्रतिस्पर्धी अधिकार के असाधारण मामलों के संबंध में, जिसका अभी यहाँ पर हमें विचार करने की कोई ज़रूरत नहीं हैं). अनुच्छेद 19(2) और 19(3) न तो ‘विचाराधीन’ या इस तरह के किसी दूसरे शब्द का उल्लेख नहीं करता है, जो कि बोलने और एकत्रित होने की आज़ादी के अधिकार को प्रतिबंधित करता हो. भारत का संविधान, अदालत को ऐसा कोई आधार नहीं देता है जिससे कि अदालत को संवैधानिक अधिकार को दबाने के लिए नए आधार मिल जाये. वास्तव में देखा जाये तो ऐसा करने का अधिकार तो देश की विधायिका को भी नहीं हासिल है.
क़ानून की खामी नंबर 2: ऐसा कोई क़ानून नहीं है जो यह कहता हो कि अगर मैं किसी मुद्दे पर अदालत में जाता हूँ, तो मान लिया जायेगा कि मैंने उस मुद्दे पर विरोध करने का अपना अधिकार छोड़ दिया है (ऐसा कोई भी क़ानून यदि होता है तो उसे असंवैधानिक माना जायेगा, ख़ैर अभी इसे एक पल के लिए अनदेखा कर देते हैं)| अनुच्छेद 19 की योजना के तहत यह केवल विधायिका है जो कानूनों के माध्यम से मौलिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा सकती है। जिसको कि संवैधानिक न्यायालय की अनुच्छेद 19 (2) या (3) का अनुपालन के लिए समीक्षा करनी चाहिए। यह न्यायालय का काम नहीं है कि वह नागरिकों को उनकी मौलिक स्वतंत्रता का प्रयोग करने की अनुमति कैसे है या नहीं है, इसके बारे में बताये। हमारी संवैधानिक योजना के तहत, हमारे पास सुप्रीम कोर्ट है, न कि सुप्रीम सेंसर है।
क़ानून की खामी नंबर 3: यदि एक कानूनी प्रश्न का जवाब पहले ही दिया जा चुका है और खासतौर पर एक बड़ी न्यायिक पीठ द्वारा जवाब दे दिया गया हो तो फिर वह ‘कानूनी प्रश्न’ नहीं रह जाता है। खानविलकर और रवि कुमार जेजे ने इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया कि तीन न्यायाधीशों की पीठ पहले ही कह चुकी है कि न्यायिक मंच से संपर्क करने मात्र से, विरोध करने के अधिकार पर कोई असर नहीं पड़ता है।
तर्क 1 की खामी : जब कोई पक्ष किसी क़ानून को चुनौती देने के लिए अदालत में जाता है तो वह उक्त क़ानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देता है। चलिए मान लेते हैं कि सुप्रीम कोर्ट क़ानून को बरक़रार रखता है और उस पक्ष के दावों को ख़ारिज कर देता है। पहली बात तो यह है कि हो सकता हो कि न्यायालय ने इसको गलत तरीके से समझ लिया हो. इतिहास तमाम ऐसे फैसलों से भरा हुआ है जो न केवल गलत हैं या जिन्हें गलत माना गया है बल्कि वास्तव में वे इतने गलत रहे हैं कि अदालत ने उन फैसलों के लिए माफी मांगना उचित समझा। कोर्ट में भी आपके और मेरे जैसे इंसान हैं जो गलतियाँ कर सकते हैं। हालांकि इस तरह के आदेश से पता चलता है कि वे ऐसा नहीं सोच सकते हैं। यह विश्वास कर लेना कि किसी मामले को न्यायालय में ले जाने का मतलब यह है कि स्वर्ग के निर्णय के अधीन होना है। ऐसा तर्क आश्चर्यजनक रूप से घमंड से भरा हुआ है। जबकि किसी के भी फैसले पर असहमति की आवाज़ हो ही सकती है।
तर्क 2 की खामी : दूसरी बात, कुछ पल के लिए यह मान लिया जाये कि अदालत इसे ठीक कर देती है, तब भी, यह याचिका महज़ क़ानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती है. ऐसा संभव हो सकता है कि संवैधानिक रूप से मान्य क़ानून अविवेकपूर्ण, अपुष्ट, मूर्खतापूर्ण और ख़राब नीति–निर्माण को प्रतिबिंबित कर सकते हैं। न जाने कितनी बार न्यायालय ने फैसला सुनाते हुए इस बात पर जोर दिया है कि वह किसी क़ानून के गुणवत्ता पर टिप्पणी नहीं कर रहा है। तो ऐसे में, आख़िरकार दुनिया ऐसा कौन सा यक्ष “कानूनी सवाल” रह जाता है जो नागरिकों को उस क़ानून का विरोध करने से रोकता है जिसे अदालत में चुनौती दी गयी हो. ऐसा होने पर, किस दुनिया में यह एक “कानूनी प्रश्न” होने का कोई मतलब है कि किसी मामले को अदालत में ले जाने से लोगों को उस क़ानून का विरोध करने से रोकता है जिसे चुनौती दी गई है?
नैतिकता की खामी नंबर 1: महत्वपूर्ण संवैधानिक मामलों की सुनवाई के अपने हालिया रिकॉर्ड को देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट द्वारा क़ानून को अदालत में ले जाने के बाद विरोध करने वाले लोगों पर नाराजगी व्यक्त करना और भी दुखद तस्वीर पेश करता है. आइये इस रिकॉर्ड को याद करते हैं। अदालत ने आधार कार्ड की संवैधानिक चुनौती पर सुनवाई के लिए पूरे छह साल का समय लिया। इस दौरान आधार प्रोजेक्ट एक निर्विवादित तथ्य (सफल सिद्ध हुआ) बन गया। 7 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 का प्रभावी निरस्तीकरण के लिए संवैधानिक चुनौती दायर की गई थी। दो साल बीत चुके हैं पर अभी भी कोई फैसला नहीं आया है। चुनावी बांड मामले में संवैधानिक चुनौती 2018 में दायर की गई थी। साढ़े तीन साल बीत चुके है परन्तु अभी तक कोई भी फैसला नहीं हुआ है। जब 5 अगस्त 2019 की घटनाओं के बाद बंदी प्रत्यक्षीकरण (habeas corpus) के मामले को दायर किया गया था, तो तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश और वर्तमान में राज्य सभा सांसद रंजन गोगोई ने उन लोगों का खुले तौर पर मज़ाक उड़ाया था। जिन्होंने इसे दायर किया था और उनमें से कई याचिकाओं पर महीनों तक कोई फैसला नहीं हुआ था। इसी तरह से एक साल से कुछ अधिक समय पहले जब पत्रकार सिद्दीकी कप्पन को हाथरस गैंगरेप पर रिपोर्ट करने के दौरान यूपी पुलिस ने जेल में डाल दिया था तब उस समय के मुख्य न्यायाधीश बोबडे ने उसकी अनुच्छेद 32 याचिका को बार–बार स्थगित किया था। जिसके कारण कप्पन आज तक बिना किसी जाँच के जेल में बंद हैं। इन सबके अलावा, स्वयं कृषि कानूनों के बारे में उनका क्या नज़रिया रहा है? जब पिछले साल कृषि कानूनों को चुनौती दी गई थी तो सुप्रीम कोर्ट ने बहुत ज़्यादा हैरतंगेज़ परिस्थिति (संदिग्ध) में बिना कोई ठोस कारण बताए उन कृषि कानूनों पर रोक लगा दिया था। तुरन्त आनन–फानन में एक कमेटी का गठन किया और रिपोर्ट मांगी गई, उसके बाद मामले पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी। जब महत्वपूर्ण संवैधानिक याचिकाओं को निपटाने को लेकर किसी की कोई जवाबदेही नहीं हैं और जहाँ गैर-निर्णय (non–decision) सीधे तौर पर शासन-प्रशासन के पक्ष में हों, ऐसे में, न्यायधीश खानविलकर और रवि कुमार जेजे का ये कहना कि यदि किसी क़ानून को अदालत के समक्ष चुनौती दे दी जाती है तो फिर वे उस क़ानून के खिलाफ विरोध कैसे कर सकते हैं. ऐसी परिस्थिति में ऐसा कहना कितना उचित है? दरअसल यह कोई साधारण नैतिक गड़बड़ी नहीं है बल्कि यह एक अव्वल दर्जे का कपट है.
नैतिक की खामी 2: हम ऐसे समय में रह रहे हैं जहाँ घात लगाकर हमला करने वाली जनहित याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुकदमेबाजी के रूप में एक सामान्य विशेषता बन चुकी हैं। सभी लोग इस बात से वाक़िफ़ हैं यहाँ तक कि अदालत भी जानती है कि पीआईएल (PIL) का हमला कैसा होता है। जब भी कोई विवादास्पद क़ानून पारित होता है या विवादास्पद कार्यकारी कार्रवाई की जाती है, तब ऐसे में चौबीस घंटों के भीतर, एक आधी-अधुर्री, घटिया ढंग से तैयार और ख़राब तर्क से सुसज्जित जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर की जाती है। ऐसी जनहित याचिका को ख़ारिज करने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता है। इस तरह की कपटपूर्ण जनहित याचिकाओं द्वारा निभाई गयी रणनीतिक भूमिका बहुत साफ़ है. दरअसल, इस तरह की जनहित याचिकाएं उन प्रभावित पक्षों को, जो साधारणता शायद ही अदालत का दरवाज़ा खटखटाते, और जिनके पास जनहित के अलावा कोई और विकल्प नहीं होता है : ऐसे लोगों के लिए इस तरह की जनहित याचिका के तहत एक विपरीत निर्णय का जोखिम बना रहता है. वास्तविकता के इस पटल में, न्यायालय का यह सुझाव देना कि मामला दर्ज करने की कार्यवाही का मतलब है कि याचिका दायरकर्ता के लिए दूसरे सभी तरह की संवैधानिक (जो संविधान में दिए गए है) कार्यवाही न करने की कसम खायी है जो उनके हितों को प्रभावित करती हो. ऐसा या इस तरह का कोई भी आदेश चालबाजी से भरा हुआ है.
इसलिए यह जरुरी बन जाता है कि यह कथन स्पष्ट होना चाहिये ‘…कि वह याचिकाकर्ता जिसने पहले से ही संवैधानिक न्यायालय के समक्ष रिट दायर किया हुआ है और उक्त मामले में कानूनी हस्तक्षेप की मांग करता है, ऐसा याचिकाकर्ता इस मांग को रखने के बाद उसी मुद्दे पर आंदोलन करने का दावा तो दूर, आग्रह भी नहीं कर सकता है क्या? खासतौर से, जब मामला पहले से ही अदालत के विचाराधीन में हो….’ ऐसा कथन पूरी तरह से बेतुका है. जबकि यह मामला दर्ज करने से नागरिकों के अनुच्छेद 19 (1) के अधिकारों का फौरी-तौर पर नुकसान होता है. ऐसे में, यक्ष “सवाल” यह है कि संवैधानिक न्यायालय को यह कहने की अनुमति कैसे दी जा सकती है. स्पष्ट रूप से, इस तरह के प्रस्ताव के आग्रह और दावे को तभी स्वीकार किया जा सकता है जब हंपटी-डंपटी (अदने और बौने) की ताक़त को मान लिया जाता है, यानि कि जहाँ जो कुछ भी बोला जाता है वह मान्य होता है. और इस तरह से सुप्रीम कोर्ट के यह दो न्यायाधीशों की बेंच, नागरिकों के उन अधिकारों का जिसका कि वह खुद संरक्षक है, उसकी पूरी तरह से अवमानना करती है. और तो और, ऐसा करने में वह खुद को सत्ता के पक्ष के साथ खड़ा करती है. ऐसे में यह पुरानी कहावत कि ‘राजा से भी अधिक वफादार’ आज भी उपयुक्त मानी जाती है.