1961 में जन्मीं सुधा भारद्वाज 25 वर्षों से भी अधिक छत्तीसगढ़ के मजदूर आन्दोलनों का हिस्सा रही हैं. वे पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (पीयूसीएल) की छत्तीसगढ़ इकाई की सचिव हैं, साथ ही यौन हिंसा व राजकीय दमन के ख़िलाफ़ महिलाएं (डब्ल्यूएसएस) की सदस्य भी हैं.
बिलासपुर में कई सालों तक रहने और काम करने के बाद, सुधा भारद्वाज हाल ही में दिल्ली गई थीं. राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय दिल्ली में विज़िटिंग प्रोफेसर के तौर पर पढ़ा रही थीं. यहां वे जनजातीय अधिकारों और भूमि अधिग्रहण पर सेमिनार करती थीं और कानून व गरीबी पर चल रहे नियमित पाठ्यक्रम का हिस्सा भी थीं. दिल्ली न्यायिक अकादमी के कार्यक्रम के हिस्से के रूप में, उन्होंने श्रीलंका की श्रम अदालतों के अध्यक्षों को भी संबोधित किया है. मानव अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने वाली सुधा भारद्वाज के घर पर, जब पुणे पुलिस ने छापेमारी की और देर रात उन्हें गिरफ़्तार किया गया तो देश भर को एक सदमा सा लगा. फ़िलहाल उन्हें उनके घर पर ही नज़रबन्द रखा गया है.
सुधा भारद्वाज के शुरुआती दिन
सुधा जी ने शुरूआती दिन अपनी माता कृष्णा भारद्वाज के साथ जेएनयू में बिताए, लिहाज़ा उन्हें आरम्भ से ही राजनैतिक और वैचारिक रूप से परिपक्व होने का माहौल मिला. उन्होंने जेएनयू में जीवंत छात्र राजनीतिक आंदोलनों को बारीकी से देखा है. हालांकि आईआईटी कानपूर वो जगह रही जहां उनकी विचारधारा मौलिक रूप से राजनैतिक हुई. यहां उन्होंने गणित विषय से पढाई की. कैम्पस में वे राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय रूप से शामिल रहीं. पुरुषवादी मानसिकता वाले उस विशाल परिसर में एक महिला होने के चलते, उन्हें बहिष्कार जैसी परिस्थिति का सामना करना पड़ा. कैम्पस के अन्दर उनके लिए कथित रूप से “कौमी” (कम्युनिस्ट के लिए प्रयोग किया जाने वाला स्लैंग) शब्द का प्रयोग किया जाता था. यहां वे एनएसएस से जुड़ीं. सुधा शिक्षण कार्य के लिए हमेशा उत्सुक रहा करती थीं. एनएसएस के माध्यम से हुई अनेकों ग्रामीण यात्राओं ने जातिगत और ग्रामीण भारत की कठोर वास्तविकताओं से उन्हें परिचित कराया.
छत्तीसगढ़ और शंकर गुहा नियोगी के साथ काम
गणित की पढ़ाई पूरी कर सुधा छत्तीसगढ़ आ गईं, यहां उन्होंने माइनिंग, खदानों में काम करने वाले ग़रीब मजदूरों के लिए काम करने का फ़ैसला लिया. प्रदेश भर की मजदूर यूनियनों के साथ मिलकर उन्होंने “छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा” नामक संगठन की शुरुआत की. यहां वे छत्तीसगढ़ के मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी के साथ जुड़ीं और सराहनीय कार्य किया. यूनियन में उन्होंने लगातार महिलाओं को संगठित और शिक्षित किया. यूनियन में महिलाओं को लीडर की भूमिका में लाने का महत्वपूर्ण कार्य सुधा जी ने किया. यूनियन में महिला-पुरुष की बराबर भागिदारी, बराबर अवसर व बराबर सम्मान का माहौल तैयार करने की दिशा में किया गया कार्य अविस्मर्णीय है. खदान मजदूर जैसे तबके में, और वहां भी महिलाओं के मन में राजनैतिक चेतना पैदा कर उन्हें मुख्याधारा से जोड़ने जैसा महत्वपूर्ण कार्य भी सुधा जी ने किया. सुधा जी के प्रयासों से इन यूनियनों ने केवल आर्थिक प्रश्न को संबोधित नहीं किया,बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य और शराब विरोधी अभियानों पर भी ध्यान केंद्रित किया.
उनका मानना है कि खदान मजदूरों की यूनियनों के साथ काम करना, श्रेणियों और ग्रेड में बंटे समाज को समानता और मानवतावाद की ओर ले जाने का एक अहम ज़रिया है.
भिलाई आंदोलन
1991 में शंकर गुहा नियोगी की हत्या कर दी गई थी, उसके बाद 1992 में हुई पुलिस फाईरिंग के दौरान भिलाई के 17 मजदूरों की जान चली गई. सैकड़ों मजदूर व मजदूर नेता जेल में बन्द कर दिए गए. अपने मूल अधिकारों, जैसे काम के आठ घंटों का निर्धारण, न्यूनतम मजदूरी, उपस्थिति दर्ज होना, मेहनताने की रसीद आदि, ऐसी मांगो के कारण भिलाई के मजदूरों को भारी दमन का सामना करना पड़ रहा था. कम्पनी मालिकों ने बातचीत से भी इनकार कर दिया था. और चूंकि शंकर गुहा नियोगी की हत्या हो चुकी थी लिहाज़ा वृहद् पैमाने पर चले इस मजदूर आन्दोलन का नेतृत्व सुधा भारद्वाज ने ही किया.
महिला सशक्तिकरण
नियोगी की ही तरह, सुधा भारद्वाज का भी यही मानना है कि इन मजदूरों के साथ काम करने मात्र से कुछ नहीं होगा, बदलाव तब होगा जब हम उनकी जिंदगी के हर पहलू को समझेंगे और उसमें शामिल हो जाएंगे. सुधा ने ये महसूस किया कि इन मजदूर महिलाओं को अलग ही तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. इन समस्याओं को न ठीक से चिन्हित किया गया है, और न ही इन पर कभी बात की जाती है. इस तबके में एक बड़ी संख्या ऐसे पुरुषों की है जो गर्भनिरोधक का इस्तेमाल नहीं करते हैं, शायद कहने पर भी नहीं. जिससे अवांछित गर्भ और गर्भपात की घटनाएं बढ़ रही हैं. अधिकतर महिलाएं ऐसी थीं जिनपर मजदूरी के साथ घर के कामों का अतिरिक्त और अत्यधिक बोझ था. यहां सुधा ने मजदूर आन्दोलन में महिलाओं की भूमिका सुनिश्चित करने पर जोर दिया.
सुधा भारद्वाज और वकालत की पढ़ाई
ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी छोड़ खनन मजदूरों के लिए काम करने की भावना लोगों में कम ही दिखती है, वकालत का पेशा भी इस तंगी से अछूता नहीं है. भिलाई में रहते हुए सुधा जी के लिए ये बड़ी तकलीफ़ की बात थी कि एक सीमा बाद वो इन मजदूरों के लिए कुछ नहीं कर पा रही थीं, क्योंकि अदालत की जिरह तो वकील को ही करनी होती है, और तब सुधा जी वकील नहीं थीं. कंपनियों और खनन माफ़ियाओं के अत्याचारों के ख़िलाफ़, बिना डरे और बिना बिके लड़ने वाले वकील खोजना वाकई मुश्किल काम है.
साथियों के सुझाव पर सुधा जी ने ख़ुद ही कानून की पढ़ाई शुरू की. सन 2000 में सुधा जी ने अपनी वकालत की पढ़ाई पूरी की और अदालत में मजदूरों का प्रतिनिधित्व करना शुरू किया. सन 2000 से 2006 तक लोअर कोर्ट में उन्होंने वकालत की प्रैक्टिस की.
ट्रेड यूनियनों के लिए काम करते हुए, और बाद में, वकील बनने के बाद उन्होंने महसूस किया कि केवल इन खनन मजदूरों को ही नहीं, भूमि अधिग्रहण के मामलों में देश के किसानों को भी कानूनी प्रतिनिधित्व की बहुत ज़रुरत है. तब उन्होंने “जनहित” नाम की संस्था बनाने की सोची जो सामुदायिक वन अधिकारों, आदिवासियों, पर्यावरण से सम्बंधित मामलों और जनहित याचिकाओं (पीआईएल) पर काम करेगी.
उनसे जब पूछा गया कि एक ऐसे राज्य में जो ग़रीब विरोधी हैं, महिला विरोधी हैं, आदिवासी विरोधी हैं यहां तक कि कानून विरोधी भी हैं, क्या वहां कानून के ज़रिए न्याय की उम्मीद की जा सकती है? तब उन्होंने जवाब दिया “देखिये हमें इसे कानून मात्र की तरह नहीं देखना चाहिए, दरअसल यहां दो प्रकार के कानून हैं, एक तरह का कानून वो है जिसे बनाने के लिए हमने संघर्ष किया है, जिससे हम अपना प्रतिनिधित्व कर पाएं. फिर वो चाहे श्रम कानून हो या वन अधिकार कानून… हमने कड़े संघर्ष से इसे हासिल किया है. ये आंदोलन की प्रतिक्रिया है, ये प्रतिक्रिया है उस मजदूर को संगठित होकर आगे बढ़ाने की जो अब तक बहुत नीचे दबा हुआ था.
मानव अधिकार के पैरोकार वकील के तौर पर वे हबियास कॉर्पस (अगवा करना) और आदिवासियों को फ़र्ज़ी मुटभेड़ में मार दिए जाने के मामलों के तहत छत्तीसगढ़ उच्च न्यायलय में उपस्थित रही हैं. दूसरे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की रक्षा के मुद्दों को वे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के समक्ष रखती रही हैं. हाल ही में छत्तीसगढ़ के सुकमा ज़िले के कोंडासावली गाँव में हुई घटना की जाँच के मामले में एनएचआरसी ने सुधा भारद्वाज की मदद मांगी थी. इन सभी मामलों में उन्होंने “एक मानवाधिकार वकील से अपेक्षा की जाने वाली पेशेवर अखंडता और साहसपूर्ण कार्य का परिचय दिया है”.
काम के प्रति उनकी ये ईमानदारी, ये लगन और लोगों में उनका प्रभाव ही है, कि बड़ी कंपनियों और कंपनियों की चहेती सरकार की नज़र में वो कांटे की तरह चुभने लगी हैं. हाल की गिरफ़्तारी और अर्बन नक्सल वाला प्रपंच इसी का नतीजा है. हालांकि सुधा जी के जज़्बे में इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता वो कहती हैं “यदि आप सुरक्षित और बीच में रहने की कोशिश करते हैं, तो आप कभी सफल नहीं होंगे”.
अनुवाद सौजन्य – अनुज श्रीवास्तव