ग्रेजुएट करने वाली इस क्लास की औसत उम्र, मुझे लगता है, 23 है। “आपातकाल“ आपके लिए एक ऐतिहासिक धारणा ही होगी, एक समयकाल जिसके बारे में आपने सुना या पढ़ा होगा लेकिन आपके लिए इसका ब्रिटिश राज, स्वतंत्रता संग्राम, आजादी या विभाजन से ज्यादा महत्व नहीं होगा। 1975-77 के समयकाल के पौनी सदी बाद जन्म लेना और शोरगुल से भरी पत्रकारिता के इस युग में समझदारी आने की उम्र में आना, आपके लिए यह समझना मुश्किल ही होगा कि एक स्वतंत्र देश के लिए गणतंत्र बनने के 15 साल बाद ही सेंसरशिप और समाचार ब्लैकआउट की खाई में गिरना कैसा होता होगा।
उस राष्ट्र के सदमे की कल्पना कीजये जो 25 जून 1975 को उठा तो उसे अखबारों के खाली मुखपृष्ठ दिखे, जिसके बाद 21 महीने तक जबरन सरकारी प्रचार ही मिला। टीवी समाचार का अस्तित्व नहीं था, विदेशी मीडिया गायब हो गया, अखबार और चंद पत्रिकाएं जो थीं, को सरकारी सेंसरकर्ताओं के आगे समर्पण करना पड़ा, और वास्तविक समाचारों के चंद स्रोतों में से एक बीबीसी की रेडियो एशिया सेवा थी। जब हम देशवासियों ने खुद को संविधान दिया था, उसके पौनी सदी बाद अनुच्छेद 19(1)(ए) से गारंटीशुदा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बिखर गई, उस पर सुप्रीम कोर्ट का कुख्यात मामले एडीएम जबलपुर बनाम शिव कांत शुक्ला (1976) में आत्मसमर्पण।
एक चमत्कार, जो एक दूसरी ही कहानी है, से हम बच गये। चुनाव कराये गये, आपातकाल उठाया गया और 21 मार्च 1977 से हमारे मीडिया ने वापसी की और इस बार अबाधित आशावाद लगभग चार दशक चला। इस दौरान, जिस शोरशराबे की मैंने बात की कोलाहल में बदल गया, प्राइम टाइम पर चीखने चिल्लाने की प्रतियोगिताओं से और जमीनी जांच और खबरों जिनमें लगातार एक और “घोटाले“ (हद से ज्यादा इस्तेमाल किये गये इस शब्द को हमेशा के लिए दफना देना चाहिए) का पर्दाफाश करने का दावा किया जाता था बढ़ गया। ढेर सारी पत्रिकाएं अखबारी दुनिया में आ गई और क्षेत्रीय भाषा प्रकाशनों के प्रसार व पहुंच में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। आपातकाल की यादें फीकी पड़ने लगीं औैर यह अकल्पनीय ही हो गया कि सर्वत्र मौजूद इंटरनेट और सोशल मीडिया और एडीएम जबलपुर की काली छाया को फिर न पनपने देने की कसमें खाने वाली अदालतों के होते हहुए पत्रकारों या समाचारों के पैरोकारों को कभी भी दबाया जा सकता है।
पर एक मजबूत सरकार ने आशावादियों को गलत साबित किया है, ऐसी सरकार ने जो मानती है कि संसद में तगड़ा बहुमत ही मीडिया को दबाने, झुकाने और अपनी बात मनवाने के लिए पर्याप्त औजार है। आधुनिक तानाशाह के तौरतरीकों से सबक सीखते हुए और यह जानते हुए कि खुली सेंसरशिप 21वीं सदी में नहीं चलेगी, एनडीए-बीजेपी सरकार, जो 2014 में सत्ता में आई, ने मेंढक को उबालने की आजमाई हुई तकनीक अपनाई। आप मेंढक को एक ठंडे पानी से भरे पतीले में डालते हैं और तापमान धीरे-धीरे बढ़ाते हैं। पानी पहले सामान्य, फिर गुनगुना होता है और अंत में जब उबलने लगता है तब तक मेंढक फंस जाता है और चाहकर भी निकल नहीं पाता।
यह चरण शुरू किया गया पहले मीडिया की वैधता को चुनौती देने से। इसकी शुरुआत हुई केंद्रीय मंत्रियों का पत्रकारों को ‘प्रेस्टीट्यूट‘ जैसे शब्दों से नवाजने से। इसकी प्रगति हुई प्रेस कांफ्रेंसों को त्यागने और पत्रकारों को प्रधानमंत्री के साथ विदेशी दौरों पर जाने से रोकने से। फिर यह ऐसे मुकाम पर पहुंचा जहां बनी-बनाई पटकथा, तस्वीरों और वीडियो क्लिप के हैंडआऊट के एकमात्र स्रोत का इस्ततेमाल होने लगा। और सावधानी से चुने गये साक्षात्कारकर्ताओं की ही प्रधानमंत्री तक पहुंच सीमित कर संदेश भेजा गया। अन्य समयकाल व देशों के मजबूत नेताओं से सबक लेते हुए प्रधानमंत्री ने लोगों से संपर्क का सीधा चैनल स्थापित किया अपने रेडियो कार्यक्रम मन की बात से, जो सरकारी मीडिया और निजी मीडिया में सरकार के चीयरलीडरों ने फैलाने में मदद की।
इसीके साथ, गाजर व छड़ी का रवैया अपनाते हुए एक तरफ चहेते संस्थानों को उदार सरकारी विज्ञापनों से नवाजा गया और दूसरी तरफ विज्ञापन कटौती और नेटवर्क मालिकों व अखबार मालिकों के अन्य व्यावसायों को कुचलने की धमकियों का इस्तेमाल किया गया यदि वह सरकार की लाइन पर नहीं चले तो। ऐसे देश में जहां हर दूसरा राष्ट्रीय टेलीविजन नेटवर्कों और अधिकांश समाचार समूहों के मालिक उद्योगपति हैं जिन्हें सरकारी संरक्षण, या कम से कम सरकारी सहयोग की आवश्यकता होती है, निहित धमकी, परोक्ष हो या प्रत्यक्ष, वांछित नतीजे हासिल करने में असफल हो ही नहीं सकती।
मीडिया को काबू करने का एक पसंदीदा तरीका पत्रकारीय स्वतंत्रता के लिए खड़े होने वालों को निकालकर उनका उदाहरण बनाना है। रिलायंस इंडस्ट्रीज ने कई मीडिया कंपनियों में निवेश किया था, अक्सर वह फरिश्ता निवेशक हुआ करता था, जो पेशेवर स्वतंत्र मीडिया संस्थानों को दिवालिया होने से बचाने के लिए निवेश करता था। 2014 तक रिलायंस का सार्वजनिक रुख यही था कि वह न तो कहीं मेजॉरिटी कंट्रोल अपने हाथ में लेता था और न ही ऐसे संस्थानों के संचालन में हस्तक्षेप करता था। 2014 में यह मामला बदला, रिलायंस ने नेटवर्क18 का होस्टाईल टेकओवर किया, नतीजतन नेटवर्क के प्रमुख चैनल के प्रधान संपादक राजदीप सरदेसाई और डेपुटी एडीटर सागरिका घोस को इस्तीफा देना पड़ा। सरदेसाई ने सार्वजनिक रूप से संपादकीय नियंत्रण खोने पर चिंता व्यक्त की। नेटवर्क18 के बाद, कहा जाता है रिलायंस अब देश भर में 70 संस्थान नियंत्रित करता है जिसकी मिश्रित साप्ताहिक दर्शकता 80 करोड़ दर्शक हैं।
2017 के बाद के समय ने ज्यादा खुला दबाव देखा, कुछ मामले प्रधानमंत्री और मीडिया मालिकों की बैठक के बाद हुए। बरखा दत्त को जनवरी 2017 में एनडीटीवी से इस्तीफा देने पर मजबूर किया गया, हिंदुस्तान टाइम्स के प्रधान संपादक बॉबी घोष, जिन्होंने “हेट ट्रैकर‘ शुरू किया था, को सितंबर 2017 में इस्तीफा देने पर मजबूर किया गया, आधार में डाटा ब्रीच को बेनकाब करने वाली रिपोर्ट के बाद हरीश खरे को ट्रिब्यून के संपादकत्व से हटाया गया, एबीपी के प्रबंध निदेशक मिलिंद खांडेकर और एबीपी टीवी के मास्टरस्ट्रोक के एंकर पुण्य प्रसून बाजपेयी ने अचानक अगस्त 2018 में इस्तीफा दिया, उसी साल एबीपी न्यूज से अभिसार शर्मा भी अलग हुए, फाये डिसूजा को सितंबर 2019 में मिरर नाओ से हटाया गया और श्याम मीरा सिंह को प्रधानमंत्री की आलोचना करने वाले ट्वीट के कारण जुलाई 2021 में आज तक से इस्तीफा देना पड़ा। और यह केवल सामने आयी मिसालें हैं, ऐसे कई मामले कहीं दबे पड़े हैं।
स्वामित्व के कुछ हाथों में सीमित होने और विद्वान आलोचकों को शांत करने के लिए सहायक शक्ति प्रणालियों के इस्तेमाल से उपजी सेल्फ सेंसरशिप अन्य स्वरूपों में भी दिखने लगी। एक जाना-माना उदाहरण रामचंद्र गुहा का हिंदुस्तान टाइम्स में पखवाड़े में छपने वाला कॉलम बंद होना है, जो सरकार के सेंट्रल विस्ता परियोजना पर लेख प्रकाशित करने से अखबार के इंकार करने के कारण हुआ। एक और प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी प्रताप भानु मेहता पर प्रिंट में सरकार की आलोचना बंद करने के लिए उस विश्वविद्यालय के निदेशक मंडल से दबाव डलवाया गया, जिसके वह डीन थे। पर चुप हो जाने के बजाय, मेहता ने विश्वविद्यालय छोड़ दिया और अमेरिका के किसी और विश्वविद्यालय में चले गये और इंडियन एक्सप्रेस को श्रेय दिया जाना चाहिये कि उन्होंने मेहता का साप्ताहिक स्तंभ बिना ब्रेक के जारी रखा।
पालतू माहौल पाने के लिए मीडिया मालिकों का इस्तेमाल पूरा हुआ एनडीटीवी के होस्टाईल टेकओवर से। पुराने संस्थानों में एनडीटीवी अंतिम था जो स्वतंत्र समाचार देने का प्रयास कर रहा था। रायटर्स इंस्टीट्यूट के स्टडी ऑफ जर्नलिज्म के लिए किये एक सर्वेचण के अनुसार अन्य राजनीतिक दलों के समर्थकों का 81 फीसदी और भाजपा समर्थकों का भी 75 फीसदी मानता था कि एनडीटीवी समाचार व सूचना का एक विश्वसनीय स्रोत था। आयकर छापों और अन्य सरकारी गतिविधियों के बावजूद इस चैनल की जारी स्वतंत्रता, जाहिर है, सत्ता के लिए अपचनीय थी।
गौतम अडानी, जिनका मोदी सरकार से सहजीविता का रिश्ता सर्वज्ञात हे, के नेतृत्व में अडानी समूह ने चुपके से पूर्व में रिलायंस की मालिकी में एक निजी निवेश कंपनी खरीद ली। रिलायंस इस कंपनी के जरिये एनडीटीवी मालिकों को कर्जदारों को दूर रखने के लिए कई सालों से फाइनांस कर रहा था। हालांकि फाइनांसिंग का उद्देश्य कब का पूरा हो चुका था और ऋण चुकाये जा चुके थे, निवेश कंपनी को प्रणय और राधिका की निजी निवेश कंपनी, जिसके जरिये वह एनडीटीवी में बहुमत शेयरों के मालिक थे, में 20 फीसदी और शेयर खरीदने का अधिकार था। गौतम अडानी ने अचानक इस अधिकार का इस्तेमाल किया और सेबी के टेकओवर कोड के अनुसार 20 फीसदी अतिरिक्त शेयर खरीदने का सार्वजनिक प्रस्ताव दिया, जिससे प्रणय और राधिका रॉय की निकासी का रास्ता साफ हुआ। इसे व्यापक तौर पर भारत में “स्वतंत्र मीडिया का खेल खत्म“ होने के रूप में देखा गया, जिससे एनडीटीवी इंडिया प्रमुख रवीश कुमार समेत एनडीटीवी प्रबंधन, संपादकीय स्टाफ व संवाददाताओं के इस्तीफे का सिलसिला शुरू हो गया।
सत्तारूढ़ ताकतों के करीबी मालिकों के इस हालिया टेकओवर ने मीडिया परिदृश्य को नया आयाम दिया जो पहले से सरकार के दोस्त मालिकों से भरा पड़ा था। कुछ उदाहरण हैं, रिपब्लिक टीवी के सहसंस्थापक और मुख्य रूप से फंड मुहैया कराने वाले राजीव चंद्रशेखर थे जिन्होंने केंद्रीय मंत्री बनने के लिए 2019 में अपना हिस्सा त्याग दिया, जी मीडिया कार्पोरेशन जो एस्सेल समूह का हिस्सा है, के मुखिया सुभाष चंद्रा हैं जो राज्यसभा सदस्य थे और उनकी उम्मीदवारी को भाजपा का समर्थन था। उड़ीसा टीवी का स्वामित्व भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और प्रवक्ता बैजयंत पंडा के परिवार के हाथ में है और पूर्वोत्तर के लोकप्रिय टीवी चैनल न्यूज लाईव की मालिक असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्व सरमा की पत्नी रिनीकी भुयान सरमा हैं।
लचीले टीवी व अखबार मालिकों पर निर्भरता से ही संतुष्ट न होते हुए, वर्तमान शासन ने स्वतंत्र मीडिया संस्थानों, पत्रकारों व टिप्पणीकारों पर दबाव बढ़ाने के लिए सोशल मीडिया हमलों, लाइसेंस रद्द करने, केंद्रीय एजेंसियों व प्रदेश पुलिस विभागों से जांच करवाने और प्राथमिकियां दर्ज कराने व गिरफ्तारियों के मिश्रण का इस्तेमाल बढ़ाया।
इस संबोधन में सत्ता की ताकत का दंश झेलने और क्रूर भीड़ के दबाव झेलने वाले पत्रकारों व मीडिया संस्थानों के मामलों से पूरा न्याय नहीं किया जा सकता। मैं सिर्फ कुछ का ज़िक्र कर पाऊंगा, लेकिन याद रखें, यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर व्यापक और विस्तृत हमलों का सूचक ही होंगे।
एक प्राकृतिक आपदा जिसने सरकार को स्वतंत्र रिपोर्टिंग को दबाने का एक प्रारूप दिया वह कोविड-19 महामारी थी। लॉकडाऊन को लेकर और खासकर भयावह प्रवासी श्रमिक संकट को लेकर आलोचना झेल रही केंद्र सरकार और अधिकांश भाजपा शासित प्रदेशों ने शूट द मैसेंजर का रवैया अपनाया। पुलिस ताकत औैर आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत पुलिस को प्राप्त अतिरिक्त शक्तियों का पूरा इस्तेमाल करते हुए पत्रकारों की मनमानी गिरफ्तारियां की गईं और बिना आरोप के, केवल सवाल पूछने पर जो कि वास्तव में पूछे जाने चाहिएं, हिरासत में लिया गया। राईट्स एंड रिस्क्स एनालायसिस ग्रुप की तरफ से तैयार इंडिया प्रेस फ्रीडम रिपोर्ट 2020 ने कम से कम 238 पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को प्राथमिकियों, लॉकडाऊन के दौरान पेशी को मजबूर करने वाले कारण बताओ नोटिस, हिरासत और बिना किसी औपचारिक मामले के पुलिसिया पूछताछ के जरिये निशाना बनाया।
अधिकारियों ने भारतीय दंड संहिता, आपदा प्रबंधन अधिनियम, गैरकानूनी गतिविधि (निवारक) अधिनियम (यूएपीए), अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारक) अधिनियम, पोक्सो अधिनियम व अन्य समेत तमाम कड़े कानूनों का इस्तेमाल किया। इंडिया प्रेस फ्रीडम रिपोर्ट 2020 ने खुलासा किया कि ऐेसे दबाव व धौंस का इस्तेमाल पत्रकारों को अधिकारियों, राजनीतिज्ञों, अस्पतालों के भ्रष्टाचार को बेनकाब करने, कोविड पर अंकुश की आड़ में हो रही सांप्रदायिक हिंसा की रिपोर्टिंग करने, सीएए के खिलाफ टिप्पणी करने, प्रवासी मजदूरों को राशन से मना किये जाने, क्वारंटाईन केंद्रों के कुप्रशासन और लापरवाही आदि की रिपोर्टिंग करने से रोकने के लिए किया गया। पुलिस के हरकत में आने का एक आरोप ही काफी था कि संबंधित रिपोर्ट “फेक न्यूज़“ थी।
महामारी शासन के आलोचक माने जाने वाले संस्थानों पर आयकर अधिकारियों को छोड़ने की घटनाओं की पृष्ठभूमि भी बनी। सबसे बड़ी प्रसार संख्या वाले हिंदी दैनिक समूहों में से एक दैनिक भास्कर को आयकर विभाग का प्रकोप झेलना पड़ा जब उनके संवाददाताओं ने कोविड-19 की दूसरी लहर में गंगा में बहते हजारों और उत्तर प्रदेश व बिहार के नदी किनारे के रेत में दफन हजारों शवों चूंकि उनके परिवारों के पास शवों का अंतिम संस्कार करने के संसाधन नहीं थे, का दस्तावेजीकरण व रिपोर्टिंग की। इन खुलासों ने सरकार के महामारी पर जीत हासिल करने की गढ़ी हुई व मुख्यधारा के मीडिया की तरफ से प्रचारित कहानी को तार-तार किया था। कर अधिकारियों के रूप में प्रतिशोध को पीछे आना ही था और दैनिक भास्कर को कम से कम अस्थायी तौर पर शांत किया गया। इसी तरह, कुछ स्वतंत्र मीडिया संस्थानों को प्रमोट करने वाले कुछ संगठनों को फोरेन कांट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट का इस्तेमाल करते हुए कर अधिकारियों और अन्य केंद्रीय एजेंसियों ने निशाना बनाया। तब से यह तरीका बार-बार अपनाया जा रहा है, जिसका सबसे हालिया उदाहरण गुजरात पर “जिनका जिक्र नहीं किया जा सकता“ वृत्तचित्र को लेकर बीबीसी है।
और भी चिंताजनक पहलू जो इंडिया प्रेस फ्रीडम रिपोर्ट में बताया गया है वह यह है कि 13 पत्रकार रिपोर्ट कवर करने की अवधि में मारे गये और उसमें या तो पुलिस की संलिप्तता थी या फिर उनकी जान को गंभीर खतरा होते हुए भी सुरक्षा मुहैया कराने में विफलता। रिपोर्ट इस तथ्य को रेखांकित करती है कि पत्रकारों या उनके परिवारों पर ज्यादातर शारीरिक हमले अज्ञात लोगों की भीड़ की तरफ से किये गये थे, जोकि संभवत:, सरकार के आलोचक स्वतंत्र मीडिया व पत्रकारों के खिलाफ योजनाबद्ध तरीके से फैलाई गई शत्रुता का नतीजा थे।
गौरी लंकेश की 5 सितंबर 2017 को नृशंस हत्या अकेली घटना नहीं थी। 2021 तक रिपोर्टर्स सांस फ्रंटियर्स अथवा रिपोर्टर्स विदआऊट बॉर्डर्स ने भारत को पत्रकारों के लिए पांच सबसे खतरनाक देशों की सूची में डाला। जहां 2021 की आरएसएफ की रिपोर्ट में मौतों की संख्या 4 थी, यूनेस्को ‘ऑब्जरवेटरी ऑफ किल्ड जर्नलिस्ट्स‘ ने दर्ज किया कि भारत में 2020 में छह पत्रकारों की हत्या हुई थी। आरएसएफ की रिपोर्ट में जोर देकर कहा गया कि भारत में पत्रकारों पर सभी तरह के हमले होते हैं, जिनमें “पुलिस हिंसा, राजनीतिक कार्यकर्ताओं के हमले औैर आपराधिक समूहों या भ्रष्ट स्थानीय अधिकारियों के उकसाये हमले“ शामिल हैं। रिपोर्ट में कट्टर दक्षिणपंथी हिंदू प्रवक्ताओं की पत्रकारों को अपनी विचारधारा से सहमत न होने पर “राष्ट्र-विरोधी“ करार देने के प्रयासों और “सार्वजनिक चर्चा से ‘राष्ट्र-विरोधी‘ विचार के सभी स्वरूपों की सफाई“ के आह्वानों को लेकर उनकी आलोचना की। रिपोर्ट में कहा गया है कि किसी मंत्री या किसी सार्वजनिक कार्यालय में बैठे व्यक्ति की तरफ से कथित ‘राष्ट्र-विरोधी‘ के खिलाफ उठने वाली आवाज के रूप में जो शुरू होता है वह नफरत व अमानवीकरण के समन्वित सोशल मीडिया अभियान में फैल जाता है, कुछ मामलों में पत्रकारों की जान लेने के डरावने आह्वानों तक पहुंच जाता है।
इसी तरह, विश्व भर में मीडिया स्वतंत्रता के बचाव और बढ़ावा देने वाले संपादकों, मीडिया अधिकारियों और प्रमुख पत्रकारों के वैश्विक नेटवर्क इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के अनुसार अप्रैल से सितंबर 2022 के बीच छह महीने की अवधि में भारत में प्रेस स्वतंत्रता के उल्लंघन के 83 मामले हुए। पत्रकारों पर भीड़ के हमलों में वृद्धि का ज़िक्र करते हुए आईपीआई की रिपोर्ट ने बताया कि दिल्ली में आयोजित एक ‘हिंदू महापंचायत‘ में चार पत्रकारों पर हमला हुआ, पांच अन्य पत्रकारों को स्थानीय माफिया ने प्रताड़ित किया जब वह शराब माफिया की अवैध गतिविधियों को बेनकाब करने की कोशिश कर रहे थे। मई 2022 में पत्रकार सुभाष कुमार महतो की बिहार के साखो गांव में उनके घर के निकट गोली मारकर हत्या कर दी गई। कश्मीरी पत्रकार फहाद शाह और फैक्ट चेकिंग पत्रकार मोहम्मद ज़ुबैर समेत 20 पत्रकारों को इस अवधि में गिरफ्तार किया गया। ऑनलाइन पत्रिका कश्मीर वाला के प्रधान संपादक फहाद शाह को पहले फरवरी 2022 में पुलवामा में एक मुठभेड़ से संबंधित रिपोर्ट के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया। जब 22 दिनों की हिरासत के बाद राष्ट्रीय जांच एजंसी अधिनियम 2008 के तहत एक विशेष अदालत ने उन्हें जमानत दी तो उन्हें तुरंत शोपियां पुलिस ने गिरफ्तार किया। 7 मार्च 2022 को शोपियां में एक मजिस्ट्रेट अदालत से जमानत मिलने के चंद घंटों बाद श्रीनगर पुलिस ने तीसरी बार गिरफ्तार किया। इस बार गिरफ्तारी श्रीनगर पुलिस ने सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर की जो कथित रूप से “आतंकवादी गतिविधियों का महिमा मंडन करती थीं और कानूनी एजेंसियों की छवि को नुकसान पहुंचा रही थीं और देश के खिलाफ दुर्भावना व असंतोष पैदा कर रही थीं।“
इस साल फरवरी में उन्हें जेल में रहते हुए एक साल पूरा हो गया, उनकी कैद को अब कड़े पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत प्रतिबंधक हिरासत में तब्दील किया गया है, जिससे विश्व के पत्रकारों ने एक संयुक्त बयान जारी करते हुए उन्हें रिहा करने की मांग की है। उनका कहना है, “शाह का मामला स्वतंत्र आवाजों को मजबूत करने की आवश्यकता को रेखांकित करता है क्योंकि ऐसी आवाजों को बंद करने के लिए विश्व भर में प्रयास रोज तेज़ हो रहे हैं। उनकी रिहाई कश्मीर में स्वतंत्र प्रेस के मुद्दे के लिए खास तौर पर महत्वपूर्ण है।
असुविधाजनक आवाजों को शांत करने के अन्य उदाहरणों में अस्थायी तौर पर रोक लगे राजद्रोह के कानून और आतंकवाद विरोधी व राष्ट्रीय सुरक्षा कानूनों की ताकत का इस्तेमाल शामिल है। जब आर्टीकल 14 के पत्रकार मीर फैजल ने दिल्ली में एक प्रदर्शन के दौरान दक्षिणपंथी हिंदू समूहों की तरफ से पांच पत्रकारों पर हमले के बारे में ट्वीट किया तो दिल्ली पुलिस ने समुदायों के बीच वैमन्स्य पैदा करने के आधार पर कार्रवाई शुरू की। वाशिंगटन पोस्ट की स्तंभकार राणा अयूब, जो भाजपा की मुखर आलोचक है, को मार्च 2022 में पत्रकारिता पर एक कार्यक्रम में विदेश जाने से रोका गया था कथित रूप से मनी लांड्रिंग व टैक्स चोरी के मामले में चल रही जांच के कारण, जो आरोप अयूब ने गलत बताये थे। छह महीने में अयूब के बैंक खाते व अन्य संपत्तियां दो बार फ्रीज़ की गईं इन्हीं अस्थापित आरोपों के आधार पर। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के विशेष प्रतिनिधि इरेन खान और मैरी लॉलोर उनके बचाव में आगे आये और इन हमलों को “लगातार स्त्रीविरोधी और सांप्रदायिक हमले“ करार दिया जो कि उनके “अपनी रिपोर्टिंग से जनहित मुद्दों पर प्रकाश डालने और सत्ता को जिम्मेदारी का अहसास दिलाने के प्रयासों“ का प्रतिसाद था। मुस्लिम महिला पत्रकारों पर कई कुटिल हमले भी किये गये हैं, फर्जी “बोली“ एप्प व बलात्कार की धमकियों से उन्हें अपमानित करने करने के रूप में। यह सोशल मीडिया हमले और अभियान ऐसे अकाउंट से किये गये हैं जो खुद को भाजपा समर्थक बताते हैं, ऐसे अकाउंट को बंद करने के लिए लगभग कुछ नहीं किया जाता।
एक असाधारण घटना (2021) में समाचार वेबसाईट न्यूज़क्लिक के प्रधान संपादक प्रबीर पुरकायस्थ के घर पर मैराथन छापे की भी थी। सत्तर वर्षीय पुरकायस्थ व उनकी पार्टनर को 114 घंटे चले छापे की समूची अवधि के दौरान हिरासत में रखा गया, बिना उन्हें आरोप बताये जिनके तहत कि उन पर कार्रवाई की जा रही थी। पुरकायस्थ, 2020 में स्वतंत्र डिजीटल समाचार मीडिया का प्रतिनिधित्व करने के लिए स्थापित डीजीपब के अन्य पूर्व और वर्तमान सदस्यों की तरह दक्षिणपंथी नेटीज़न के हाथों लगातार ट्रोल होते रहे हैं, जो सोशल मीडिया पर सरकार समर्थकों की तरफ से समन्वित यूट्यूब चैनलों, टिवटर हैंडलों के जरिये सोशल मीडिया पर जंगल की आग की तरह फैलते हैं। इन दक्षिणपंथी तत्वों का हौसला लगातार बढ़ रहा है क्योंकि इनके खिलाफ कार्रवाई नहीं ही होती है चाहे वह जब कुछ पत्रकारों की जान लेने का आह्वान भी करें।
ऐसे तत्वों के खिलाफ जहां कोई कार्रवाई नहीं होती, मीडिया के खिलाफ पुलिसिंग नई ऊंचाइयों को छू रही हे और स्वतंत्र पत्रकारों के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है। उदाहरण के लिए 2018 में उत्तर प्रदेश के ललितपुर में जिला अधिकारियों ने मांग की कि पत्रकार अपने व्हाट्सएप समूहों का सूचना विभाग के पास पंजीकरण करें। समूहों के संचालकों को आदेश दिया गया कि सभी सदस्यों का विवरण आधार कार्ड डीटेल्स और तस्वीरों के साथ दें। धमकी दी गई कि इस आदेश का अनुपालन न करने पर सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत कानूनी कार्रवाई की जाएगी हालांकि अधिनियम के तहत न तो ऐसी कोई आवश्यकता है न इसके उल्लंघन के लिए सजा का कोई प्रावधान है। इसी तरह व्हाट्सएप पंजीकरण अनिवार्य करने का आदेश कश्मीर में 2016 में जारी किया गया था।
वर्तमान में भारतीय पत्रकारों को किन भयावह हालातों का सामना करना पड़ता है, इसका एक उदाहरण सिद्धीक कप्पन का है। इस साल फरवरी में यह पत्रकार दो साल से ज्यादा वक्त बिना औपचारिक रूप से यूएपीए लगाये सलाखों के पीछे बिताने के बाद जमानत पर रिहा हुआ। कप्पन और तीन अन्य को उत्तर प्रदेश में हाथरस जाते समय हिरासत में लिया गया था, जहां एक दलित महिला की कथित रूप से बलात्कार के बाद मौत हुई थी। लगे हाथ, प्रवर्तन निदेशालय ने कप्पन के खिलाफ मनी लांड्रिंग का एक मामला दर्ज किया था, उन पर अब प्रतिबंधित पापुलर फ्रंट ऑफ इंडिया से संबंध रखने व उनसे पैसे लेने के आरोप में। सितंबर 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने कप्पन को यूएपीए के तहत जमानत दी क्योंकि औपचारिक आरोप नहीं लगाये गये थे पर मनी लांड्रिंग के आरोपों के कारण कैद बनी रही। आखिर मनी लांड्रिंग वाले मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दिसंबर 2022 में जमानत दी, जिसमें कहा गया था कि 5000 रुपये की रकम के लेनदेन का आरोप उनके और सह आरोपी के खिलाफ था। उसके बाद भी कई प्रक्रियागत बाधाएं प्रदेश ने डालीं और कप्पन को दो महीने और जेल में रहना पड़ा।
आश्चर्यजनक यह है कि हमारे समाचार मीडिया के खतरनाक हालात का पता विदेश से भारत को देखने से चलता है। गहन शोध के बाद तैयार वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स, जो रिपोर्टर्स विदआऊट बॉर्डर्स की ओर से हर साल प्रकाशित होती है, ने हमारे देश को 2014 में 180 देशों में से 140वें अंक से 2022 में 150वें अंक तक फिसलते देखा है। 2022 में भारत पर रिपोर्ट की शुरुआत इस कथन से होती है: “पत्रकारों के खिलाफ हिंसा, राजनीतिक रूप से पक्षपाती मीडिया और मीडिया स्वामित्व का कुछ हाथों में होना दर्शाता है कि प्रेस अभिव्यक्ति “दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र“, जिस पर 2014 से भारतीय जनता पार्टी नेता औैर हिंदू राष्ट्रवादी दक्षिणपंथियों के अवतार माने जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शासन है, में संकट में है।“ रिपोर्ट में भारतीय मीडिया के सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दे की तरफ इंगित किया गया है जो “नरेंद्र मोदी की पार्टी भाजपा और मीडिया पर प्रभुत्व रखने वाले बड़े परिवारों की घनिष्ठता है।“
आज, हालात बड़े और “दोस्ताना“ कार्पोरेशनों के मुख्यधारा मीडिया पर एकाधिकार के साथ महज भारतीय पत्रकारिता के कारपोरेटीकरण से परे जा चुके हैं। राजनीतिक रूप से जुड़े या समर्थन देने वाली इकाइयों के जरिये मीडिया स्वामित्व का चंद हाथों में जाने और मीडिया, कारोबार व राजनीति के बीच रेखाओं के धुंधला पड़ने के कारण वास्तविक, निष्पक्ष रिपोर्टिंग के अवसर जाते रहे हैं और ऐसी जगह नहीं बची है जो बहुलता, मत भिन्नता और प्रतिरोध के लिए आवश्यक है।
वास्तव में, बहुलता व धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के लिए लड़ने के बजाय कुछ बेहद प्रभावी मास मीडिया ने खुद को सांप्रदायिकता और नफरती भाषणों का चियरलीडर बना दिया है। कोई भूला नहीं होगा कि कैसे मुस्लिमों को कोविड-19 वायरस फैलाने वालों के रूप में बदनाम किया गया, और कैसे “कोरोना जिहाद“, “लव जिहाद“, “ज़मीन जिहाद“ व अन्य शरारतपूर्ण झूठ चलाये गये। न ही किसीको भूलना चाहिए कि कैसे प्रमुख चैनलों के टीवी एंकर बुल्डोजरों के चालकों के साथ विजयी अंदाज में चल रहे हैं, जिनका इस्तेमाल रामनवमी व हनुमान जयंती के बाद भड़की सांप्रदायिक हिंसा के बाद मुस्लिम घरों, दुकानों और छोटे व्यावसायों को ढहाने के लिए किया जा रहा था। हां, सुदर्शन टीवी जैसे कुछ चैनल और आज तक के सुधीर चौधरी जैसे कुछ एंकरों ने नफरत फैलाना और ज़हर उगलना जो कि नरसंहार का आह्वान करने जैसा है, को अपनी विशेषता ही बना लिया है।
सच और मूल्यों के विपरीत नफरत और झूठ के पैरोकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी के तहत सुरक्षा का दावा कर सकते हैं और उन्हें मिलती भी है। जब सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने हेट स्पीच के खिलाफ चुनौतियों पर सुनवाई करते हुए इन एंकरों को फटकारा तो उन्हें प्रेस की स्वतंत्रता के दावों का सामना करना पड़ा। लेकिन, जो सांप्रदायिकता व नफरत को बेनकाब करते हैं, जो अल्पसंख्यकों को, ईमानदार प्रतिरोध दर्ज करने वालों को, सामाजिक कार्यकर्ताओं को या वन एवं आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ने वालों को सुरक्षा मुहैया कराने में विफलता के लिए राज्य को उसकी जिम्मेदारी का अहसास दिलाते हैं तो उन्हें राष्ट्र विरोधी करार दिया जाता है और मुकदमे चलाये जाते हैं। कुछ ही दिन पहले रिपोर्ट आई थी कि सीबीआई ने पर्यावरण वकील व लीगल इनीशियेटिव फॉर फोरेस्ट एंड एन्वायरनमेंट (लाईफ) के संस्थापक-प्रमुख रित्विक दत्ता के खिलाफ मामला दर्ज किया है। उनका अपराध : वह जंगलों के संरक्षण के लिए लड़ रहे थे और इस तरह याचिकाओं के जरिये संरक्षित जंगलों में कोयला परियोजनाओं को रोकने की कोशिश कर रहे थे।
बड़े मीडिया को मित्रों के जरिये खरीदने, अधिग्रहण और सीधे मालिकों पर दबाव डालने से हासिल समर्पण से भी सरकार को संतोष नहीं हुआ और उसने ऑनलाइन जगत में काम कर रहे छोटे मीडिया पर नियंत्रण भी करना चाहा। राष्ट्रीय सुरक्षा के सदा उपलब्ध बहाने का इस्तेमाल कर सरकार ने डिजीटल मीडिया, इंटरनेट न्यूज़ सेवाओं, यूट्यूब सेवाओं, पॉडकॉस्ट निर्माताओं आदि पर योजनाबद्ध तरीके से शिकंजा कसा।
सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2021 ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 69ए के तहत इंटरनेट सामग्री ब्लॉक करने की सरकार की शक्तियां बढ़ाईं और ‘संप्रभुता, अखंडता, भारत की रक्षा और राज्यसत्ता की सुरक्षा के हित में अथवा संज्ञेय अपराध रोकने के लिए‘ प्रकाशकों को प्रभावी तौर पर सेंसर किया गया। इन शक्तियों का इस्तेमाल सरकार ने 2022 में 100 यूट्यूब चैनल ब्लॉक करने के लिए और विभिन्न सोशल मीडिया मंचों पर अकाउंट ब्लॉक करने के लिए किया। 2022 में और संशोधन कर आईटी नियमों को और कड़ा करने से सरकार का सोशल मीडिया पर नियंत्रण और मजबूत हुआ। इसने सरकारी पैनल को आंतरिक दिशानिर्देशों के तहत सोशल मीडिया निलंबन को उलटने की अनुमति दी जिससे सरकार का सोशल मीडिया कंपनियों के सामग्री संचालन के फैसलों पर भी नियंत्रण हो गया। इसका मतलब यह था कि मंचों को उन अकाउंट या पोस्ट को, जो उनके नियमों का उल्लंघन करने के कारण ब्लॉक किये गये थे या हटाई गई थीं, को भारत में दोबारा अनब्लॉक/लगाया जा सकता था। एक तरह से, सरकार ने खुद को यह निर्णय करने की शक्तियां दे दीं कि किस तरह की अभिव्यक्ति सोशल मीडिया मंचों पर होगी और डिजीटल मध्यस्थ के सामान्य नियमों व फैसलों को बिना पारदर्शिता या जवाबदेही के उलट दिया। इसके अलावा इसने उन उपयोगकर्ताओं को सोशल मीडिया पोस्ट के खिलाफ सरकारी पैनल को शिकायत करने का मौका दिया जो वह दबाना चाहते थे, इस तरह बहुमत, ताकत और विषाक्तता का उपयोग मुखर आवाजों को शांत कराने के लिए किया गया, भले ही वह सोशल मीडिया मंचों के आंतरिक दिशानिर्देशों का पालन कर रहे हों।
इन नियमों का इस्तेमाल किया गया जब गुजरात पर बीबीसी का एक वृत्तचित्र रिलीज होने की तारीख से पहले लीक हो गया और सोशल मीडिया पर प्रसारित होने लगा। बीबीसी वृत्तचित्र का पहला भाग जो 2002 गुजरात दंगों के फुटेज और तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के उससे निबटने के तौरतरीकों पर आधारित था, को ट्विटर और यूट्यूब से हटाने का निर्देश दिया गया। इसके लिए सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यस्थ दिशानिर्देश एवं डिजीटल मीडिया मूल्य संहिता) नियम, 2021 के तहत दी आपात शक्तियों का इस्तेमाल किया गया। सामग्री हटाने के एकपक्षीय आदेश उन लोगों के खिलाफ जारी किये गये जिन्हें न तो नोटिस दिया गया था, न सामग्री हटाने के इन आदेशों का कारण बताया गया। विदेश मंत्रालय ने वृत्तचित्र को “बदनाम करने वाले नैरेटिव को फैलाने के लिए तैयार दुष्प्रचार“ करार दिया। सूचना प्रसारण मंत्रालय के एक सलाहकार के जरिये सेंसरशिप को सही करार देने की कोशिश की गई इस आधार पर कि वृत्तचित्र “भारत की संप्रभुता औैर अखंडता को कमजोर करने, (और) विदेशों के साथ देश के दोस्ताना रिश्तों को नकारात्मक तरीके से प्रभावित करने के साथ देश में सार्वजनिक व्यवस्था को“ प्रभावित कर सकता है। ब्लॉकिंग आदेश और संबद्ध गतिविधियां पूरी तरह से अपारदर्शी थीं और सरकार आदेश को सबके सामने रखने में भी विफल रही थी। आश्चर्य नहीं कि, इसके बाद बीबीसी के दिल्ली और मुंबई कार्यालयों पर कर छापे पड़े।
यह किसी भी आलोचना या देश के लोकतांत्रिक ढांचे पर विदेशी मीडिया समेत अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की तरफ से पड़ने वाले किसी दबाव के मूल्यांकन पर वर्तमान सरकार का चिर परिचित प्रतिसाद है। आलोचक से विश्वास और जवाबदेही की भावना से सार्थक तरीके से संवाद साधने के बजाय सरकार आलोचना को खारिज और आलोचक को बदनाम करने की कोशिश करती है। स्पष्ट है, कोई भी जो सरकार से सवाल करता है या अंध सहमति नहीं दर्शाता उसे गद्दार, देश – विरोधी या ‘देशद्रोही‘ करार दिया जाता है या फिर देश के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय साजिश का एक हिस्सा। सत्तारूढ़ पार्टी के नैरेटिव को देश भक्ति मान लेने ने मुख्यधारा के मीडिया को सरकार के भोंपू बना दिया है।
देश के विभिन्न हिस्सों में पत्रकारों, को जो मुश्किलें पेश आ रही हैं, उन्हें और बढ़ाने के लिए सार्वजनिक डिजीटल संसाधनों तक पहुंच को लगातार सीमित कर वस्तुत: सेंसरशिप की जाती है। सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेंटर के अनुसार 2012 से लेकर देश में 650 इंटरनेट बंदियां हो चुकी हैं औैर उनके से बड़ा हिस्सा 2014 के बाद का है। वैश्विक डिजीटल अधकार समूह एक्सेस नाओ औैर कीप इट ऑन गठजोड़ ने दर्शाया कि भारत ने 2022 में 82 इंटरनेट बंदियां कीं, जो कि खुद को लोकतंत्र कहने वाले देशों में सबसे बुरा प्रदर्शन था। यह बंदियां शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक अभियानों के संप्रेषण का गला घोंटने और संप्रेषण चैनलों को बंद कर हिंसा को ढंकने के लिए किया जाता है क्योंकि यह मोबाईल अथवा फिक्स्ड-लाइन इंटरनेट को पूरी तरह से बंद कर देती हैं। इन व्यापक बंदियों को न्यायोचित्त ठहराने का यह आधार, कि भ्रामक जानकारी व अफवाहों से कानून एवं व्यवस्था बिगड़ सकती है, ठोस नहीं है, खासकर समाचार संस्थानों जैसे विश्वसनीय स्रोतों के अभाव में गलत जानकारी फैलने के खतरे ज्यादा हैं। इन सफाइयों को सही माना जाता यदि बंदियां अधिकांशत: सरकारी गतिविधियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों के खिलाफ इस्तेमाल नहीं की जातीं, जैसे कि पंजाब, हरियाणा और दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के शांतिपूर्ण व लंबे चले प्रदर्शनों के खिलाफ किया गया था।
इंटरनेट समाचारों व डिजीटल जानकारी पर इस हमले की महिमा इसके सरकार व मीडिया की भूमिकाओं को पूरी तरह बदलने के प्रयास में छिपी है। लेविस कैरोल के अलाईस इन वंडरलैंड से सबक लेते हुए सरकार ने अब 2021 के आईटी नियमों में एक बार फिर संशोधन किया है, इस बार यह आदेश कि केंद्र सरकार के बारे में सच वही होगा जो सरकार कहती है और बाकी सब भ्रामक है जिसे हटाना पड़ेगा। आईटी नियम 2021 में 2023 संशोधन, जिन्हें अप्रैल में अधिसूचित किया गया, जिसके अनुसार “सरकार की फैक्ट चेक इकाई“ को “केंद्र सरकार के किसी भी कार्य“ की जानकारी के संदर्भ में “फर्जी या झूठी या भ्रामक“ के रूप में शिनाख्त करने को अधिकृत किया गया है। इस तरह केंद्र सरकार को ही अकेला निर्णायक बनाया गया जो तय करेगी कि क्या समाचार प्रकाशित हो या प्रकाशित न हो। यह ऐसा उपहास है जिसका कोई सानी नहीं और वह भी तब जब यह पता चले कि सरकार की “फैक्ट चेक इकाई“ प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो होगा, जो सभी इरादों, उद्देश्यों के लिए सरकार की प्रचार मशीन ही है। यह नियम निश्चित रूप से शासन की हद पार करना है, इसलिए नहीं कि बिना किन्हीं दिशानिर्देशों या अंकुश या संतुलन के हैं बल्कि यह प्रेस सेंसरशिप ही हैं जो किसी भी लोकतंत्र के लिए अनुचित हैं और संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (अ) का उल्लंघन तो हैं ही। इन नियमों का दायरा सोशल मीडिया मध्यस्थों, इंटरनेट सेवा प्रदाताओं अथवा अन्य सेवा प्रदाताओं तक बढ़ाया गया है और सरकार की तरफ से चिन्हित किसी भी फर्जी या झूठी या भ्रामक जानकारी को हटाने में विफलता ऐसे मंचों को मिले सारे बचावों को खो देना होगा यानी किसी भी तीसरे पक्ष की जानकारी, डाटा अथवा संप्रेषण लिंक के लिए मध्यस्थ ही जिम्मेदार होगा। यह पीआईबी के फैक्ट चेकिंग के पिछले इतिहास को देखते हुए चिंता का विषय ही है जिसने कि मनमाने तरीके से सरकार की आलोचनात्मक खबरों को ‘फेक‘ करार दिया है और बाद में अपने दावे वापस लिये हैं। इसके अलावा, श्रेया सिंघल मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार सामग्री ब्लॉक करने या हटाने के मामले में बताई गई कड़ी प्रक्रियाओं की भी पूरी तरह अनदेखी की गई है। आश्चर्यजनक रूप से, जनवरी 2023 में जनता की राय आमंत्रित करते हुए प्रकाशित संशोधनों में केवल ऑनलाइन गेमिंग कंपनियों को विनयमित करने के प्रावधान थे। लेकिन, सार्वजनिक मशवरे की अवधि समाप्त होने से चंद घंटे पहले एक नया मसौदा प्रकाशित किया गया जिसने सरकार को तथ्यों की जांच की आड़ में सेंसरशिप के यह अधिकार सरकार को दिये। इस पर एडीटर्स गिल्ड, डिजीपब और इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन ने कड़ी आपत्ति जताई पर संशोधनों को आगे बढ़ाने पर सरकार अड़ी रही।
यदि सुनने में यह सब अंधकारमय और डरावना लग रहा है तो हमें अपने आपको याद दिलाना होगा कि मुश्किल समय अवसरों का भी समय होता है और राज्यसत्ता जितना सच को दबाने की कोशिश करती है, उतना ही स्कूप निकाल लाने की संभावना बढ़ती है। टीवी चैनल खरीदे और दबाये जा चुके हैं लेकिन करण थापर, बरखा दत्त, फाये डिसूजा, रविश कुमार, आरफा खानम शेरवानी, अभिसार शर्मा और अन्य कुछ टीवी पत्रकारों ने यूट्यूब और टेलीग्राम को अपनाया है और उन्हें थोड़ी सफलता भी मिली है। उनकी दर्शक संख्या टीवी के मुकाबले सीमित है, पर फिर भी वह आवाजें लोगों तक पहुंचाते हैं। ऑनलाइन समाचार पत्र जैसे द वायर, स्क्रोल और देश की हर भाषा में कई अन्य ऐसे हैँ जिन्होंने ऑनलाइन “प्रिंट“, ऑडियो पॉडकास्ट, यूट्यूब और अन्य ऑनलाइन स्ट्रीमिंग सेवाओं के जरिये अपने संदेश को लोगों तक पहुंचाने की कला में महारत हासिल की है। और हां, कुछ सम्माननीय पारंपारिक ब्रॉडशीट अखबार सत्ता के मुंह पर सच सुनाना जारी रखे हुए हैं, जिसका एक प्रमुख उदाहरण आपके शहर का अपना “द हिंदू“ है।
मारिया रेस्सा का “एक तानाशाह का सामना कैसे करें?“ उठाइये और आप देखेंगे कि कैसे एक मामूली अमरिकी रिटर्न लड़की अपनी जड़ों, फिलीपाइंस में लोकतंत्र के संरक्षण के लिए लौटी, पहले सीएनएन के लिए रिपोर्टर के रूप में और फिर रैपलर डॉट कॉम की सह संस्थापक व संपादक के रूप में। राष्ट्रपति रोड्रिगो डयूटेर्ट की तानाशाही के खिलाफ अपनी आजादी व जिंदगी को जोखिमों के बीच डट कर खड़ी रही, रेस्सा को 2021 में नोबल शांति पुरस्कार मिला। उनके साथ एक और अदम्य पत्रकार रूसी अखबार नोवाया गजेट के संपादक डिमिट्री मुरातोव को भी यह पुरस्कार मिला। एक पुरानी कहावत दोहराई जाए तो मारिया रेस्सा ने तानाशाही का जोखिम झेल रहे दुनिया के हर पत्रकार के समक्ष साबित किया कि जब चलना मुश्किल हो तो औैर भी मजबूती से चलना चाहिए।
और जो अच्छी लड़ाई लड़ने का फैसला करना चाहते हैं, वह यह भी जान लें कि जब कोई सही रास्ते पर होता है तो वह कभी अकेला नहीं होता। यहां तक कि अदालतें भी, जो कभी-कभी शासन के दबाव में आती दिखती हैं, जब हालात बहुत बुरे होने लगते हैं तो प्रतिरोध करने लगती हैं।
जम्मू कश्मीर में इंटरनेट सेवाओं के अनिश्चितकालीन निलंबन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुराधा भसीन बनाम केंद्र में व्यवस्था दी कि ऐसे अनिश्चितकालीन निलंबन भारतीय संविधान के तहत कानूनी नहीं हैं, संप्रेषण व सूचना के साधन के रूप् में इंटरनेट की भूमिका बुनियादी है और अभिव्यक्ति के माध्यम होने के नाते इसे अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत बचाव हासिल है। अदालत ने यह भी कहा कि इंटरनेट बंदी या निलंबन के लिए कोई भी आदेश आवश्यकता व अनुपात की दोहरी कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। हालांकि सुप्रीम कोर्ट याचिका दाखिल करने वाली हिम्मती संपादक अनुराधा भसीन को कोई सार्थक राहत न दे सकी लेकिन मामले में दी व्यवस्था से सरकार के लिए इंटरनेट बंदी के लिए बड़ा पैमाना निर्धारित किया है।
आईटी रूल्स, 2021 के मामले में, डिजीटल मीडिया मंचों व मध्यस्थों की तरफ से कानूनी चुनौतियां विभिन्न उच्च न्यायालय में दी गई हैं। मार्च 2021 में केरल उच्च न्यायालय ने नियमों के तहत दबावात्मक कार्रवाई से डिजीटल कानूनी समाचारपत्र लाईव लॉ को सुरक्षा दी। उसके तुरंत बाद बंबई उच्च न्यायालय ने एक स्वतंत्र मानवाधिकार एवं कानूनी अखबार लीफलेट के मामले में नियम 9 के ऑपरेशन पर स्थगनादेश दिया, जिससे यह नियम लगभग दंतहीन हो गये। मद्रास उच्च न्यायालय ने भी बंबई उच्च न्यायालय के नियम 8 पर स्थगनादेश के संदर्भ में कहा कि यह देश भर में लागू होगा। यह मामले और नियमों को चुनौती देने वाले अन्य मामले सुप्रीम कोर्ट में स्थानांतरित किये गये हैं, लेकिन सरकार की तरफ से लगातार प्रयासों के बावजूद स्थगनादेश हटाया नहीं गया, सुप्रीम कोर्ट ने मना कर दिया है। इस बीच, बंबई उच्च न्यायालय ने 2023 आईटी नियम संशोधन को कॉमेडियन कुणाल कामरा की चुनौती देती याचिका को स्वीकार किया है।
अन्य चुनौतियां सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित हैं जिनमें पत्रकारों व अन्य के खिलाफ पेगासस स्पायवेयर के कथित इस्तेमाल, बीबीसी वृत्तचित्र को हटाने के आदेश का मामला शामिल है। पेगासस जांच मामले में सुप्रीम कोर्ट नियुक्त कमेटी ने अनिर्णित निष्कर्षों में अपनी रिपोर्ट में कहा है कि केंद्र सरकार ने उसके साथ सहयोग नहीं किया। बीबीसी वृत्तचित्र की सेंसरशिप को चुनौती देती याचिका के मामले में नोटिस जारी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता का यह अनुरोध नहीं माना कि केंद्र को निर्देश दिया जाए कि वृत्तचित्र ब्लॉक करने के आदेश को सार्वजनिक किया जाए। इसके बजाय, अदालत ने केंद्र सरकार की तरफ से मामले में जवाब दाखिल करने का इंतजार करने का निर्णय किया है। हालांकि न्यायिक देरी निराशाजनक हैं, पर इसमें कोई संदेह नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालय भी शासन के सामने डटकर खड़े हैं जबकि शासन मीडिया को खत्म करने पर तुला हुआ है।
यदि किसीको न्यायपालिका की इच्छा या इरादे पर शक है, तो एक हालिया निर्णय से दूर हो जाने चाहिए। पिछले महीने ही सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में केंद्र सरकार का मीडिया वन टीवी चैनल से बैन हटाया, प्रेस की आजादी पर इन शब्दों में ज़ोर दिया, “स्वतंत्र प्रेस लोकतांत्रिक गणराज्य के मजबूत संचालन के लिए महत्वपूर्ण है। एक लोकतांत्रिक समाज में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है क्योंकि यह राज्यसत्ता के कार्यों पर रौशनी डालता है। प्रेस का यह फर्ज है कि सत्ता के मुंह पर सच सुनाये और नागरिकों के सामने तथ्य रखे ताकि वह लोकतंत्र को सही दिशा में ले जाने के लिए अपनी पसंद चुन सकें। प्रेस की स्वतंत्रता पर रोक नागरिकों को सपाट तरीके से सोचने पर मजबूर करती है। विभिन्न सामाजिक आर्थिक मुद्दों पर सरकार से लेकर विचाराधाराओं तक समरूप नजरिया लोकतंत्र के लिए खतरा पैदा करेगा।“
हम कहां हैं और हमें कहां होना चाहिए, शायद इसे देखने का श्रेष्ठ तरीका यह याद करना है कि आपातकाल के काले दिन भी नहीं रहे।
मैं समाप्त करना चाहूंगा कभी विवादास्पद और कभी बेहद पसंद किये जाने वाले रुडयार्ड किपलिंग की इन पंक्तियों से :
पोप अपना प्रतिबंध जारी कर सकता है
यूनियन अपना हुकुमनामा
लेकिन बुलबुला फूट चुका है
उसमें हम और हमारे जैसों ने
छेद कर दिया है
इस रण को याद करते हुए बगल में
खड़े रहना
जब तख्त और सत्ता यह कबूल
करते हैं कि
अहंकार की औलादों पर राज
चलता है तो
प्रेस का, प्रेस का, प्रेस का!
(लेखक जो भारतीय सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं, एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म, चेन्न्ई में 2023 के ग्रेज्युटिंग क्लास के दीक्षांत समारोह में लॉरेंस दाना पिनकम मेमोरियल स्मृति व्याख्यान दे रहे थे।)
Image Courtesy: Live Law