UAPA (ग़ैरक़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम) के अलावा भी ऐसे अनेक क़ानून हैं जिनके तहत केंद्र और राज्य सरकार को ‘देश की सुरक्षा’ और उससे जुड़े अपराधों के मद्देनज़र असीमित शक्तियां सौंप दी जाती हैं.
राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर ये क़ानून उचित मक़सद के तहत (in acts in good faith) काम करते हुए क़ानून लागू करने वाली संस्थाओं को अपार अधिकारों से लैस कर देते हैं. ये क़ानून अनेक बार व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए बड़े ख़तरे की तरह उभरे हैं. लोकतंत्र, मूल अधिकारों और मानवाधिकारों के मद्देनज़र इनकी पड़ताल बेहद ज़रूरी है.
राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 (NSA, 1980)
NSA के एक केन्द्रीय क़ानून होने के बावजूद इसका इस्तेमाल राज्य स्तर पर भी किया जाता है. इसके तहत अनेक लोगों को हिरासत में लिया गया है. माननीय सुप्रीम कोर्ट ने भी इसके दुरूपयोग पर सवाल उठाए हैं. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने रिवेन्यू रिकवरी से जुड़े मामले में समाजवादी पार्टी के नेता युसुफ़ मलिक के ख़िलाफ़ NSA के इस्तेमाल पर सवाल उठाया है. बिल्कुल इसी तर्ज़ पर तमिलनाडू सरकर ने भी बिहार के एक यूट्यूबर को NSA के तहत हिरासत में लिया था जिसपर प्रवासी मज़दूरों पर हमले के बारे में फेक वीडियो फैलाने का आरोप था. कोर्ट ने इस केस को भी कटघरे में रखा है.
- NSA के तहत किसी भी व्यक्ति को ‘राष्ट्र की सुरक्षा’, ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ या किसी समुदाय के लिए ज़रूरी सेवाओं के संचालन’ के मद्देनज़र हिरासत में लिया जा सकता है.
- इसके अनुसार राज्य या केंद्र सरकार के अलावा ज़िलाधिकारी या कमिश्नर भी किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने के लिए प्रशासनिक आदेश जारी कर सकता है.
- NSA के अंतर्गत ऐसा आदेश 3 महीने के लिए जारी किया जा सकता है लेकिन इसे सरकार से 12 दिन के भीतर पास होना ज़रूरी है.
- NSA के सेक्शन 5A के मुताबिक़ अगर किसी को हिरासत में लेने के कई सारे मज़बूत आधार हैं तो आदेश हर आधार पर पृथक रूप से जारी होगा.
- हिरासत में लेने के 5 दिन के भीतर बंदी से इस कार्रवाई की मुख्य वजहों पर बात की जाएगी लेकिन असाधारण परिस्थितियों में ये अवधि 15 दिन तक खींच भी सकती है.
- ऐसे आदेश को सलाहकार बोर्ड के सामने 3 हफ़्ते के भीतर पेश किया जाता है जिसमें हिरासत में लेने के आधारों पर पुनर्विचार किया जाता है.
- सलाहकार बोर्ड से मंजूरी मिलने के बाद व्यक्ति को साल भर के लिए जेल में रखा जा सकता है और इस अवधि के ख़त्म होने के बाद बिना किसी ताज़े तथ्य या सूचना के उस व्यक्ति को दोबारा फिर एक वर्ष के लिए क़ैद किया जा सकता है.
- सेक्शन 14 A के अनुसार देश या राज्य की सुरक्षा के मद्देनज़र किसी आतंकी गतिविधि को अंजाम देने से बचाने के लिए बोर्ड की मंज़ूरी के बिना भी हिरासत की अवधि 3 महीने से बढ़ाकर 6 महीने तक की जा सकती है.
- दिल्ली के लेफ़्टिनेंट गवर्नर अनिल बैजल ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत 18 अक्टूबर, 2021 से लेकर आगामी स्वतंत्रता दिवस तक किसान प्रोटेस्ट के दौरान लोगों को हिरासत में लेने का अधिकार सौंपा था.
- 2017 में दलित नेता चंद्रेशेखर आज़ाद को भी योगी आदित्यनाथ की सरकार के दौरान सहारनपुर में बाबा साहेब अंबेडकर की मूर्ति की स्थापना पर हिंसा के मामले में शामिल होने के लिए हिरासत में ले लिया गया था. फिर एक साल बाद इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई.
जम्मू और कश्मीर सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 1978 (PSA)
- इस क़ानून को मुख्यमंत्री शेख़ अब्दुल्ला ने 1978 में लकड़ी के अवैध माफ़ियाओं (Timber smugglers) पर लगाम लगाने के लिए जारी किया था, जिसके तहत राज्य सरकार को बिना किसी ट्रॉयल के किसी माफ़िया को हिरासत में लेने की अनुमति मिल गई.
- PSA के प्रावधान भी काफ़ी हद तक NSA की तरह ही काम करते हैं लेकिन इसे केन्द्रीय क़ानून से 2 साल पहले लागू किया गया था.
- सेक्शन 3 या 4 के तहत सरकार को ये अधिकार है कि वो किसी भी क्षेत्र को आदेश के ज़रिए ‘सुरक्षित’ की श्रेणी में रखकर पाबंदी लगा सकती है और आवागमन पर रोक लगा सकती है. फिर अनजाने में भी निषेध जगह का अतिक्रमण करने वाले किसी इंसान को इस आदेश के उल्लंघन के लिए हिरासत में लिया जा सकता है.
- सेक्शन 6 के तहत सरकार सांप्रदायिक, धार्मिक सद्भाव और सार्वजनिक व्यवस्था के मद्देनज़र सरकार किसी भी काग़ज़ात की जांच कर सकती है और उसके प्रसार को रोक सकती है.
- NSA के मामले में डिटेंशन ऑर्डर को बोर्ड से 4 हफ़्ते के अंदर पारित किया जाना चाहिए. इसके बाद उस व्यक्ति को 2 साल तक की सज़ा दी जा सकती है.
- सेक्शन-19 के तहत सरकार के पास हक़ है कि वो उन्हीं पुराने तथ्यों की बुनियाद पर हिरासत की अवधि ख़त्म होने के बाद आदेश दोबारा जारी कर सकती है.
- एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के मुताबिक़ जम्मू कश्मीर की लेजेस्लेटिव एसेंबली में जनवरी 2017 में महबूबा मुफ़्ती ने कहा कि 2007 से 2016 तक क़रीब 2400 PSA आदेश पारित किए जा चुके हैं जिनमें से 58% को कोर्ट ने रद्द कर दिया है.
- PSA को 5 अगस्त,2019 में 370 के उन्मूलन के बाद राजनीतिक नेताओं को हिरासत में लेने के लिए लगातार इस्तेमाल किया गया है.
PSA के बारे में विस्तार से यहां पढ़ें
सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां अधिनियम) 1958 (AFSPA)
- AFSPA के तहत सशस्त्र बलों को अशांत क्षेत्रों में सार्वजनिक व्यवस्था क़ायम रखने के एवज़ असीमित अधिकार हासिल हैं.
- इसे 1950 के दौर में उत्तर पूर्वी राज्यों में पनपती हिंसा पर लगाम लगाने के लिए पास किया गया था.
- AFSPA गृह मंत्रालय द्वारा अशांत घोषित इलाक़ों में सशस्त्र बलों को क़ानून और व्यवस्था बरक़रार रखने के लिए बिना रोक-टोक भरपूर अधिकार देता है.
- इसके तहत सशस्त्र बल क़ानून का उल्लंघन होने पर किसी के ख़िलाफ़ बल या बंदूक का प्रयोग कर सकते हैं. (जैसे कि कर्फ्यू का उल्लंघन या बड़ी संख्या में एकत्र होना). इसके मुताबिक़ सशस्त्र बल बिना किसी वारंट के भी किसी व्यक्ति को किसी भी स्थान पर हिरासत में ले सकते हैं.
- AFSPA को 1 अप्रैल, 2018 में मेघालय में और 2015 में त्रिपुरा में निरस्त कर दिया गया था. सेक्शन 6 के मुताबिक़, AFSPA के तहत सशस्त्र बलों की कार्रवाई को ऐसी किसी भी क़ानूनी प्रक्रिया या मुक़दमे के घेरे में नहीं रखा जा सकता है जिससे कि सशस्त्र बलों को कारवाई की पूरी छूट मिल जाती है.
अरूणाचल प्रदेश
1 अप्रैल, 2021 से 30 सितंबर 2021 तक अरूणांचल प्रदेश के 3 ज़िले तिराप, चांगलांग और लांगडिंग सहित कुछ अन्य पुलिस स्टेशनों को AFSPA के सेक्शन 3 के अंर्तगत ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित किया गया था.
मणिपुर
- 1 दिसंबर 2020 से 1 दिसंबर 2021 तक इंफ़ाल नगरपालिका क्षेत्र के अलावा पूरे मणिपुर राज्य को एक साल के लिए ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित कर दिया गया था.
असम
- 22 फ़रवरी 2021 को पूरे असम राज्य को विधानसभा चुनावों और अतिवादी संगठन ULFA(I) को ध्यान में रखते हुए 6 महीने के लिए ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित किया गया था.
नागालैंड
- 30 जून, 2021 को पूरे राज्य में AFSPA की मियाद अगले 6 महीनों के लिए बढ़ा दी गई थी.
महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम
MAHARASHTRA CONTROL OF ORGANISED CRIME ACT (1999)
- महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम(1999) आतंकवाद, चोरी, वेश्यावृत्ति, डकैती, बलपूर्वक मज़दूरी, ड्रग तस्करी और मानव तस्करी आदि से संबंधित संगठित अपराधों को नियंत्रण में रखने के लिए काम करता है. जिसके तहत किसी ग़ैरक़ानूनी गतिविधि में लिप्त समूह पर कंट्रोल किया जाता है. MCOCA का मक़सद अंडरवर्ल्ड पर क़ाबू करने के मक़सद से जारी किया गया था.
- सेक्शन 2(e) की संगठित अपराध की परिभाषा के अनुसार ग़ैरकानूनी गतिविधि एक संज्ञेय अपराध है जिसे अकेले या संयुक्त रूप से, अपराधियों के संघ के सदस्य के रूप में या ऐसे संघ की ओर से हिंसा के इस्तेमाल या हिंसा की धमकी के साथ या डराकर, दबाव डालकर और अन्य ग़ैरक़ानूनी तरीक़ों का इस्तेमाल करते हुए अंजाम दिया जा सकता है. इसका मक़सद व्यक्तिगत लाभ, आर्थिक लाभ या विशेष लाभ हो सकता है.
- सेक्शन 3 के तहत अवैध हथियार और किसी तरह के काग़ज़ात आदि का अपराध में इस्तेमाल भी अपराध के अनुमान (Presumption Of Offence) के दायरे में आता है.
- Presumption of offence का अर्थ है कि कोर्ट आरोपी को तब तक दोषी मानेगी जब तक विपरीत पक्ष साबित नहीं हो जाता. इस तरह बेगुनाही साबित करने का पूरा दायित्व दोषी पर होता है.
- इसमें जांच अधिकारी के पास विशेष अधिकार होते हैं जिसके तहत वह मौखिक बात-चीत से लेकर प्रक्रिया को अपने मुताबिक़ ढालने के लिए आज़ाद होता है.
- सेक्शन 18 के मुताबिक़ आरोपी द्वारा SP या पुलिस अधिकारी के सामने पेश दलीलें और बयान ही ट्रॉयल के दौरान बतौर सबूत पेश किए जाते हैं.
- यह अधिनियम साज़िश, संगठित अपराध की कोशिश या बढ़ावा या फिर इस तरह की आपराधिक गतिविधि के समूह का सदस्यता या प्रश्रय देने को लगातार घेरे में रखता है.
- सेक्शन 21 (2) के मुताबिक़ अगर 90 दिनों में जांच पूरी नहीं होती है तो ये अवधि स्पेशल कोर्ट में याचिका दायर कर 180 दिनों तक बढ़ाई जा सकती है.
- सेक्शन 21 के सबसेक्शन 5 के अनुसार, इस एक्ट के तहत अपराध करने पर ज़मानत से इंकार किया जाता है. जब ये तार्किक आधारों पर ये साबित हो जाए कि आरोपी ने उस जुर्म को अंजाम नहीं दिया है और ज़मानत पाकर वो फिर किसी अपराध को अंजाम नहीं देगा तो कोर्ट को ज़मानत देने का अधिकार है.
- मार्च, 2023 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने MCOCA के तहत संवाद को नियंत्रित करने के असीमित अधिकार को ग़ैरक़ानूनी ठहराया है, हालांकि इन अधिकारों को 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने सेक्शन 13 औऱ 16 के तहत सही ठहराया था.
- 2002 में MCOCA को दिल्ली तक लागू कर दिया गया.
कर्नाटक संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम
KARNATAKA CONTROL OF ORGANISED CRIME ACT, 2000 (KCOCA)
- KCOCA को MCOCA की तर्ज़ पर कांग्रेस के काल में 2001 में लागू किया गया था.
- 2009 में KCOCA के संशोधन की पेशकश कर अधिकतम मृत्युदंड़ को भी इसके दायरे में रख लिया गया था. इसके तहत अगर 180 दिनों में जांच पूरी नहीं होती है तो कोर्ट को अधिकार है कि वह इस अवधि को 365 दिनों तक बढ़ा सकती है जिसका सीधा सा अर्थ है कि एक साल तक बिना किसी चार्जशीट के किसी नागरिक को हिरासत में रखा जा सकता है.
- पेश संशोधन में संगठित अपराध में सिर्फ़ ग़ैरक़ानूनी गतिविधि नहीं बल्कि आतंकी गतिविधि को भी शामिल किया गया. इसमें जारी परिभाषा के मुताबिक़ आतंकी गतिविधि का अर्थ है ‘क़ानून और व्यवस्था’ या ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ में ख़लल डालना.
- इस संशोधन के तहत आतंकी गतिविधि में शामिल होने के एवज़ संपत्ति ज़ब्त की जा सकती है और 10 लाख फ़ाइन भी लगाया जा सकता है. संदिग्ध व्यक्ति को एक महीने तक पुलिस की हिरासत में और 180 दिनों तक न्यायिक हिरासत में रखा जा सकता है.
- फ़िलहाल इस संशोधित क़ानून को राष्ट्रपति की मंजूरी नहीं दी है जिससे 2009 में पेश किए गए बदलाव लागू नहीं किए गए हैं लेकिन फिर भी कुछ हिस्से सक्रिय हैं-
- इसमें जांच अधिकारी के पास विशेष अधिकार होते हैं. वो मौखिक बातचीत से लेकर प्रक्रिया को अपने मुताबिक़ ढ़ालने के लिए आज़ाद होता है.
- पुलिस अधिकारी संदिग्ध आपराधिक षड़यंत्र में शामिल होने के जुर्म में किसी के फोन को डिएक्टिवेट करने, निगरानी करने या ट्रैक करने का आदेश जारी कर सकता है.
- सेक्शन 19 के मुताबिक़ आरोपी द्वारा SP या पुलिस अधिकारी के सामने पेश दलीलें और बयान ही ट्रॉयल के दौरान बतौर सबूत पेश किए जाते हैं.
- इस एक्ट के तहत दोषी पाए जाने पर कोर्ट आरोपी की चल-अचल संपत्ति को राज्य सरकार को सौंप सकती है
- सेक्शन 22 के उपभाग (subsection) 5 के मुताबिक़ अपराध के दिन ज़मानत नहीं दी जा सकी है. कोर्ट द्वारा ये ज़मानत सिर्फ़ तब दी जा सकती है जब तार्किक आधारों पर ये साबित हो जाए कि आरोपी ने उस जुर्म को अंजाम नहीं दिया है और ज़मानत पाकर वो फिर किसी अपराध को अंजाम नहीं देगा.
- सेक्शन 23 के तहत ग़ैरक़ानूनी हथियार, सामान और काग़ज़ात की बुनियाद पर अपराध का अनुमान लगया जा सकता है.
छत्तीसगढ़ विशेष सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 2005 (CSPSA)
- छत्तीसगढ़ विशेष सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 2005 के मुताबिक़ समाज की सार्वजनिक व्यवस्था, सुरक्षा, शांति और सद्भावना के लिए ख़तरा पैदा करना ग़ैरक़ानूनी गतिविधि के दायरे में आता है. क़ानून के शासन में दख़ल देना और जनता को राज्य की अवज्ञा के लिए उकसाना भी इसी श्रेणी में शुमार होता है.
- UAPA के नक़्शेक़दम पर CSPSA के अंतर्गत गठित सलाहकार बोर्ड भी किसी संगठन को ग़ैरक़ानूनी घोषित करने से लेकर उसकी सदस्यता पर प्रतिबंध लगा सकता है.
- सरकार भी ऐसे संगठनों को फंड देने से इंकार कर सकती है और DM इन ग़ैरक़ानूनी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल की जा रही जगहों को नियंत्रण में ले सकता है.
- ऐसे मामलों में ज़िलाधिकारी या राज्य सरकार का फ़ैसला ही अंतिम माना जाता है जिसके ख़िलाफ़ कहीं भी अपील नहीं की जा सकती है.
गुजरात संगठित अपराध औऱ आतंकवाद नियंत्रँण अधिनियम
GUJARAT CONTROL OF TERRORISM & ORGANISED CRIME ACT, 2019 (GCTOCA)
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- GCTOCA को क़रीब 16 साल बाद राष्ट्रपति से मंजूरी मिली है. राम नाथ कोविंद से पहले 6 राष्ट्रपति इस बिल को दोबारा राज्य को लौटा चुके हैं. MCOCA की तर्ज़ पर यहां भी आंतंकी गतिविधि की परिभाषा समान रूप से काम करती है
- इसमें आर्थिक अपराध जैसे निवेश में धांधली, भूमि हड़पना, साइबर क्राइम, मानव तस्करी तय करना आदि शुमार होता है.
- MCOCA के 5 सेक्शन संवाद पर नियंत्रण से जुड़े नियम बनाते हैं जिससे 60 दिन से ज़्यादा बढ़ाने के लिए पर्याप्त बयान होना भी ज़रूरी है.
- GCTOCA अवरोधन से हासिल सबूतों की जांच-परख करता है और संवाद को नियंत्रित करने की प्रक्रिया ज़ाहिर नहीं करता है.
- सेक्शन 16 के तहत SP या उच्च अधिकारी के सामने दिए बयान को ही ट्रॉयल के दौरान सबूत के तौर पर पेश किया जाता है.
- सेक्शन 18 के तहत कोर्ट इस एक्ट के तहत हिरासत में लिए गए किसी भी व्यक्ति की चल-अचल संपत्ति कोर्ट को सौंप सकती है.
- सेक्शन 20 (2) के मुताबिक़ अगर जांच 90 दिनों में पूरी नहीं होती है तो स्पेशल कोर्ट में एप्लीकेशन के ज़रिए इसे 180 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है.
- कोर्ट द्वारा ये ज़मानत सिर्फ़ तब दी जा सकती है जब तार्किक आधारों पर ये साबित हो जाए कि आरोपी ने उस जुर्म को अंजाम नहीं दिया है और ज़मानत पाकर वो फिर किसी अपराध को अंजाम नहीं देगा. ग़ैरक़ानूनी हथियार और काग़ज़ात के बुनियाद पर यहां भी अपराध का संदेह होने पर कारवाई की जा सकती है,
असामाजिक गतिविधि नियंत्रण अधिनियम, 1985 (PASA)
- इस एक्ट के दायरे में अपराधी का विवरण बेहद अस्पष्ट है जिसका आसानी से दुरूपयोग होने की गुंजाइश है. इस परिभाषा में अपराधी के लिए क्रूर व्यक्ति, ख़तरनाक व्यक्ति, संपत्ति हड़पने वाला जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है
- एक क्रूर व्यक्ति का मतलब है कि जो स्वयं या किसा संघ के सदस्य या मुखिया के तौर पर किसी ऐसे अपराध को अंजाम देता हो जिसे 1954 के बॉम्बे पशु सुरक्षा अधिनियम के तहत दंडनीय माना गया हो.
- जबकि एक ख़तरनाक व्यक्ति का अर्थ है जो स्वंय या किसी समूह के सदस्य या मुखिया के तौर पर किसी ऐसे जुर्म को अंजाम देता हो जो इंडियन पैनल कोड के अध्याय XVI और XVII ( मानव शरीर और संपत्ति से जुड़े अपराध) के तहत या शस्त्र अधिनियम 1959 के अध्याय 5 के तहत जुर्म में शुमार होता हो.
- सेक्शन 3 के तहत किसी को भी सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए हिरासत में लिया जा सकता है.
- सेक्शन 5 के मुताबिक़ हिरासत में लिए जाने के लिए उचित शर्तें तय की गई हैं जिसके तहत व्यवस्था बनाए रखने या अनुशासन का उल्लंघन करने पर व्यक्ति की हिरासत की मियाद बढ़ाई जा सकती है.
- सेक्शन 6 के मुताबिक़ अगर किसी को हिरासत में लेने के अनेक मज़बूत आधार हैं तो आदेश हर आधार पर पृथक रूप से जारी होगा.
- यदि हिरासत का आदेश जारी होने के बाद संबंधित आरोपी छिपने या बचने की कोशिश करता है तो अधिकारी राज्य के भीतर उसकी संपत्ति का सौदा भी तय कर सकते हैं.
- हिरासत में लेने वाले अधिकारियों के पास किसी को हिरासत में लेने की तारीख़ के बाद बात-चीत के लिए क़रीब 7 दिन का वक़्त होता है.
- सलाहकार बोर्ड हिरासत सुनिश्चित होने के बाद बिना किसी क़ानूनी प्रतिनिधित्व के 7 हफ़्ते के अंदर बंदी की सुनवाई करता है और इस हिरासत की अवधि को अधिकतम 1 साल तक खींच सकता है.
- 2020 के संशोधन विधेयक में साइबर अपराधों को भी शुमार किया गया है जिसका अर्थ है कि ‘सूचना और प्रौद्योगिकी अधिनियम’ के तहत अपराध करने वालों पर इस एक्ट के तहत कारवाई की जा सकती है.
- इसमें अब लैंगिक अपराधों को भी सम्मिलित कर लिया गया है जिसके अनुसार इंडियन पीनल कोड के तहत परिभाषित लैंगिक अपराध करने पर भी उसपर ये एक्ट लागू किया जा सकते हैं.
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