2021 के जून और अकतूबर महीनों में दिल्ली और बंबई उच्च न्यायालयों ने गैरकानूनी गतिविधियां (रोकधाम) अधिनियम [Unlawful Activities Prevention Act या UAPA] के तहत जमानत के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण फैसले सुनाए। दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले से आसिफ इकबाल तन्हा, देवांगना कलिता और नताशा नरवाल, जो फरवरी 2020 के दिल्ली दंगों में दर्ज हुए विभिन्न UAPA के मुकदमों में आरोपी थे, को जमानत मिली। वहीं, बंबई हाई कोर्ट ने अपने फैसले में इकबाल अहमद कबीर अहमद को जमानत दी जिनपर प्रतिबंधित संगठन ISIS के सदस्य होने और आपराधिक साजिश रचने का आरोप था। जैसा मैंने पहले भी लिखा- कि इन फैसलों का महत्व यह है कि वे UAPA के कठोर प्रावधानों के संदर्भ में ”स्वतंत्रता के न्यायशास्त्र” (jurisprudence of liberty) की वकालत करते हैं [यह और यह लेख देखें]। हाई कोर्ट के जजों की बेंच ने इस बात का संज्ञान लिया कि UAPA की धारा 43(D)(5)- जिसकी व्याख्या सुप्रीम कोर्ट ने ज़हूर अहमद वाटाली मामले में की है- जमानत मिल पाना असंभव बना देती है और लोग सालों तक बिना मुकदमे की सुनवाई शुरू हुए जेल में रह जाते हैं। इसके जवाब में अदालत ने UAPA के तहत जमानत की न्यायिक परख के लिए दो सिद्धांत निर्धारित किए। सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य मिलते-जुलते थावा फ़ैज़ल वाले फैसले के संदर्भ में एक पोस्ट लिखते समय मैंने इन सिद्धांतों को इस प्रकार रेखांकित किया था:
सिद्धांत 1: UAPA की धाराओं की एक सीमित और कसी हुई परिभाषा होनी चाहिए। ऐसा ही दिल्ली उच्च न्यायालय ने आसिफ इकबाल तन्हा के संदर्भ में, बंबई हाई कोर्ट ने इकबाल अहमद कबीर अहमद वाले केस में UAPA की धारा 20 के संदर्भ में और अब सुप्रीम कोर्ट ने थावा फ़ैज़ल मामले में किया है।
दूसरा सिद्धांत: चार्जशीट में लगाए गए आरोप व्यक्ति-केंद्रित, तथ्यात्मक और स्पष्ट होने चाहियें। किसी व्यक्ति पर लगाए गए आरोप और घटित घटनाओं के बीच का संबंध अटकलबाजी और अनुमान के जरिए नहीं जोड़ा जा सकता। यह बात थावा फ़ैज़ल वाले अदालती फैसले में बेहतर ढंग से समझाई गई है।
इन फैसलों के आलोक में- खासकर थावा फ़ैज़ल मुआमले में सुप्रीम कोर्ट के रुख से, हमें लगा था कि यह अदालतों द्वारा UAPA में अभियोजन पक्ष को मिली स्वच्छंदता के विरुद्ध एक तर्कसंगत न्यायिक प्रतिरोध की शुरुआत है। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अकतूबर माह के तीसरे हफ्ते में उन्हीं दो अदालतों- दिल्ली एवं बंबई उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए दो अन्य निर्णय यह साबित करते हैं कि UAPA की याचिकाओं पर फैसले विसंगतियों से ग्रस्त हैं जहां व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक लॉटरी पर निर्भर करती है कि जज का क्या रुख है। और ऐसा भी नहीं है कि फैसलों में असमानताएँ एक सी ही अदालतों तक सीमित हैं, बल्कि वे उन्हीं न्यायाधीशों के अलग-अलग फैसलों में दिखाईं पड़तीं हैं। दुर्भाग्य यह है कि एक जैसे मामलों में अलग-अलग इन फैसलों की कीमत व्यक्तियों द्वारा जेल में और अधिक हफ्ते, महीने या साल काटकर चुकाई जाती है।
ज्योति जगताप और बंबई हाई कोर्ट का फैसला
बंबई हाई कोर्ट की एक बेंच ने ज्योति जगताप बनाम राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) मामले में कबीर कला मंच की सदस्य ज्योति जगताप की जमानत याचिका ठुकरा दी। यह मुकदमा 31 दिसम्बर 2017 को “यलगार परिषद” के जुलूस में हुई हिंसा से संबंधित है। सरकारी पक्ष की दलील रही है कि कबीर कला मंच और ज्योति जगताप ने यलगार परिषद के आयोजन के दिन और उससे पहले कई भड़काऊ भाषण और नुक्कड़ नाटक करवाए। उनका तर्क था कि कबीर कला मंच की गतिविधियां प्रतिबंधित संगठन भाकपा (माओवादी) द्वारा सरकार के तख्तापलट की बड़ी साजिश का हिस्सा रहीं थीं। इस संदर्भ में अभियोजन पक्ष ने 2011 के कुछ गवाहों के बयान भी गिनवाए (जिनकी सत्यता पर सुनवाई के इस चरण में अदालती जिरह नहीं हुई है) जिनके अनुसार ज्योति जगताप को जंगलों में नक्सलियों के साथ बैठक करते देखा गया।
अपने फैसले की व्याख्या में अदालत का सर्वप्रथम यह मत था कि नक्सलवादियों से की गई बैठकों के आलोक में गवाहों के बयानात ज्योति जगताप का प्रतिबंधित संगठन भाकपा (माओवादी) का सदस्य होना साबित करते हैं (अनुच्छेद 9.1 एवं 9.2)। दूसरा, आरोपी का हथियारों की ट्रेनिंग में कथित संलिप्त होना और कुछ रसीदें व दस्तावेज़ यलगार परिषद में उनकी संगठानिक सक्रीयता की ओर इशारा करते हैं (अनुच्छेद 9.3 से 9.7)। तीसरा, आयोजन के दिन “नफरत और गुस्सा भड़काने” का प्रयास कबीर कला मंच द्वारा सरकार का “मखौल उड़ाने” और उसे “उखाड़ फेंकने” की कोशिश का संकेत है (अनुच्छेद 9.8)। उच्च न्यायालय के अनुसार “नफरत और आवेग भड़काने” संबंधी सबूतों में “अच्छे दिन” के बयान का मज़ाक उड़ाना, प्रधानमंत्री को “शिशु जैसा” बतलाना और “आज के भारत में दलितों पर अत्याचार” की बात करना शामिल है। इसके बाद हाई कोर्ट ने हनी बाबू बनाम सरकार जमानत याचिका के फैसले में दर्ज NIA द्वारा भाकपा (माओवादी) के आंतरिक कामकाज के ब्योरे का हवाला देते हुए नोट किया कि इन सभी कारणों के चलते ज्योति जगताप की गतिविधियों को भाकपा (माओवादी) द्वारा रची गई “बड़ी साजिश” के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। कोर्ट का कहना था (अनुच्छेद 10):
उक्त संदर्भित दस्तावेज़ साफ तौर पर याचिकाकर्ता की यलगार परिषद आयोजित करने में अग्रणी भूमिका तो रेखांकित करते ही हैं, उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण एक घोषित आतंकवादी संगठन भाकपा (माओवादी) के प्रमुख संगठन के साथ याचिकाकर्ता का रिश्ता है जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता।
अतः जमानत याचिका खारिज कर दी गई।
मेरे द्वारा रेखांकित उपरलिखित सिद्धांतों में से दूसरे नंबर के सिद्धांत को एक बार पुनः दुहराया जाए- “चार्जशीट में लगाए गए आरोप व्यक्ति-केंद्रित, तथ्यात्मक और स्पष्ट होने चाहियें। किसी व्यक्ति पर लगाए गए आरोप और घटित घटनाओं के बीच का संबंध अटकलबाजी और अनुमान के जरिए नहीं जोड़ा जा सकता।“ इस सिद्धांत की महत्ता पर पहले भी बात हुई है और हम देख सकते हैं कि किस तरह बंबई हाई कोर्ट का यह आदेश उसके खिलाफ जाता है। इस संदर्भ में ‘घटित घटना’ यलगार परिषद के आयोजन के बाद हुई हिंसा से संबंधित है। ज्योति जगताप के ऊपर किसी भी हिंसक गतिविधि में शामिल होने का आरोप नहीं है। उनका कृत्य कथित रूप से उस आयोजन को करवाने में रोल निभाना और उस दिन मंच पर सांस्कृतिक प्रस्तुति करना था। लेकिन उन्हें बाद में हुई हिंसा से जोड़ने और जमानत ठुकराने हेतु निम्नलिखित अनुमान लगाए गए हैं (जिन्हें ठोस रूप से साबित नहीं किया जा सका है):
- यलगार परिषद का आयोजन भाकपा (माओवादी) की साजिश का हिस्सा था और उसमें हुई हिंसा इस संगठन की योजना से उपजी।
- ज्योति जगताप का भाकपा (माओवादी) के प्रमुख सदस्यों के साथ सात साल या उससे ज्यादा पहले का संबंध उस स्पष्ट साजिश में उनकी भागीदारी से जुड़ा हुआ है जिसका बिन्दु 1 में उल्लेख किया गया। यहाँ नोट करने की बात यह है कि ‘संबंध होने’ की परिभाषा बहुत व्यापक है और इसी कारण सुप्रीम कोर्ट ने अरूप भूयां बनाम असम सरकार के अपने फैसले में यह स्पष्ट किया है कि UAPA के संदर्भ में सदस्यता का अर्थ ‘सक्रीय सदस्यता’ है, यानि हिंसा भड़काने के लिए उत्तेजित करना। किसी बैठक में शामिल भर हो जाने से कोई सक्रीय सदस्य नहीं हो जाता। दुर्भाग्यवश बंबई उच्च न्यायालय ने अरूप भूयां केस का संज्ञान नहीं लिया।
- उस दिन दिए गए भाषण व सांस्कृतिक कार्यक्रम इस साजिश का हिस्सा थे और उन्हीं की वजह से आयोजन के बाद हिंसा हुई।
यह भी आश्चर्यजनक है कि अभियोग पक्ष की दलीलों में खाली जगहों को अनुमानों से भरने के लिए अदालत ने बहुत लचीले तर्कों का सहारा लिया। इसका उदाहरण हम अनुच्छेद 9.8 में देख सकते हैं जहां प्रधानमंत्री या उनके वक्तव्यों, नीतियों का मज़ाक उड़ाना, शिवाजी और टीपू सुल्तान के संदर्भ और दलितों पर अत्याचार की बात- यह सभी “भड़काने और उत्तेजित करने” व “बड़ी साजिश” को अंजाम देने की श्रेणी में ला दिए गए। हाई कोर्ट यह तर्क देने पर इसीलिए बाध्य हुआ क्योंकि ज्योति जगताप के विरुद्ध ठोस सबूत न के बराबर हैं और प्रथम दृष्टाय (prima facie) उनपर आरोप साबित करने तथा UAPA के तहत उनकी जमानत ठुकराने के लिए अभियोग पक्ष एवं कोर्ट को उनके आयोजन में संगठानिक रोल याद करने या मंच पर प्रस्तुति करने जैसे मामूली से दिखने वाले कृत्यों को (अब तक सिद्ध नहीं हुई) “बड़ी साजिश” संबंधी अनुमानों के जरिए घटित घटना, अर्थात हिंसा से जोड़ना जरूरी था। समस्या यह है कि ‘बड़ी साजिश’ के आरोप की प्रकृति ही ऐसी है कि चुप रहने वाले को दोषी मान लिया जाता है और अभियोजन पक्ष की दलीलों में रह गई खामियों को इस अनुमान से दूर कर लिया जाता है कि आरोपी एक बहुत चतुर साजिशकर्ता है जिसने कोई सुराग नहीं छोड़े। इसीलिए आरोपों का महीन न्यायिक विश्लेषण और दलील में छिपी खामियों को अनुमानों या अटकलों से दूर करने का विरोध बहुत जरूरी है। इस पूरे मामले को हम पानी में पत्थर फेंकने की एक मिसाल से समझ सकते हैं। पानी में पत्थर फेंकने पर बुलबुले उठते हैं। सबसे बड़ा बुलबुला वहाँ उठता है जहां पत्थर गिरता है जबकि समय के साथ बुलबुलों की तीव्रता कम होती जाती है और पानी अंततः शांत हो जाता है। यदि हम पत्थर के पानी से टकराने की घटना को यलगर परिषद की घटना से जोड़ें तो अदालत के पिछले फैसलों में तर्क था कि पत्थर पानी से टकराया यह साबित करने के लिए बुलबुला दिखना जरूरी है (यानि आरोपी और घटित घटना के बीच कुछ ठोस संबंध स्थापित होना चाहिए)। पर ज्योति जगताप के मामले में हम देखते हैं कि एक घंटे बाद आकर पानी में कोई हरकत देखने वाला व्यक्ति कहे कि यह घंटा भर पहले पत्थर फेंके जाने की वजह से हुई। ऐसा तर्क न्यायिक प्रक्रिया का स्थापित मानक नहीं हो सकता।
उमर खालिद और दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला
मार्च 2022 में सत्र अदालत ने उमर खालिद को 2020 दिल्ली दंगों से जुड़े एक मामले में जमानत देने से इनकार कर दिया। तब मैंने लिखा था कि अदालत का आदेश मानो ‘अभियोजन पक्ष का स्टेनोग्राफर’ है’। अभियोग पक्ष के बयानों में परस्पर समानता होने की भी जांच नहीं की गई, दरदराती दलीलों को अटकलों व अनुमानों से साबित कर लिया गया (यह इसीलिए भी खटका क्योंकि दंगों के दौरान खालिद दिल्ली में भी मौजूद नहीं थे) गवाहों के निश्चयहीन बयान भी खालिद के खिलाफ इस्तेमाल किए गए और मामले का कोई भी पहलू जो बचाव पक्ष के लिए लाभदायक था, इस आधार पर सुना नहीं गया कि यह मुकदमे की सुनवाई के लिए छोड़ा जा रहा है (इस दृष्टिकोण के साथ क्या समस्याएँ हैं उनपर पहले भी बात हो चुकी है)।
दिल्ली हाई कोर्ट का सेशन जज के फैसले को सही मानने वाला आदेश मोटे तौर पर उसी फैसले की कॉपी है। इस विषय में और जानने के इच्छुक पाठक मेरा यह लेख पढ़ सकते हैं। हाई कोर्ट के फैसले का अनुच्छेद 49 कहता ही है कि सबूतों की परख के संदर्भ में अदालत “सत्र न्यायालय के विद्वान जज महोदय से पूर्णतः सहमत है” और “(अपने) फैसले को (दुहराव के) बोझ तले नहीं दबाना चाहती है”। इसी क्रम में अदालत ने सबूतों के स्वतंत्र विश्लेषण के बोझ से भी मुक्ति पा ली। बहरहाल, इस फैसले के कुछ हिस्सों पर गौर करने की फिर भी जरूरत है क्योंकि वे बंबई हाई कोर्ट के ज्योति जगताप वाले फैसले से इस विषय में मिलता-जुलता है कि आरोपी और असल घटना के बीच फासला जितना बड़ा होता जाता है, उसे तय करने के लिए उतने ही लचीले अनुमान अदालत को लगाने पड़ते हैं।
पूर्वानुमानों की यह शृंखला अनुच्छेद 52 से शुरू होती है। अदालत नोट करती है कि नागरिकता संशोधन कानून (Citizenship Amendment Act या CAA) के पारित होने के पश्चात (a) “Muslim Students of JNU” नाम से एक व्हाट्सप्प ग्रुप बनता है जिसके उमर खालिद सदस्य हैं (b) उसके एक दिन बाद “United Against Hate” नामक समूह नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन करता है जिसमें उमर खालिद शामिल होते हैं और कथित रूप से ‘चक्का जाम’ करने का समर्थन करते हैं (c) एक अन्य व्हाट्सप्प ग्रुप “CAB Team” नाम से बनाया जाता है जिसमें उमर खालिद भी एक सदस्य हैं। हाई कोर्ट के अनुसार “04.12.2019 के बाद घटी घटनाओं का सामूहिक विष्लेषण इनसे नजर फेर लेने की इजाजत नहीं देता है और यह नहीं कहा जा सकता कि कोई भी आपराधिक कृत्य नहीं हुआ”। हम यहाँ भी देख सकते है कि आरोपी की गतिविधियों (व्हाट्सप्प समूहों का सदस्य होना या प्रदर्शनों में भागीदारी करना) और घटित घटना (दंगों) के बीच एक चौड़ी खाई जितना अंतर है जिसे जोड़ने को अनुमानों का एक पुल बना दिया गया है। मानिनीय उच्च न्यायालय का मानना है कि यह सब गतिविधियां अपराध में शामिल होना साबित करती हैं लेकिन ऐसा कैसे और क्यों हुआ, यह नहीं बताया जाता। और न सिर्फ घटना और आरोपी की गतिविधियों के बीच के इस फासले से अदालत को कोई समस्या नहीं है, बल्कि इसका इस्तेमाल खुलकर फैसले में किया गया है। मसलन अनुच्छेद 55 में देखें:
यह बात स्मरण रहे कि UAPA के अंतर्गत देश की एकता और अखंडता को चोट पहुंचाने की न सिर्फ मंशा बल्कि उसे चोट पहुँचने की संभावना होनी चाहिए, न सिर्फ आतंकी घटना को अंजाम देने की मंशा बल्कि अंजाम देने की संभावना भी जरूरी है, और इसके लिए न सिर्फ हथियारों का प्रयोग बल्कि किसी भी साधन का इस्तेमाल हो सकता है जिससे न सिर्फ किसी व्यक्ति या व्यक्तियों की जान का नुकसान, या हताहत होना, या संपत्ति को नुकसान पहुंचना बल्कि ऐसा होने की संभावना– यह सभी UAPA की धारा 15 के अंतर्गत एक आतंकवादी कृत्य का द्योतक हैं। इसके अतिरिक्त, UAPA की धारा 18 के अंतर्गत न सिर्फ किसी आतंकवादी घटना की साजिश रचना बल्कि ऐसा करने का प्रयास करना, ऐसे कृत्य की वकालत करना, इसके संदर्भ में सुझाव देना या फिर कृत्य के लिए उत्तेजित करना और जानते हुए आतंकी घटना होने में सहायक बनना भी दंडनीय है। यहाँ तक कि ऐसे कृत्य जो आतंकी घटना होने में प्रारम्भिक भूमिका निभाते हैं, UAPA की धारा 18 के तहत दंडनीय हैं। अतः अपील कर्ता की यह आपत्ति, कि UAPA का मामला नहीं बनता है, सबूतों की गैरमौजूदगी पर नहीं बल्कि दिए गए सबूतों के पर्याप्त और विश्वसनीय न होने व उनके प्रयोग की सीमा पर है, लेकिन यह आपत्ति UAPA की धारा 43D(5) के कार्यक्षेत्र से बाहर है।
इस पूरे वक्तव्य का आखिरी वाक्य का मतलब समझ से पड़े नजर आता है, लेकिन इससे भी आगे की बात यह है कि न्यायालय और न्यायिक समीक्षा की जरूरत ही इसीलिए है कि सरकार के क्रियाकलापों की निगरानी की जा सके, और “संभावना”, “संभावित रूप से”, “किसी भी प्रकार का”, “प्रयास”, “वकालत करना” जैसे असीमित अर्थों वाले शब्दों की स्पष्ट परिभाषा और्- ज्यादा आवश्यक रूप से- एक सीमा हो (यहाँ हम पानी में पत्थर उछालने वाली मिसाल फिर याद करें)। लेकिन हाई कोर्ट ने अपने आदेश में इसके उलट अनिश्चित अर्थ और अनिर्धारित सीमाओं वाले शब्दों को तर्कसंगत मान कर निष्कर्ष निकाला है। दूसरे शब्दों में अस्पष्टता ने अस्पष्टता को जन्म दिया है- अर्थात, कोर्ट के विचार में अस्पष्ट कानूनी भाषा अस्पष्ट आरोपों को जायज ठहराती है।
सही मायनों में कहा जाए तो पूरा अदालती आदेश इस अस्पष्टता का द्योतक है। अनुच्छेद 57 में हाई कोर्ट का मत है कि डोनाल्ड ट्रम्प के बारे में उमर खालिद का भाषण अनुमति रद्द होने के बावजूद दिया जाना अभियोजन पक्ष की उस दलील को “पुख्ता” करता है कि इसी भाषण से दिल्ली दंगों की “शुरुआत” हुई। यह एक ऐसी अनिवार्य शर्त है जिसके आगे किसी अन्य शर्त का मतलब ही नहीं रहता। भाषण में क्या कहा गया इसपर कोई प्रकाश न डालते हुए केवल भाषण का प्रशासन की नामंजूरी के खिलाफ जाकर दिया जाना कोर्ट द्वारा अभियोजन पक्ष के उस आरोप को पुष्ट करने में प्रयोग किया गया है कि इस भाषण से ही दंगों की “शुरुआत” हुई। उसी पैराग्राफ में अदालत ने दंगों के शुरू होने के एकदम बाद आरोपियों के बीच “फोन कॉल की झड़ी लगने” का जिक्र किया है। किसी दंगे के तुरंत बाद “फोन कॉल की झड़ी” लगना तभी शक की निगाह से देखा जा सकता है जब यह पहले से मान लिया गया है कि आरोपी इस साजिश के सरगना थे और “फोन कॉल की झड़ी” उनकी योजना का हिस्सा। किसी भी अन्य परिस्थिति में दंगे के तुरंत बाद सामाजिक या राजनैतिक कार्यकर्ताओं के बीच “फोन कॉल की झड़ी” लगना सामान्य सी बात होगी; बल्कि उनकी चुप्पी कहीं ज्यादा संदेहास्पद मानी जाएगी।
अब हम अनुच्छेद 58 पर आते हैं जो ज्योति जगताप वाले आदेश के अनुच्छेद 9.8 से बहुत मेल खाता है। शायद यह जानते हुए कि अनुमानों के आधार पर निष्कर्ष निकालने से विश्वसनीयता की सीमा टूटने लगी है, अदालत ने असल सबूतों की जांच-परख की है, लेकिन वहाँ भी तिल का ताड़ बना दिया गया है। अतः हाई कोर्ट ने उमर खालिद के शब्दों को पकड़ा- मसलन “इन्कलाबी सलाम” और “क्रांतिकारी इस्तकबाल”- और उसी में आपराधिक षड्यन्त्र खोज लिया। एक विचित्र अंश में नेहरू व रॉबस्पेयर का संदर्भ देते हुए कोर्ट ने कहा- “क्रांती शब्द का अर्थ हमेशा रक्तहीन क्रांति नहीं होता, इसीलिए उस संदर्भ में “रक्तहीन” उपसर्ग लगाना आवश्यक है। अतः जब हम ‘क्रांति’ शब्द इस्तेमाल करते हैं तो वह अनिवार्यतः ‘रक्तहीन क्रांति’ नहीं मानी जा सकती।“ क्या अदालत का यह मानना है कि ‘क्रांति’ से पहले ‘रक्तहीन’ न बोलने पर किसी को UAPA के तहत जेल में डाला जा सकता है और जमानत ठुकराई जा सकती है? इस अजीबोगरीब वक्तव्य से ही अंदाजा लगा लेना चाहिए कि हाई कोर्ट के इस आदेश का ढांचा कमजोर बुनियाद पर टिका हुआ है। कोर्ट के पास उमर खालिद की गतिविधियों से संबंधित कुछ तथ्य हैं जिनका असल घटना, यानि दिल्ली दंगों से कोई ठोस वास्ता नहीं जोड़ा जा सकता। फिर भी ऐसा करने हेतु मानीनिय उच्च न्यायालय ने अनुमानों और अटकलबाजियों की सुगठित व्यूह-रचना तैयार की है और साथ ही आए दिन के चलन और प्रयोग में आने वाले राजनैतिक मुहावरों पर ऐसा कष्टसाध्य प्रयोग किया है जिससे उनका कोई भी अर्थ निकाला जा सकता है।
अनुच्छेद 62 अ 63 में अदालत अपना विश्लेषण पूर्ण करते हुए चक्का जाम और हिंसा भड़काकर ‘हमले की सुनियोजित साजिश’ की बात करती है जिसमें उमर खालिद के व्हाट्सप्प समूहों का हिस्सा होना, “फोन कॉल की झड़ी” और खालिद का नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शनों में शामिल होना प्रमुख साक्ष्य हैं। ज्योति जगताप मामले की तरह ही हम यहाँ भी उन पूर्वानुमानों का अवलोकन करेंगे जिनके द्वारा अभियोजन पक्ष की दलीलों में दरारों को भरा गया:
- चक्का जाम का आह्वान करना जानबूझकर हिंसा और तोडफोड करवाने की साजिश है।
- व्हाट्सप्प ग्रुप्स की सदस्यता का अर्थ साजिश में शामिल होना है।
- दंगों के तुरंत बाद समबंधित विषय से जुड़े रहे कार्यकर्ताओं के बीच “फोन कॉल की झड़ी” लगना साजिश में भाग लेने की निशानी है।
- CAA के खिलाफ प्रदर्शनों में उमर खालिद की भागीदारी उनके साजिश में शामिल होने की ओर इशारा करती है।
यह सभी अनुमान इसीलिए लगाए गए है क्योंकि उमर खालिद के खुलेआम दंगा भड़काने, हिंसा के लिए प्रेरित करने या खुद दंगों व हिंसा में शामिल होने का कोई सबूत नहीं है। अतः हमारे सामने “संलिप्तता” दिखने हेतु व्हाट्सप्प ग्रुप की सदस्यता एवं “फोन कल की झड़ी” और प्रदर्शनों में शामिल होने का एक विचित्र घालमेल है जिसका अर्थ नेहरू और रॉबस्पेयर का तड़का लगाकर “एक बड़ी साजिश” में तब्दील कर दिया गया है। अतः बिना मुकदमे की सुनवाई शुरू हुए दो साल से जेल में बंद एक शख्स को अनिश्चितकाल के लिए जेल में बनाए रखा गया है जबकि मुकदमा सुना जाने का इंतज़ार चल रहा है।
जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल के अंतर्विरोधी विश्लेषण
उपसंहार से पहले एक अंतिम बिन्दु पर चर्चा करना बहुत आवश्यक है। उमर खालिद की जमानत ठुकराने वाले दो न्यायाधीशों की बेंच में जस्टिस भटनागर एवं जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल शामिल थे। आसिफ इकबाल तन्हा को जमानत देने वाली अप्रैल 2021 की बेंच में जस्टिस भंभानी और सिद्धार्थ मृदुल शामिल थे।
वैचारिक समानता की सबसे ढीली समझ के हिसाब से भी यह अविश्वसनीय है कि बिना किसी ठोस कारण के एक ही सम्मानित न्यायाधीश एक ही परिस्थिति से उपजी दो जमानत याचिकाओं में न केवल अलग-अलग निर्णयों का हिस्सा हों, बल्कि दोनों मामलों में परस्पर विरोधी रुख अख्तियार करें। सबसे पहले हम प्रत्यक्ष रूप से सबसे बड़े विरोधाभास की बात करते हैं। आसिफ इकबाल तन्हा के फैसले में अनुच्छेद 49-58 में जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल की मौजूदगी वाली बेंच ने UAPA के अंतर्गत आंतकवादी घटना की महीन और स्पष्ट परिभाषा देते हुए कहा कि अभियोग पक्ष की यह दलील कि नागरिकता कानून विरोधी प्रदर्शन देश की नीव हिलाने की योजना से करवाए गए, “अटकलों” पर आधारित है अतः आतंकी घटना को अंजाम देने, या आतंकी साजिश रचने या ऐसा कृत्य करने जो आतंकी गतिविधि में सहायक हो, का प्रथम दृष्टाय कोई मामला नहीं बनता। वहीं उमर खालिद के संदर्भ में पुनः जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल की मौजूदगी वाली एक अन्य बेंच ने अनुच्छेद 62-67 में साफतौर पर कहा कि CAA विरोधी प्रदर्शन कोई “सामान्य प्रदर्शन” नहीं था। तत्पश्चात, उन्होंने यह तर्क भी दिया कि इन प्रदर्शनों का दंगों से गहरा संबंध है और यह सब एक आतंकी साजिश का हिस्सा है। यह प्रश्न उठना जायज है कि एक ही जज एकसाथ दो विपरीत बातों पर कैसे विश्वास कर सकते हैं? और यदि इस मुद्दे को लेकर उनकी राय बदल गई है और अब वे उस सिद्धांत से सहमत नहीं हैं जिसके आधार पर उनका हस्ताक्षरित फैसला आया था, तो क्या देश हित में इस बदलाव की वजह जानना जरूरी नहीं? उनीसवी सदी के अमेरिकी कवि वाल्ट विटमैन ने अपनी एक कविता में कहा था- “I contradict myself…..(…I contain multitudes)”- अर्थात, “मैं रख सकता हूं खुद से अंतर्विरोध (मेरे भीतर अनेकोनेक व्यक्ति हैं)। कवि की अंतर्विरोध रखने की स्वतंत्रता हो सकती है लेकिन एक न्यायाधीश के लिए यह सही नहीं, कमस्कम अपनी कुर्सी पर बैठे समय तो कतई नहीं।
आसिफ इकबाल तन्हा के साथ ही दिए गए नताशा नरवाल के जमानती आदेश के अनुच्छेद 35 में न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल की मौजूदगी वाली बेंच ने कहा- “हिंसा भड़काने संबंधी ठोस सबूत तो दूर की बात है, हमने इस बाबत कोई स्पष्ट और केंद्रित आरोप भी नहीं पाए हैं; आतंकी घटना को अंजाम देने या उसमें सहायता करने की बात तो छोड़ ही दीजिए।“ वहीं उमर खालिद की जमानत याचिका के आदेश में जस्टिस मृदुल की ही मौजूदगी वाली बेंच इन “स्पष्ट या केंद्रित” आरोपों की जरूरत नहीं समझती, बल्कि व्हाट्सप्प ग्रुप की सदस्यता और ‘इन्कलाबी इस्तकबाल’ के आधार पर जमानत खारिज कर देती है। इतनी कम अवधि के भीतर उलटी गंगा बहा देने वाली ऐसी व्याख्या समझ के परे है।
किसी बेंच में भिन्न स्वरों वाले जज होना एक बात है (हालांकि उसमें भी समस्याएँ हैं) लेकिन एक बहूस्वरीय (polyvocal) जज आज तक नहीं सुना गया था। इस चमत्कार को देखकर हम सिर्फ सिर हिलाकर शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक ‘हैम्लिट’ के चरित्र का अनुसरण कर कह सकते हैं- “There are more things on heaven and earth than are dreamt in your philosophy” (इस दुनिया जहाँ में तुम्हारे सपनों की सोच से भी आगे के चमत्कार होते हैं)।
निष्कर्ष
उमर खालिद और ज्योति जगताप जमानत याचिकाओं के फैलसे यह दिखते हैं कि अदालतें UAPA, राज्य और अभियोग पक्ष की स्वच्छंदता, और विचाराधीन कैद के विषयों को लेकर जंग का मैदान बनी हुई हैं। ये दो हालिया फैसले ‘शासनात्मक न्यायिक परंपरा’ की निशानी हैं जहां अदालत की भाषा सत्ता की भाषा का विस्तार बन जाती है। UAPA के अंतर्गत जमानत के मामलों में न्यायिक तर्कशास्त्र का इस्तेमाल सरकारी पक्ष की दलीलों में रिक्तियों को अनुमानों व अटकलों से भरने में तथा सामान्य एवं वैध राजनैतिक प्रतिरोधों को “बड़ी साजिश” का हिस्सा बताकर गैरकानूनी करार देने में किया जाता है जबकि यह साजिश एक अनुमान पर आधारित है। हालांकि UAPA के अंतर्गत जमानत के मामलों को देखने का यह इकलौता नजरिया नहीं है। 2021 और 22 में ऐसे फैसले आए हैं जहां दिल्ली एवं बंबई उच्च न्यायालयों ने दिखाया है कि UAPA की सीमाओं के भीतर रहते हुए व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रति संवेदनशील न्याय प्रक्रिया क्या कर सकती है। इस बात पर बहुत कुछ निर्भर करेगा कि इन दोनों दृष्टिकोणों में से किसे कालांतर में ‘स्थापित कानून’ मान लिया जाता है। इस बीच हर एक ऐसा अदालती मामला UAPA के अंतर्गत सरकारी मनमर्जी के खिलाफ कानूनी और संवैधानिक संघर्ष का मैदान बना रहेगा।
यह मूल लेख आप यहाँ से पढ़ सकते है, और यह मूल (अंग्रेजी) लेख का हिंदी अनुवाद है.