4 मार्च, 2002 का वह त्रासदी भरा सोमवार था। मैं अपने पैरों में सैंडल पहने अकेले चल रही थी। मेरे पैर हज़ारों चकनाचूर हुए काँच के टुकड़ों के ऊपर से गुज़र रहे थे। वहीं गुलबर्ग सोसाइटी के इर्द-गिर्द काँच की कुछ बोतलें पड़ी हुई थीं। उन पर जलती हुई रबर, गुलबर्ग सोसाइटी के आस-पास की जगहों को जला रही थी और फिजाँ में धुआँ बिखेर रही थी। लक्ष्य बना कर की गई आगजनी की आग और केरोसिन से लथपथ रबर टायरों के सुलगने से हवा में एक अजीब-सी दुर्गन्ध फैली हुई थी। माहौल में एक भयानक सी चुप्पी थी। कासिम भाई मंसूरी का परिवार और युवा मोहम्मद संधि जो एक वकील बनना चाहता था उनके अलावा और भी कई खुशहाल परिवार थे जो उस रिहाइशी कॉलोनी का हिस्सा थे, उनके शरीर के बचे हुए अवशेष और राख चारो तरफ़ फैले हुए थे।
जब भी 2002 के गुजरात नर संहार की बात होती है तो अहमदाबाद के मेघानी नगर इलाके की गुलबर्ग सोसाइटी को अलग तरह से याद किया जाता है। अहसान जाफरी साहब के बचे खुचे अवशेष को भी चौथे दिन उनके घर के सामने जलते और सुलगते आग के बीच से इकट्ठा किया गया था। यह वही इंसान थे जिस पर गुलबर्ग सोसाइटी के सभी लोगों का भरोसा था कि यह शख्स इस लक्षित आगजनी से उन्हें ज़रूर बचाएगा, क्योंकि अतीत में भी वे ऐसा कर चुके थे। उस दिन, पुलिस कर्मियों और प्रभावशाली लोगों को दर्जनों हताशा भरे कॉल करने के बाद, दोपहर के लगभग 2.45 तक वह समझ गए थे कि इस बार कोई मदद नहीं मिलेगी। वह समझ गए थे कि यह दंगा नहीं बल्कि उनके खिलाफ लक्ष्य बनाकर किया गया षड्यंत्र हैं। यही वह समय था जब उन्होंने खूनी भीड़ द्वारा एक क्रूर मौत मरने के लिए अपने-आप को उस भीड़ के हवाले कर दिया था।
सिटीजंस फ़ॉर जस्टिस एंड पीस, पिछले 20 वर्षों से गुजरात के 2002 के नरसंहार के उत्तरजीवी और पीड़ित लोगों को न्याय दिलाने के लिए लड़ रही है। यह कानूनी लड़ाई ट्रायल कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बीच आगे-पीछे होती हुई चलती रही है। कुल मिलाकर हम 68 मुकदमों को मजिस्ट्रेट कोर्ट से आगे सुप्रीम कोर्ट तक ले गए हैं और पहले चरण में 172 की सजा को सुनिश्चित करा पाए हैं, जिनमें से 124 को उम्रकैद हुई है। हालांकि इनमें से कुछ, अपील के बाद बदल दी गई हैं, फिर भी सीजेपी की कानूनी लड़ाइयों का सफ़र बेहद अहम रहा है और इसने आपराधिक न्याय-सुधारों के क्षेत्र में, चाहे वह उत्तरजीवियों या पीड़ितों की क्रिमिनल ट्रायल में भागीदारी के अधिकार का सवाल हो, या गवाहों की सुरक्षा का, एक अग्रदूत की भूमिका निभाई है। सीजेपी, न्याय की बेहतरीन मिसालें हासिल करने की अपनी यात्रा को जारी रखने के लिए संकल्पबद्ध है जिससे कि इन घावों को भरने की प्रक्रिया को शुरू किया जा सके। हम आपसे समर्थन की, और डोनेट करने की गुजारिश करते हैं।
मुझे गुलबर्ग, नरोदा, वातवा, सरदारपुरा और पंचमहल में बचे हुए हताश लोगों और गवाहों द्वारा बताया गया कि ट्रकों और टेम्पो पर गैस सिलिंडर और सफ़ेद रासायनिक पाउडर से भरी सैकड़ों काँच की बोतल लदी हुई थी। ये भीड़ के द्वारा तैनात सामूहिक विनाश के विशेष हथियार थे जिन्हें गुजरात की 182 विधानसभा क्षेत्रों में से 153 क्षेत्रों के 300 से अधिक जगहों पर हमले के लिए योजनाबद्ध तरीके से तैयार किया गया था।
अहसान जाफरी ने कंदील शीर्षक से कविताओं की एक किताब लिखी थी। इस कविता संग्रह का प्रकाशन 1984 में हुआ था। वे प्रगतिशील लेखकों के आंदोलन से भी जुड़े हुए थे।
“गीतों से तेरी जुल्फों को मीरा ने संवारा, गौतम ने सदा दी तुझे नानक ने पुकारा, खुसरो ने कई रंगों से दामन को निखारा, हर दिल में मुहब्बत की ऊकूवत की लगन है, ये मेरा वतन, मेरा वतन, मेरा वतन है।”
28 फ़रवरी, 2002 की दोपहर 3 बजे पुलिस आयुक्त के कार्यालय से लगभग तीन किलोमीटर दूर जाफरी साहब की दिन दहाड़े हुई लिंचिंग को शासन द्वारा शुरू से न केवल नज़र अंदाज़ किया गया बल्कि व्यक्तिगत रूप से शीर्ष अधिकारीयों और राज्य के राज नेताओं के द्वारा उन्हें बदनाम भी किया गया। शासन-प्रशासन द्वारा अहसान जाफ़री को जिस तरह से नकारा गया और उनके साथ घिनौने बर्ताव और बुरे सलूक को अंजाम दिया गया। यह गुजरात के मुसलमानों के लिए एक रूपक की तरह था। जिसके जरिए मुसलमानों का भौतिक और भाषाई तौर पर रूपान्तरण किया गया और उन्हें पूरी तरह से अकेला छोड़ दिया गया या त्याग दिया गया।
वास्तव में, 2002 एक तरह से आख़िरी झटका था जो गुजरात के मुसलमानों के ऊपर कहर बनकर आ रहा था। जिसके बारे में मैंने कम्युनलिज़्म कमबैट (1998-2002) में पांच कवर स्टोरी लिखी थी। वे कहानियां उस दंगे को सबूत के तौर पर बयां करती हैं। 2014 के बाद, आज यह रूपक और यह कहानी लगभग पूरे भारत में फैल चुकी है।
27 फरवरी, 2002 के तड़के गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 डिब्बे में 58 व्यक्तियों की सामूहिक आगजनी में हुई हत्या ने आग लगाने में घी का काम किया। निर्वाचित अधिकारियों और सत्तारूढ़ पार्टी के पदाधिकारियों ने गोधरा की ओर रुख किया, जबकि जवाबी हिंसा को रोकने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। गुजरात के सबसे अधिक पढ़े जाने वाले अखबार के फ्रंट पेज पर ‘हिंदू’ महिलाओं के साथ बलात्कार और हमलों की झूठी रिपोर्टों’ की सुर्ख़ियां राज्य व्यापी हमले को बढ़ाने में मददगार साबित हुईं। जाकिया जाफरी मामले में ग्यारह साल बाद राज्य खुफिया ब्यूरो (एसआईबी) के रिकॉर्ड से हमारे द्वारा एकत्र किए गए सबूतों से पता चला है कि कैसे ‘नफरत के प्रचार से लैस अंतिम संस्कार जुलूस’ के रूप में सांप्रदायिक लामबंदी को न केवल कई जिलों में फैलाया गया था, बल्कि यह भी पता चलता है कि राज्य खुफिया ब्यूरो अधिकारी हिंसा के प्रसार को रोकने के लिए अपने वरिष्ठ अधिकारियों को असफल चेतावनी दे रहे थे।
सौ से भी अधिक हताश लोग अपने आपको सुरक्षित रखने के लिए अहसान जाफरी साहब के घर के अंदर घुस गए थे। 28 फरवरी की सुबह से मेघनबी नगर के क्षेत्रों में छिटपुट रूप से शुरू हो चुका हमला, 10 बजे एक शीर्ष सियासी हुक्मरान के आने के बाद और हमलावर तरीके से तेज हो गया था। जबकि उसने हर एक पल सुरक्षा का आश्वासन दिया था। शाही बाग में स्थित पुलिस आयुक्त के कार्यालय और मेघनी नगर के बीच की दूरी बमुश्किल से 3 किलोमीटर है, और वहाँ से नरोदा पाटिया तक चार किलोमीटर और है। परन्तु, इन दोनों जगहों पर गुजरात 2002 में हुए नरसंहार के सबसे वीभत्स दिखने वाले दृश्य थे : गुलबर्ग सोसायटी में 69 व्यक्ति और नरोदा में 124 के करीब लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था।
सोलह साल पहले वह रविवार का दिन था। 3 मार्च 2002 को जब मैंने दिल्ली में स्थित विट्ठलभाई हाउस, सहमत कार्यालय में एक संवादाता सम्मलेन को संबोधित किया था। हमने हमले और मारे गए लोगों का सचेत तौर पर आंकलन किया था और अनुमान लगाया था। हमले में मारे गए लोगों की संख्या तक़रीबन 2,000 के आस पास थी. यह आंकलन 27 फरवरी से 2 मार्च के बीच राज्य भर से 250 से अधिक कॉल के आधार पर किया गया था। आज तक राज्य हिंसा के इस पैमाने या प्रसार को स्वीकार करने से इनकार करता रहा है।
2 मार्च से लेकर 4 मार्च तक अहमदाबाद में दरियाखान घुम्मत के पास एक विशाल कब्र को खोदी गई। जहाँ बच्चों, बूढ़ों, महिलाओं और नौजवानों के जले हुए शवों को सामूहिक तौर पर दफनाने के लिए नौजवानों द्वारा उन्हें सम्मान के साथ कफ़न में लपेटा गया, उस पर गुलाब जल छिड़का गया और अंतिम संस्कार किया गया। यह नौजवान मुश्किल से अपने गुस्से को आंसुओं में व्यक्त कर पा रहे थे। मारे गए लोगों में कम से कम तीन गर्भवती महिलाएं थीं, जिनमें से एक के पेट का बच्चा, पेट से थोड़ा बाहर निकल कर लटका हुआ था। जो लोग इन क्रूर मौतों का बहादुरी के साथ सामना करते हुए इन शवों का अंतिम संस्कार कर रहे थे, उन्हीं युवाओं ने पेट से बाहर लटके हुए उस अजन्में बच्चे को वापस पेट के अन्दर डाल दिया और फिर उस शव को दफना दिया गया। वहीं जो अजन्में बच्चे अपनी माँ के पेट से बाहर निकल आए थे, उन्हें उनकी माँ के साथ ही कब्र में दफ़न कर दिया गया। शवों को दफ़नाने से पहले यह जरूरी था कि मृतकों के अवशेषों के टुकड़ों को धोया जाये और साफ़ किया जाये। जब कुछ महिलाओं ने क्षत-विक्षत महिलाओं के अवशेषों के साथ इस संजीदा और हृदय विदारक काम को किया तो पाया कि किसी शव का धड़ा ही उनके शरीर से बिलकुल गायब था। किसी का हाथ नहीं था तो कुछ का शरीर कोयले में तब्दील हो चुका था। जिसको छूने से ही वह राख़ की तरह बिखर जा रहा था। कुछ महिलाओं के शरीर को बीच से ही काट दिया गया था। एक महिला जिसने पहले दिन, 2 मार्च को सत्रह शवों को साफ़ किया था, उसने पाया कि केवल एक ही शव पूरी तरह से सही सलामत बचा था। जब 3 मार्च को 15 और शवों को उसके पास लाया गया, तो वह कुछ भी करने की स्थिति में नहीं थी, वह बस उन शवों पर पानी फेंकती रही।
मरे हुए ये शरीर, इंसानों के शरीर जैसे लग ही रहे थे। बच्चे, मृत शिशुओं की तरह नहीं दिख रहे थे, न ही मृतक महिलाओं के शव किसी महिला की तरह दिखाई दे रहे थे। और जिन महिलाओं के शव पूरी तरह से जले नहीं थे ऐसे शवों ने विकृत रूप अख्तियार कर लिया था। और निराशा का सबसे ज्यादा डरावना पहलू असीम नफरत और भयंकर अमानवीयता थी जो सर्वश्रेष्ठता से भारी और खास किस्म की राजनीति में निहित होती है।
गुजरात के कई जिलों, मसलन खेड़ा, आनंद, पंचमल, बनासकांठा, अहमदाबाद, वड़ोदरा में कई जगहों पर जैसे घोड़सार, सरदारपुरा, ओध, पंधार्वाडा, रान्धिकपुर, मोरवा, हदाप, कलोल, देरोल, किड़ाद, सेसाण, कबाड़ी बाज़ार, गुलबर्ग सोसाइटी, नरोडा, गोमतीपुर, वातवा, हनुमान टेकरी, वड़ोदरा का सामा क्षेत्र और छोटा उदयपुर में घटनाओं को अंजाम देने के लिए योजनाओं को बनाया गया. नाम, विवरण और तस्वीर के साथ नरसंहार के विनाशकारी कारनामों को गौरवांन्वित करना व्यकितगत जुनून बन गया था।
इसका सिलसिला मार्च 2002 शुरू हुआ और अभी तक थमा नहीं है। एक झटके में काट दिए गए जीवन के रंग बिरंगे चित्रों को पासपोर्ट आकार की मुरझाई हुई तस्वीरों की शकल में प्रेमपूर्वक कड़ी मेहनत से संरक्षित किया गया।
ठीक स्नेपड्रैगन फूल (वानस्पतिक नाम एंटीरहिनम) के डरावने रूपक की तरह, मानवीय चेहरे और अस्तित्व का नाश, अनाड़ी बच्चों के द्वारा नहीं होता है बल्कि यह एक सुनियोजित विद्वेष से ही होता है। ऐसे में यह ड्रैगन की खोपड़ी वाले फूल के रूपांतरण को ही नहीं पीछे छोड़ देता है बल्कि कभी-कभी तो कुछ भी नहीं छोड़ता है, यहाँ तक कि खोपड़ी को भी नहीं।
जिन वारदातों का मैंने घटना के कुछ ही दिनों के भीतर प्रत्यक्षदर्शी के रूप में व्यक्तिगत रूप से दस्तावेज़ीकरण किया था उनमें से कहीं पर भी बचे हुए या चश्मदीदों ने उस भीड़ पर कोई भी आरोप नहीं लगाए जिसने कम से 2000 लोगों पर एक खास तरह का आतंक मचाया था।
“बेटा शहर के बाहर अकेली निकलोगी, माथे पर तिलक और भगवा दुपट्टा न भूलना,” एक बुजुर्ग आदमी ने चिंतित स्वर में मुझे सावधान किया था क्योंकि मैं बाहर निकल रही थी। उनकी सलाह जायज थी क्योंकि राजमार्गों पर भीड़ द्वारा अनियंत्रित रूप से गश्त लगाई जा रही थी, होटल मालिकों और वाहनों पर हमला किया जा रहा था। मुझे कई बार गाड़ी के बिना सफर करना पड़ा क्योंकि कई बार किराए पर ली गयी गाड़ी के चालक खतरा भांप कर भाग जाते थे।
पिछले 20 वर्षों में मुझ पर पाँच बार जानलेवा हमले हुए (पहला मामला एनएचआरसी के अध्यक्ष न्यायमूर्ति वर्मा द्वारा देखा गया था, यह घटना गोधरा के बाहर हुई थी)। जब 22,000 बचे हुए लोगों की तबाही और क्षति, निजी नुकसान और न्याय हासिल करने में देरी व विश्वासघात रोज़ की सच्चाई हो तो उसके आगे इन बातों की कोई अहमियत नहीं रह जाती। अकसर दूर-दराज के गांवों और जिलों में, जहाँ मैं यात्रा करने वाली पहली पत्रकारों में से एक थी, उन जगहों पर भीड़ से जान बचाये हुए लोगों ने बताया कि हमला करने वाली भीड़ की संख्या करीब 15 हज़ार से 20 हज़ार तक थी। यह भीड़ खतरनाक किस्म के औजारों से लैस थी ऐसे औज़ार जिनका उपयोग खेती-किसानी के लिए भी किया जाता है। इनमे से अगुवाई करने वाले लोगों ने बंदूकें और राइफलें भी थाम रखी थी, जबकि कुछ चुनिंदा लोग मोबाइल फोन के ज़रिये सलाह मशवरे के साथ सेना की तरह आपस में तालमेल बिठा कर हमला कर रहे थे, ताकि हमलों को कोअर्डिनेट किया जा सके। एक विशेष समुदाय का दमन और अपमान करने के लिए महिलाओं के खिलाफ बलात्कार और वहशीपन के कई रूपों का इस्तेमाल किया गया था। युवा लड़कियों तक को भी नहीं बख्शा गया था। कुछ मामलों को छोड़ दिया जाये, तो अधिकांशतः जिन महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था, उन्हें बाद में क्षत-विक्षत कर दिया गया और जला दिया गया। महिला संसदीय समिति (क्रॉस पार्टी, अगस्त 2002) की रिपोर्ट के अनुसार, गुजरात में 185 महिलाओं पर हमले हुए थे, “बच्चों” पर हमलों की संख्या 57 थी”, जिसमें से 33 हमले अहमदाबाद शहर में हुए थे और महिलाओं और बच्चों की कुल 225 मौतें बतायी गयी थी। जीवित बचे हुए लोगों ने कंसर्नड सिटीजन्स ट्रिब्यूनल (Concerned Citizens Tribunal), क्राइम्स अगेंस्ट ह्यूमैनिटी (Crimes Against Humanity), गुजरात 2002 सहित विभिन्न मामलों में महिलाओं और बच्चों पर हुए जघन्य लैंगिक हिंसा के 253 से अधिक मामलों को दर्ज किया। गुजरात 2002 के दौरान हुई हिंसा साफ़ तौर पर एक जानी-पहचानी भीड़ की संगठित प्रकृति की ओर इशारा करती है, जिसमें अपराधियों को सबूत को नष्ट करने के लिए भी प्रशिक्षित किया गया था।
इस तबाही और नुकसान को याद रखना उन लोगों की स्मृति को सम्मानित करने का काम है जो मारे गए थे और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हत्या के कृत्यों के पीछे विकृत मानसिकता को भूलने नहीं दिया गया। बचे हुए लोगों का एक जत्था और हम सभी लोग 2007 के फरवरी-मार्च महीने में, गोधरा में साबरमती के जले हुए एस-6 डब्बे से एक यात्रा शुरू की जहाँ से इस घटना की शुरुआत हुई थी जिसमें 58 लोगों को जिंदा जला दिया गया था। हम उस जगह तक गए जहाँ नगर पालिका के एक शराबी कर्मचारी द्वारा हत्या में मारे गए शवों को बिना किसी रीति-रिवाज के सामूहिक रूप से कब्र में दफना दिया गया था। वहाँ से हम लोग ओध के मलाई भागोल और पिराई भागोल और सरदारपुरा के शेख मोहल्ला तक की यात्रा की, फिर हम नरोदा पाटिया वापस आये, जहाँ पर न केवल नूरानी मस्जिद बल्कि उस कुएँ को भी देखा जहाँ हत्या के बाद शवों को फेंक दिया गया था और फिर गुलबर्ग सोसाइटी के डरावने एकांत परिसर में जाकर हमने उन सबको याद किया। हमने वहाँ पर जिंदगी, विश्वास, साझा जीवन के खोने के दुःख को याद करते हुए आँसू बहाये। मोमबत्तियां जलाईं और उनके मृत जनों के प्रति शोक संवेदना व्यक्त किया। जब दोस्त और समुदाय दोनों निराशा के चलते संघर्ष और किसी तरह की कार्यवाई से इनकार कर देते हैं तब अदालतों में लड़ने का निर्णय पूरी तरह से अलगाव और अकेलापन के एहसास को पैदा करता है और इस तरह के इरादे को जोखिम भरा बना देता है।
जब “संवैधानिक राजनीतिक प्रक्रियाएं” मूल न्याय की प्रक्रियाओं की अवहेलना करती हैं, तथा उन व्यक्तियों और दलों को जिन्होंने बड़े पैमाने पर हत्याओं का नेतृत्व किया है उनको सत्ता के शिखर पर पहुंचा देती हैं, ऐसे में संवैधानिक शासन के लिए गणतंत्र की प्रतिबद्धता खोखली हो जाती है।
1948 के नरसंहार कन्वेंशन (Genocide Convention) में निर्धारित प्रत्येक मानदंड, जिसे भारत ने 1959 में अनुमोदित किया था लेकिन उस पर कानून बनाने से इनकार कर दिया था। उसी का खामियाजा गुजरात में 2002 के काले दिनों और उसके बाद के दौर में बेहद भयावह तरीके से सामने आया, और उसके बाद क्या हुआ यह किसी से छुपा नहीं है। आंशिक या समग्र रूप से, एक राष्ट्रीय, जातीय, नस्लीय या धार्मिक समूह को नष्ट करने के मक़सद से की गई कार्यवाई, जैसे; हत्या या गंभीर शारीरिक या मानसिक यातनाएं पहुंचाना; जानबूझ कर कुछ इलाकों के भौतिक संसाधनों को नुकसान पहुँचाने का कारण बना (अनुच्छेद 3)। अनुच्छेद 4 किसी भी पुरुष या महिला को सजा से बचने की गुंजाइश नहीं छोड़ता है, फिर चाहे वह संवैधानिक रूप से चुना गया व्यक्ति हो या कोई आम इंसान।
हालांकि हम भारतीय, संस्थागत और सार्वजनिक यादों को भुला देने के लिए कुख्यात हैं, ऐसे में गुजरात 2002 के कुछ आकड़ों को एक बार फिर से बताने और याद दिलाने की जरूरत हैं। 2,000 मुसलमानों की बेरहम हत्या और तहस-नहस करने के अलावा, लक्ष्य बनाकर और सोच समझ कर एक आर्थिक तबाही को अंजाम दिया गया। 18,924 घरों को आंशिक तौर पर तबाह कर दिया गया। जबकि 4,954 घर पूरी तरह से नष्ट कर दिए गए। लगभग 10,429 दुकानें जला दी गईं, और 1,278 दुकानों में लूट-पाट की गई। 2,623 गल्ला लारी को आगजनी के हवाले कर के भारी नुकसान पहुंचाया गया। कुल मिलाकर मुसलमानों की 4,000 करोड़ की सम्पत्तियों- जिसमें घर, संपत्ति और व्यवसाय शामिल थे, इन सभी को धूल और राख़ में मिला दिया गया। उस उन्मादी हिंसा में धार्मिक और सांस्कृतिक मज़ारों और इबादत घरों को खास तौर पर चिह्नित किया गया। 285 दरगाहों, 240 मस्जिदों, 36 मदरसों, 21 मंदिरों और 3 चर्चों को क्षतिग्रस्त और नष्ट कर दिया गया था। कुल मिलाकर तबाह की गई इन स्मारकों की संख्या 649 थी। इन 649 में से, 412 स्थलों की समुदाय के प्रयासों के द्वारा मरम्मत की गई, और बाकी बचे 167 अभी भी क्षतिग्रस्त पड़े हुए हैं। उच्चतम न्यायालय द्वार इन क्षतिग्रस्त स्थलों को बहाल और सही करने के लिए राज्य सरकार को आदेश दिया गया था लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को कमजोर कर दिया। करीब 20 साल बाद, दिसंबर 2021 में जब भारतीय मुसलमानों के नरसंहार के निर्लज्ज आह्वान को भारत के सत्तारूढ़ राजनीतिक नेतृत्व की तीखी खामोशी को जोड़ कर देखा जाए तो बुद्धिमानी यही होगी कि, अगर उससे पहले की नहीं तो, गुजरात 2002 की सार्वजनिक खूनी विरासत की वंशावली को ध्यान में रखा जाए।
मैंने हिंसा और हत्या के रूप में मृतकों और मरते हुए लोगों को देखने का प्रत्यक्ष अनुभव पहली बार 2002 किया था। निश्चित रूप से क्रूरता के पैमाने का अनुभव करना आपके पागलपन को हद से आगे बढ़ा देता है और ऐसे में ही आपके अंदर कुछ स्थायी तरह का बदलाव आ जाता है, और उसके बाद कुछ भी सामान्य नहीं रह जाता। अब बुरे सपने ज़िन्दगी का हिस्सा बन चुके हैं और पीड़ा, बैचेनी, चिंता तथा डर, रोजमर्रा की सामान्य बात बन चुकी है। क्या भय की सतत तरंगों से परे हमारी अदालतों की संरचना उस भोंडी सच्चाई का सामना कर सकती है जो सुनियोजित भीड़ को ऐसे कृत्य के लिए निर्देश दे रही थी जो नरसंहार के दायरे में आता है।
इस घटना से जुड़े 68 मामलों में निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक हमारे प्रयास बेहद उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं। जिसने हमें व्यवस्था के खतरनाक मुहाने पर ला कर खड़ा कर दिया है, जहाँ दंड से मुक्ति के खिलाफ किसी भी तरह की निरंतर और कठिन लड़ाई बेहद कठिन है। ऐसे साहसी पुलिस अधिकारी जो विस्सल ब्लोअर या सुनियोजित घटनाओं की पोल खोलने वाले रहे हैं उनको अपने काम की भारी कीमत चुकानी पड़ी है। हमारे संगठन सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस (Citizens For Justice and Peace) के प्रयासों के चलते पहले चरण में 172 लोग दोषी पाए गए और संगठन द्वारा 124 लोगों की आजीवन कारावास की सजा सुनिश्चित करवायी गयी। इनमें से कुछ एक को अपील के जरिए पलट दिया गया था। यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट भी खतरनाक अपराधों के लिए दोषी ठहराये गए लोगों को आसानी से जमानत देने के लिए तैयार हो गया। इन जमानत हासिल करने वाले लोगों में एक पूर्व मंत्री भी शामिल था। गोधरा सामूहिक आगजनी मामले में दोषी ठहराये गए आरोपियों को बारह साल बाद भी जमानत नहीं मिल सकी है, यह एक बार फिर से न्याय की स्वाभाविक भेदभावपूर्ण भावना की ओर इशारा करता है। जिस तरह से हमारी व्यवस्था कारण और प्रभाव को देखती है, वह और कुछ नहीं बल्कि भीड़ के आतंक को ही प्रोत्साहित करता है।
15, अप्रैल 2013 को ज़किया जाफरी मामले में विरोध याचिका दायर करने के साथ मुझे और हमारी टीम को अवरोध का एहसास हुआ। हमने 5 अक्तूबर से 9 दिसम्बर 2021 के बीच दिन-रात एक करके सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए 50,000 से अधिक पृष्ठों का सबूत तैयार किया, ताकि 27 फरवरी 2002 को गोधरा ट्रेन जलने के सिर्फ एक घंटे के अन्दर फैली हिंसा में षड्यंत्र के अपराध को मजबूती से सामने लाया जा सके। हालाँकि यह सब बहुत ही थकाऊ था लेकिन ये प्रमाण बेहद अहम थे।
आज, 27 फरवरी, 2022 को इस संघर्ष के 20 साल पूरे हो चुके हैं, 20 साल के संघर्ष की कठिनाइयों, अपमान और निराशा के साथ कभी-कभी बिखरी हुई आशा में एक अस्पष्ट छाया सी दिखाई देती है और केवल एक ही सवाल पीछा करता है, “क्या कभी वास्तविक न्याय मिल पाएगा”?
इसका जवाब भारतीय गणराज्य के संवैधानिक अवशेषों के बीच बिखरा हुआ है……..।
*A shorter version of this piece was first published in English in National Herald. It may be read here. The longer version in English may be read here.