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गंगा जमुनी तहजीब के साक्षी हैं, कुम्हार की ताजिया, कुम्हार का इमामबाड़ा!

इधर है मस्जिद , उधर है शिवालय !
जहाँ दिल करे, वहीं सर झुका ले !!
बाबा विश्वनाथ ,संत कबीर ,संत रविदास का बनारस
गंगा जमुना तहजीब का बनारस

बनारस की सरजमीं पर मोहर्रम का जुलूस और ताजिया कोरोना काल में लगी पाबंदी के दो वर्ष बाद अपनी रिवायतों के साथ निकला और कर्बला में जाकर खत्म हुआ। पर इस नफरत भरे दौर में सबकी निगाहें हिंदू मुस्लिम एकता की प्रतीक कुम्हार की ताजिया पर थी।

इस ताज़िए का अपना इतिहास है। सोनारपुरा चौराहे से हरिश्चंद्र घाट के बीच में चिंतामड़ी गणेश मंदिर के प्रवेश द्वार के ठीक सामने वाली गली में गंगा जमुना तहजीब की मिसाल कुम्हार का इमामबाड़ा है। इसे 1849 में अवध के नवाब सहादत हुसैन की बेटी बराती बेगम ने कुम्हार के बेटे की इमाम हुसैन के प्रति आस्था देख कर बनवाया था।

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इस इमामबाड़े को लेकर और अधिक जानकारी इकट्ठा करने के इरादे से जब आसपास के लोगों से पूछताछ की तो मालूम हुआ कि इमामबाड़े के पास ही एक चाय की दुकान है जो एक प्रजापति परिवार चलाता है। आशा देवी प्रजापति कुम्हार इमामबाड़े की वर्तमान पीढ़ी है जो इसकी देखभाल कर रही है।

जब उनसे कुम्हार की ताजिया के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि ये हमारे परिवार के लोगो की विरासत है।

हमारे दादा के दादा को एक लड़का था जो बचपन में चोरी-चोरी मिट्टी की ताज़िया बनाया करता था। एक बार ताज़िया बनाते हुए उनके पिता ने उनको देख लिया और उनको काफ़ी डांटा मगर उन्होंने ताज़िया बनाना नहीं छोड़ा। आखिरकार उनके पिता ने उन्हें काफी मारा पीटा जिसकी वज़ह से वो बीमार पड़ गए।

उनके पिता ने काफी इलाज कराया पर वो ठीक होने के बजाए और ज़्यादा बीमार हो रहे थे। एक दिन ख्वाब में एक बाबा आए और उन्हों एक जगह बताई और बोला कि वहां खुदाई करो और जो चीज भी मिले उसे एक जगह पर रख देना और उसकी सेवा करना, आपका बेटा ठीक हो जाएगा।

जब सुबह उन्होंने बताई हुई जगह पर खुदाई की तो वहां से ताजिया प्रकट हुई और बच्चा भी बिल्कुल ठीक हो गया। तब से यहां पर ताज़िया बैठाना शुरू हुआ और इस तरह से कुम्हार की ताजिया अस्तित्व में आई।

बाद में उस जगह को मुसलमानों को दे दिया जिसे बराती बेगम ने 1849 में बनवाया जो अब कुम्हार के इमाम बाड़े के नाम से मशहूर है।

इमाम बाड़े के संरक्षक सैय्यद अलीम हुसैन रिज़वी ने बताया कि बनारस में जितनी भी ताज़िया हैं सभी में गुम्बद होती है मगर कुम्हार की ताज़िया में गुम्बद की जगह मंदिर के शिखर का आकार दिया जाता है। ये परम्परा 200 साल पुरानी है जो आज भी निभाई जाती है।

हमारे पूछने पर कि कुम्हार की असली ताज़िया कहां है? उन्होंने बताया इमाम बाड़े में अंदर दीवाल पर एक तकचा है उसमें एक फुट लंबी लकड़ी की जो ताजिया है वही कुम्हार की ताज़िया है और जो ये ताज़िया है ये कागज़ से बनी है जो हर साल मुहर्रम को 10 हिंदू मुस्लिम मिलकर उठाते हैं जो सोनारपुरा चौराहे से होते हुए चिंतामणि गणेश मंदिर के प्रवेश द्वार से होते हुए सिवाला घाट पर गंगा में विसर्जित होती है। ये परम्परा हर साल निभाई जाती है।

इमामबाड़े को खोलने और बन्द करने की जिम्मेदारी कुम्हार परिवार ही निभा रहा है। इमाम बाड़े के गेट की 2 चाभी हैं एक आशा देवी के पास तो दूसरी संरक्षक के पास रहती है।

फ़ज़लुर रहमान अंसारी से मिलें

एक बुनकर और सामाजिक कार्यकर्ता फजलुर रहमान अंसारी उत्तर प्रदेश के वाराणसी के रहने वाले हैं। वर्षों से, वह बुनकरों के समुदाय से संबंधित मुद्दों को उठाते  रहे हैं। उन्होंने  नागरिकों और कुशल शिल्पकारों के रूप में अपने मानवाधिकारों की मांग करने में समुदाय का नेतृत्व किया है जो इस क्षेत्र की हस्तशिल्प और विरासत को जीवित रखते हैं।

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