युवा नेता ऋचा सिंह ने राजनीति में अपना पहला कदम एक छात्र के रूप में रखा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के आज़ाद भारत के इतिहास में पहली महिला अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित होने का कीर्तिमान भी इन्ही का है। ऋचा पीएचडी की छात्रा हैं और 2016 में उन्होंने समाजवादी पार्टी से जुड़ कर राष्ट्रीय राजनीति की मुख्य धारा में प्रवेश किया तथा हाल में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में इलाहाबाद शहर पश्चिम की सीट से चुनाव भी लड़ा। हमारी संवाददाता डेबरा ग्रे से बात चीत के दौरान उन्होंने छात्रों, युवाओं तथा महिला राजनेताओं से जुड़े कई अहम मुद्दे उठाए।
प्रश्न – अब तक उत्तर प्रदेश में छात्र आन्दोलन और राजनीति किस प्रकार की रही है?
ऋचा – उत्तर प्रदेश में छात्रों का आन्दोलन और उनकी राजनीति हमेशा से सशक्त रही है, जिसका इतिहास आज़ादी से भी पहले का है। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी इत्यादि के छात्रों की भारत की आज़ादी से जुड़े आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जैसी अज़ीम शख्सियतें भी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के छात्रों के न सिर्फ संपर्क में थे बल्कि होस्टलों में भी आते थे, और छात्र – नौजवानों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ाई की दिशा को तय किया करते थे। साथ ही बड़े कांग्रेसी नेता जैसे जी.बी. पंत जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति से ही उभरे हैं।
आज़ादी के बाद भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति ने देश के बड़े आंदोलनों में भाग लिया और जेल भी गये। राज्यसभा से लेकर राष्ट्रीय राजनीति में अपनी बड़ी भूमिका निभाई। इमरजेंसी, मंडल कमीशन तथा कई मुख्य राष्ट्रीय आंदोलनों में हमारे छात्र नेताओं ने सराहनीय योगदान देकर अपनी एक सशक्त छवि अंकित की है। इलाहाबाद विश्विद्यालय और उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों ने देश को कई महान राजनेता दिए हैं। अकेले इलाहाबाद विश्विद्यालय ने राष्ट्रपति श्री शंकर दयाल शर्मा, प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और वी.पी. सिंह, बड़े नेता एन.डी. तिवारी, अर्जुन सिंह, मुरली मनोहर जोशी, जनेश्वर मिश्रा, संविधान के जानकार सुभाष कश्यप जी इत्यादि इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति की ही देन हैं।
प्रश्न – उत्तर प्रदेश में छात्र आन्दोलन और राजनीति भारत के अन्य छात्र आन्दोलनों और छात्र राजनीती से कितनी अलग है?
ऋचा – देखा जाए तो उत्तर प्रदेश के छात्रों की राजनीति और राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर हो रही राजनीति में ज़्यादा अंतर नहीं है। शायद यही कारण है कि सभी राजनीतिक पार्टीयां छात्र राजनीति में बेहद सक्रिय रहती हैं। सारा शहर और पूरा उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में होने वाले राजनैतिक प्रक्रियाओं, छात्र संघ चुनावों पर न सिर्फ नज़र रखता बल्कि उसमे सक्रिय भी रहता है। ए.यू. की छात्र राजनीति और राजनैतिक परिवर्तन अवध से लेकर पूर्वांचल तक की राजनीति को प्रभावित करते हैं और यहाँ की छात्र राजनीति का सक्रिय राजनीति पर सीधा असर होता है।
पर यहाँ की राजनीति दिल्ली यूनिवर्सिटी या जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी में जिस प्रकार का छात्र आन्दोलन हो रहे हैं, उस से थोड़ी अलग है। वहां एक बार लाठी चार्ज होता है या कैंपस में पुलिस आ जाती है, तो वे घटनाएँ टीवी और अखबार की सुर्खियाँ बन जाती हैं। हमारे यहाँ यह आम बात है, लाठी चार्ज होना, पुलिस का आए दिन कैंपस में आना और छात्रों तथा उनके नेताओं को जेल में बंद करना आए दिन होता रहता है। धरना देना, अनशन पर बैठना, चक्का जाम करना भी यहाँ की आम बात है। पर उन्हें उतना मीडिया अटेंशन नहीं मिलता, और यह खबरें लोकल समाचारपत्रों तक ही सीमित रह जाती हैं। शायद इसके दो कारण हैं, एक ये कि अधिकांश मीडिया हॉउस वाले दिल्ली जैसे बड़े शहरों में केन्द्रित हैं। और दूसरा, वहां के छात्रों का सोशल मीडिया राजनीती पर सक्रीय होना और अंग्रेजी मीडिया तक उनकी पहुँच का आसान होना। इस प्रकार की मजबूत नेटवर्किंग सामान्यतः उत्तर प्रदेश के युवा नेताओं के पास नहीं है। पर इन सब कठिनाइयों के बावजूद उत्तरप्रदेश के छात्रनेताओं ने देश की राजनीति से लेकर सामाजिक आंदोलनों में अपनी मज़बूत उपस्थिति दर्ज करायी है।
विशेषकर इलाहाबाद विश्विद्यालय की यूनियन ने हमेशा सांप्रदायिक ताकतों का भी कड़ा मुकाबला किया है। जहाँ हमारा इतिहास एक विशेष विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाले अशोक सिंघल को छात्र यूनियन पर झंडा न फहराने देने का है, वहीं यूनियन की पहली महिला अध्यक्ष होने के बतौर इस लड़ाई को आगे बढ़ाते हुए साम्प्रदायिक राजनीति के प्रतीक, योगी आदित्यनाथ को हम लोगों ने कैंपस में प्रवेश नहीं करने दिया, तमाम हमलों के बावजूद चाहे वो ABVP के द्वारा मार-पीट के रूप में रहा हो, या फिर एकेडमिक हमले हों, या पीएचडी रद्द करने की कोशिश हो, इसके बाद भी हम मुस्तैदी से संघर्षरत हैं।
प्रश्न – पर इन्टरनेट और पाश्चात्य संस्कृति के असर के कारण दिल्ली, मुंबई और बैंगलोर जैसे मेट्रो के युवा अक्सर ज़मीनी हकीकतों से परे रहते हैं। यह “मिलेनिअल जेनरेशन” केवल कंप्यूटर और सोशल मीडियापर सक्रिय रहता है। इस पीढ़ी के उत्तर प्रदेश के नौजवानों में कितनी सामाजिक जागरूकता है? क्या वे भी अपना आक्रोश केवल इन्टरनेट पर दिखातें हैं?
ऋचा – ऐसा नहीं है, आज का युवा सिर्फ इंटरनेट क्रांति तक ही सीमित नहीं है, वह समाज के लिये, राजनीतिक बदलाव के लिये भी बहुत कुछ करना चाहता है, और लगातार प्रयासरत है। बल्कि इंटरनेट ने देश भर के युवाओं को एक दूसरे से जोड़ा है। आज इलाहाबाद विश्वविद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय के युवा मिलकर अपने साथी रोहित वेमुला का आन्दोलन जारी रखे हुए हैं। जब बीएचयू की छात्राओं के साथ छेड़खानी होती है तो मुम्बई से लेकर कलकत्ता की जादवपुर यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ विश्विद्यालय से लेकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राएं, बीएचयू आंदोलन का हिस्सा बनते हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने देश भर के विश्वविद्यालयों और छात्र नेताओं में कैंपस से बाहर निकलकर एक जॉइंट यूनिटी को बनाया जो एक सकारात्मक पहल है।
यहाँ के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में सभी छोटे-बड़े शहरों, प्रान्तों और गाँवों से छात्र आते हैं। ये छात्र हर वर्ग और हर जाति से होते हैं, इसी लिए यहाँ के सभी छात्र ज़मीनी हकीकतों से जुड़े हुए हैं। इनकी मांगें और आन्दोलन उन मुद्दों पर होते हैं जिनका सरोकार आम आदमी या सामाजिक समस्याओं से होता है। आप खुद ही देखिये, हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे हैं, तो हाशिये के वर्ग-विशेष दलितों का शोषण, स्त्री और पुरुष छात्रों के अधिकारों में अंतर, ट्रांसजेंडर की बराबरी के हक़ जैसे मुद्दों पर भी आन्दोलनरत हैं। इन मुद्दों का सरोकार आम नागरिकों से है। इसी लिए उत्तर प्रदेश के छात्रों के अधिकांश आन्दोलन, चाहे वे लखनऊ, कानपूर, बनारस या इलाहाबाद में हों, ऐसे मुद्दों पर होते हैं जिनका प्रभाव आम आदमी पर भी पड़ता है।
सोशल मीडिया से जागरुकता बड़े पैमाने पर फैलाई जा सकती है इसलिए उसका इस्तमाल किया जाता है। मगर, उत्तर प्रदेश के छात्र केवल “कीबोर्ड सैनिक” नहीं हैं। वे हमेशा अपना आन्दोलन सड़कों, गलियों और नुक्कड़ों पर ले आते हैं और सड़क से संसद तक संघर्षरत रहते हैं।
प्रश्न – आज उत्तर प्रदेश में युवा पीढ़ी के सामने तीन सबसे बड़ी चुनौतियां क्या क्या है?
ऋचा – सबसे बड़ा मुद्दा है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। यदि आपको अपने विश्वविद्यालयों में, जहाँ आप ज्ञान- समझ हासिल करने जाते हैं, जहाँ आज़ादी का, आलोचना का स्थान होता है, अगर युवा पीढ़ी को वहीं अपने विचार रखने की या प्रश्न पूछने की आज़ादी नहीं मिलेगी, तो आप लोकतांत्रिक स्पेस की उम्मीद कहीं और कैसे कर सकते हैं।
दूसरी बहुत बड़ी समस्या है, बेरोज़गारी! यहाँ हर साल हज़ारों युवा अपने-अपने डिग्री डिप्लोमा ख़त्म कर के नौकरी की तलाश में लग जाते हैं, पर केवल कुछ ही गिने चुने लोगों को नौकरी मिलती है। इस का एक कारण है कि हमारे एजुकेशन सिस्टम में डिग्री तो मिल रही पर शिक्षा के स्तर और शैक्षिक माहौल में लगातार गिरावट आ रही है।
तीसरी बड़ी समस्या है, शिक्षा का व्यवसायीकरण और सोशल साइंस के विषयों को रोजगार देने वाली शिक्षा से न जोड़ पाना। जिसके पास जितना पैसा होगा वो उतनी बेहतर शिक्षा हासिल कर सकेगा, शिक्षा का व्यवसायीकरण एक बड़ी समस्या के रूप में हमारे सामने है।
प्रश्न – धर्म के नाम पर जो नफरत की राजनीति हो रही है उस पर आपकी क्या राय है?
ऋचा – धर्म के नाम पर बहुत ही नकारात्मक राजनीति हो रही है। धर्म की राजनीति सिर्फ लोगों को बांटती है। इससे इंसानियत प्रभावित हो रही है। लोग खुले आम धर्म के नाम पर शस्त्र उठा कर मार काट पर उतर रहे हैं। ऐसी राजनीति के कारण ही आज लोग हत्या कर के भी गर्व का अनुभव करते हैं। आपने खुद ही देखा होगा, ये एंटी रोमियो स्क्वाड वाले भगवा गमछा ओढ़ के युवक-युवतियों को आतंकित करतें हैं, और पुलिस चुपचाप खड़ी रहती है। पहले केवल चोर, उचक्के और बदमाश ही अपराध किया करते थे, अब तो सरे आम, धड़ल्ले से ये भगवा गमछे वाले पुलिस और प्रशासन की क्षत्रछाया में, कभी भी किसी पर भी हमला कर देते हैं, किसी को भी घेर कर बीच सड़क पर मार देते हैं, और इनका न देश के क़ानून पर भरोसा है, न ही संविधान के मूल्यों की समझ, मैं ऐसी नफरत और हिंसा की राजनीति की कड़ी निंदा करती हूँ।
प्रश्न – और जाति की राजनीति पर आप के क्या विचार हैं?
ऋचा – अगर हम विशेषकर उत्तर प्रदेश की बात करें तो यू.पी. में जाति को लेकर बड़ा राजनीतिक मोबलाइजेशन 80 के दशक से शुरू हुआ। जातिगत रूप से पिछड़े हुए लोगों की आवाज़ उठाने के लेकर पार्टीयां बनी (सपा- बसपा) और पिछड़े एवं दलित समुदाय से बड़े नेता निकले और सकारात्मक बात यह है, कि यह कास्ट मोबलाइजेशन, सामाजिक न्याय के लिये और जातिगत रूप से पिछड़े हुए लोगों को मुख्यधारा में लाने के लिये हुआ। इन पार्टीयों और सामाजिक न्याय के आंदोलन के नेताओं ने दलितों और पिछडों के हक़ की बात की। 1990 तक आते आते दो सामाजिक न्याय की अवधारणा और समाज में इसकी ज़रूरत ने, न केवल उत्तर प्रदेश में, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में एक विशेष स्थान बनाया है, परिणामतः आज कोई भी राजनीतिक दल सामाजिक न्याय के मुद्दों को अनदेखा नहीं कर सकते। और इस सामाजिक न्याय की राजनीति की ही देन है, कि पिछड़ी और दलित जाति से आने वाले लोग मुख्यमंत्री भी बने और उनका प्रतिनिधित्व विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं से लेकर संसद तक बढ़ा। साथ ही ग्रामीण, पिछड़े और दलितों के मतदान प्रतिशत में भी वृद्धि हुई है और भारत का लोकतंत्र इससे मज़बूत हुआ है, जो एक सकारात्मक बदलाव है, जिसे योगेंद्र यादव जी द्वितीय लोकतांत्रिक क्रांति कहते हैं। इस द्वितीय लोकतांत्रिक अपसर्ज को समझना होगा और इसके सकारात्मक प्रभाव को स्वीकार करना होगा।
इसी बदलाव का परिणाम है कि आज सभी पार्टीयों में दलितों और पिछड़ों के न सिर्फ वोट लेने की होड़ मची हुई है, बल्कि तमाम राजनीतिक पार्टीयां अपने को दूसरी पार्टी से अधिक सामाजिक न्याय वाला बताती हैं। दलित और ओबीसी वोट सभी को चाहिये और उनके मुद्दे देश की राजनीति का केंद्र बन चुके हैं।
जाति की राजनीति सकारात्मक है, क्योंकि वह सामाजिक न्याय के लिए लड़ती है। जातिवाद के नाम पर जो कई जातियां सदियों से पिछड़ी रह गयी थीं या जिनका शोषण होता आ रहा है, उनको न्याय दिलाना आवश्यक है। वर्त्तमान में हिंदुत्व का सहारा लेकर जातियों की पहचान मिटाने की साज़िश हो रही है, और इसे ‘विकास’ या ‘हिंदुत्व’ का नाम दिया जा रहा है। हर जाति का अधिकार है कि उसकी अपनी पहचान हो और उसे समाज में न्याय और सम्मान मिले l
प्रश्न – क्या छात्र आन्दोलन और राजनीति, आदिवासियों तक पहुँच पाए हैं?
ऋचा – मैं मानती हूँ कि आदिवासियों के संघर्ष में शायद छात्र उतना योगदान नहीं दे पाए हैं, पर जल-जंगल-जमीन की लड़ाई को युवा नेताओं ने तमाम मंचों पर उठाया है और सक्रियता दिखाई है, पर इस दिशा में नौजवानों द्वारा और भी सशक्त क़दम उठाये जाने की ज़रूरत है।
प्रश्न – आपने तो स्वतंत्र भारत में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की पहली महिला छात्रसंघ अध्यक्ष बन कर इतिहास बना दिया। क्या कारण है कि राजनीति में आज भी ज्यादा युवतियां नहीं हैं?
ऋचा – जी बिलकुल इतिहास ज़रूर बना, पर इस इतिहास के पीछे लंबा संघर्ष रहा है। उत्तर प्रदेश जहाँ लड़कियों के लिए अभी सड़कें तक सुरक्षित नहीं हैं, वहां बिना किसी राजनैतिक पृष्ठभूमि के छात्रसंघ चुनाव लड़ना आसान नहीं होता, शायद यही कारण है कि चाहकर भी तमाम लड़कियां छात्रसंघ चुनावों में भाग नहीं लेती हैं, पर अब बदलाव हो रहा है और पहले की अपेक्षा काफ़ी लड़कियां न सिर्फ छात्रसंघ चुनाव लड़ रही हैं, बल्कि छात्र राजनीति में उनकी सक्रियता भी बढ़ रही है। ऐसा नहीं है कि लडकियां राजनीति में आना नहीं चाहतीं, पर ऐसा करने के लिए उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
आप मेरा ही उदहारण लीजिये, मैं एक साधारण मध्यम वर्ग के परिवार से हूँ। हमारे परिवार से कोई भी, कभी भी राजनीति में नहीं रहा है। मेरे परिवार वाले शुरू में मेरे राजनीति में आने के खिलाफ़ थे, पर मैंने भी ठान लिया था कि अब कुछ करना ही है। फिर परिवार और दोस्तों के प्रोत्साहन और समर्थन से मैंने यह कदम उठाया। लेकिन बार बार मुझे एक पुरुष प्रधान समज में स्त्री होने का एहसास दिलाया गया। मुझे पहले तो किसी ने गंभीरता से लिया ही नहीं, लोगों ने समझा लड़की अपना शौक पूरा कर रही है, कुछ नहीं कर पायेगी। पर जब आम छात्र हमारे साथ आ गये तो मुझे प्रतिद्वंद्वी तो समझा, मगर फिर वोट काटने का इलज़ाम लगाया गया। उसके बाद वे घटिया हरकतों पर उतर आए।
कुछ लोगों ने मेरे घर जा कर मेरे माता पिता को धमकियां दीं कि इस लड़की को अगर मर्यादा में नहीं रखा, तो बहुत बुरा होगा। मुझे यौन शोषण और हिंसा की भी धमकियां दी जाती थीं। क्वालीफाइंग स्पीच देने के लिए भी मैं कैसे पहुंची हूँ, ये केवल मुझे ही मालूम है। इन सब के बावजूद, जब मैं निर्वाचित हो कर अध्यक्ष बन गयी, तो विश्वविद्यालय के प्रशासनिक अधिकारियों ने मेरे फैसलों के अनदेखा करने की, जब हम योगी आदित्यनाथ के कैंपस में कार्यक्रम को लेकर विरोध में धरने पर बैठे हुए थे, तब ABVP के गुंडों ने प्रॉक्टर की मौजूदगी में मेरे साथ मारपीट की और प्रॉक्टर साहब जो की नशे की हालत में थे, उन्होंने भी मेरे साथ अभद्र व्यवहार किया, जिसकी FIR आज भी दर्ज है, जिस पर अब तक न पुलिस, और न ही विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा कोई कार्यवाही की गयी है, अलबत्ता प्रॉक्टर महोदय को प्रमोट करके रजिस्ट्रार ज़रूर बना दिया गया है।
इस तरह के माहौल में जहाँ आप अपने ही कैंपस में अध्यक्ष होने के बावजूद सुरक्षित नहीं होते, आपके ऊपर तमाम तरह की जांच कमेटी बनाकर आप पर दबाव बनाने का प्रयास किया जाता है, और आपकी पीएचडी एडमिशन को रद्द करने की कोशिश कर आपके एकेडमिक कैरियर के साथ खिलवाड़ किया जाता है, ऐसे में अन्य लड़कियों के अंदर कहीं न कहीं डर बैठ जाता है। लड़की होने के नाते अपनी ‘जगह याद रखें’ की हिदायत दी जाती है, ऐसे माहौल में कैसे पढ़ेंगी बेटियां और कैसे आगे बढ़ेंगी बेटियां?
प्रश्न – क्या ख़राब महौल के चलते लड़कियों पर ज्यादा पाबंदियां लगा दी गयी हैं? इस पीढ़ी की युवतियां जो पढ़ लिख कर अपनी ज़िन्दगी अपने हिसाब से जीना चाहतीं हैं, क्या उनके पास सचमुच आजादी है?
ऋचा – ख़राब माहौल और सुरक्षा की चिंता के कारण कई माता पिता अपनी बेटियों पर विभिन्न प्रकार की पाबंदियां लगाते हैं। पर आज लड़कियां अपने बराबर के अधिकारों के लिये संघर्ष करते हुए भी आगे बढ़ रही हैं। अस्मिता और स्वाभिमान के साथ अपने अधिकारों को जीने की आज़ादी, घूमने की आज़ादी, सड़क पर बिना डर के चलने की आज़ादी, अपनी मर्ज़ी से वो क्या पढ़ेंगी, क्या व्यवसाय करेंगी और जीवन साथी चुनने की आज़ादी, के लिये निरंतर संघर्षरत है। इस पीढ़ी की लडकियां चुप बैठने वालों में से नहीं हैं, और आजकल के माता पिता भी भले ही पहले संकोच करतें हों, पर अंत में अक्सर अपनी बेटियों को प्रोत्साहन देने लगे हैं। जो एक सकारात्मक बदलाव है।
प्रश्न – एक छात्र नेता के लिए राजनीति की मुख्यधारा में आना कितना मुश्किल है? किस प्रकार की कुर्बानियां देनी पड़तीं हैं? कैसी चुनौतियाँ होती हैं?
ऋचा – सबसे बड़ी चुनौती होती है, सामान्य या निचले तबके से बिना किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि से आने वाले नौजवानों के लिये। जब यह नौजवान नेता छात्र राजनीति से निकल कर मुख्यधारा की राजनीति में आते हैं, तो कम उम्र के चलते, और धन-बल, बाहु-बल के आगे अपने को सिद्ध करना, सबसे बड़ी चुनौती होती है, और इसमें भी विशेषकर महिला नेताओं का सफ़र बेहद मुश्किल भरा होता है। पितृ-सत्तात्मक समाज और राजनीति, उन्हें कई बार अलग-अलग तरीकों से विचलित करती हैं, पर हम लड़कियां तैयार हैं इन चुनौतियों के लिये।
एक बड़ी समस्या छात्र नेताओं के लिए यह भी है कि उनसे उम्मीद की जाती है कि वे सामाजिक एक्टिविस्ट तो बनें, पर जब वे मुख्यधारा की राजनीति में प्रवेश करते हैं, तो उनकी मंशा को शक के घेरे में डाल दिया जाता है। जो व्यक्ति समूह, या संस्थाएं हमसे तब जुड़ी होती हैं जब हम छात्र राजनीति में होते हैं, वही राजनैतिक मुख्धारा में हमारे आने के बाद यह कह के हमारा साथ छोड़ देती हैं कि हमें सत्ता ने आकर्षित कर लिया है, जबकि बड़े बदलाव का रास्ता, नीतिगत निर्णयों का रास्ता चुनावी राजनीति से ही होकर जाता है। यह मानना ही होगा कि सामाजिक बदलाव का एक मुख्य रास्ता राजनीति से होकर निकलता है।