बनारस में बुनकरों की सबसे घनी आबादी पीली कोठी, बड़ी बाजार, छित्तन पुरा, लल्ला पुरा, बजरडीहा, सरैया, बटलोइया, नक्खी घाट, आदि मुहल्ले में है। किसी जमाने में हथकरघे से गुलजार रहे इन मुहल्लो में अब पावरलूम की खटखट अधिक तेजी से सुनाई पड़ती है और उसी तेजी से यहाँ बेरोजगारी बढ़ी है।
दुखों ने बुनकर समाज को भीतर से इतना तोड़ दिया है कि अब वो अपना दर्द नहीं बयां कर पाते। हालांकि कुरेदने पर वे अपने तकलीफ़देह हालात और दर्द भरी ज़िंदगी की चुनौतियों और संकटों की बातें कह देते हैं लेकिन उनकी हताशा और निराशा उनके चेहरे को भिगो देती है।
यूं तो गरीब आदमी की मुसीबत का कोई अंत नहीं होता लेकिन इस सदी की शुरुआत ही बुनकरों के लिए अंधेरे दिनों की शुरुआत बनकर आई। धागों की किल्लत और उसके दामों में बेतहाशा बढ़ोतरी और उसको लेकर रोज आनेवाली नई-नई परेशानियों ने धीरे-धीरे बनारसी साड़ी उद्योग की कमर तोड़ दी।
फिर शुरू हुईं भुखमरी और पलायन की रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानियाँ। बुनकरों की विशाल आबादी छिन्न-भिन्न होने लगी।
किसी ने रिक्शा चलाने में जीवन की राह तलाशी, तो कोई मजदूरी करने लगा और कुछ ने आत्महत्या भी कर ली। परिवार के परिवार तबाह होते रहे। कई बार यह भी सुनने में आया कि बच्चों को भूख से तड़पता देख किसी-किसी ने कबीरचौरा और बीएचयू के अस्पतालों में खून बेचकर रोटी का जुगाड़ किया। लोग इतने बेहाल, बदहवास और नाउम्मीद होते गए कि निराशा और हताशा उनका स्थाई भाव बन गया।
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अमरपुर बटलोइया के स्थायी निवासी बुनकर सेराज अहमद, जिनकी उम्र 40 साल है जब हमने उनसे बात की तो उन्होंने बताया, “उनके पास फिलहाल कोई काम नहीं है। वे स्थायी रूप से बेरोजगार हैं और निरंतर आर्थिक तंगी में जी रहे हैं। पहले वे बुनकर थे लेकिन जबसे हथकरघे उजड़े हैं, फिर उनका काम जम नहीं पाया। पावरलूम आ जाने से कम लोगों को रोजगार मिल पा रहा है। कोरोनाकाल में भी हमें कहीं से कोई मदद नहीं मिली। मेरे पास अपना पैतृक मकान है इसलिए, सड़क पर आने की नौबत नहीं आई लेकिन चूल्हा जलाना तो लगातार मुहाल हो गया है।” वे आगे कहते हैं, “जिस तरह वर्तमान में अंधेरा है उसी तरह भविष्य भी अंधेरे में ही गुजरेगा। लेकिन जिनके पास रोजगार का साधन है वे भी लगातार परेशान ही रहते हैं।”
पीली कोठी के रहने वाले अब्दुल हमीद अंसारी जो पेशे से बुनकर हैं लेकिन काम ना होने की वजह से पान की दुकान चलाते हैं। हमने उनसे बात की तो उन्होंने बताया, “पान की दुकान भी एक तरह से मजदूरी करने जैसी ही है और कोरोना के समय जब सब तरफ सबकुछ बंद था तो भूखों मरने की नौबत आ गई थी। हमारे दो बच्चों जो लॉकडाउन में काफ़ी बीमार हो गए थे पर उन्हें कहीं से कोई सहायता नहीं मिली। बिजली का बिल जो हर हाल में दो हज़ार रुपए महीने आता ही है। जब कमाई होती है तो कमाई का एक चौथाई केवल बिजली में ही चला जाता है। हर कोई यह ध्यान रखता है कि कहीं कोई बल्ब फालतू न जले। हम न्यूनतम बिजली जलाते हैं लेकिन बिल तो छप्पर फाड़कर आता है।” वे आगे कहते हैं, “भविष्य को लेकर क्या सपने देखूँ, सब धुंधला ही नजर आता है।”
अमरपुर मड़ैया के अब्दुल मतीन अंसारी पेशे से बुनकर हैं और कई पीढ़ियों से बुनकरी करते आ रहे हैं। जब हमने उनसे बात की तो उन्होंने बताया, “उनके घर में स्कूल जाने लायक दो लड़के हैं लेकिन घर की आर्थिक स्थिति ठीक ना होने की वजह से बच्चे घर में बैठे हुए हैं और हमारा राशन कार्ड भी विभाग द्वारा कैंसिल कर दिया गया है। बिजली का बिल भी कम से कम 1000 रुपए आता है। लेकिन कभी-कभी 2 हज़ार रुपए महीने भी आता है। पूछने पर बिजली वाले कोई जवाब नहीं देते बल्कि बिजली काट देने की धमकी देते हैं। इन सब चीज़ों को लेकर वे बहुत परेशान हैं।”
नक्खी घाट के निवासी शौकत अली की उम्र पचास साल के आसपास है और विरासत के रूप में बुनकरी उन्हें भी मिली है। चार बच्चों और माता-पिता सहित आठ लोगों का परिवार चलाने वाले शौकत अली अपनी पीड़ा को किसी से बताने के कायल नहीं हैं। उनकी मासिक आमदनी मात्र 3500/- रुपए है लेकिन वह भी समय पर नहीं मिलती तो घर बहुत तंगी से चल पाता है। बिजली के अनाप-शनाप बिल को लेकर वे भी परेशान हैं जो 1400-1500 रुपए महीने आता है। उनको कोई सरकारी पेंशन या सहायता नहीं मिलती। कई बार वे बिल नहीं जमा कर पाते तो बिजली विभाग वाले बिजली काट देने की धमकी देते हैं। देश में चल रहे नफरत के इस माहौल को लेकर शौकत अली के मन में एक डर है। वे चाहते हैं कि राजनीति ने लोगों में जो नफरत भर दी है, इसे खत्म होना चाहिए तभी विकास का रास्ता खुलेगा। वे कहते हैं कि पचास साल की उम्र में मुझे अपना भविष्य अंधकारमय दिखाई देता है। बच्चों के भविष्य के बारे में तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता।
जो हालात हैं उनमें निराशा ही जैसे स्थायी भाव बन गया है। हर किसी का दुख जरा सा कुरेदने पर फूट पड़ता है।
पठानी टोला के रहने वाले मोहम्मद अरशद ने कहा, “मै अब 60 वर्ष पूर्ण कर चुका हूं, इस उम्र में क्या सपने देखूँ। देश और देश के लोग खुशहाल होंगे तो मैं भी उसी में शामिल माना जाऊंगा।” अरशद का पुश्तैनी काम हस्त कला का है जिससे उन्हें तीन-चार सौ रुपए प्रतिदिन मिल जाते हैं लेकिन इस काम में आती जा रही मंदी और बढ़ती महंगाई के कारण आर्थिक तंगी मुसलसल बनी हुई है। लॉकडाउन के दौरान तो सारा काम ही बंद था। न कहीं से कोई सहायता न कोई पेंशन। अभी भी काम कम ही चल रहा है। उस पर बिजली का बिल कोढ़ में खाज की तरह हो गया है। कमर्शियल मीटर का फिक्स रेट 1800/- रुपए महीने है। चाहे काम हो या न हो। घरेलू मीटर भी 2000/- रुपए है।” अरशद कहते हैं कि जीना इतना महंगा हो गया है कि जो दिन गुजर जा रहा है वही अहसास देता है कि सस्ते में गुजर गया और भला हुआ जो बीत गया।
बनारस का बुनकर समाज भाईचारा और प्रेम से रहना चाहता है। लेकिन राजनीति वाले जो नफरत फैलाये हुए हैं उसमें कुछ भी बचना बहुत ही मुश्किल लग रहा है।
आमतौर पर सरैया, बड़ी बाज़ार, छित्तन पुरा जैसे इलाकों की बड़ी आबादी रोज कमाने-खाने वालों की है। लेकिन पिछले डेढ़ साल में हर काम तहस-नहस हो गया है। मेहनत करने वाले गैरतमंद लोगों में सरकारी या गैर-सरकारी खैरात की आदत नहीं है। इसलिए वे इस या उस राजनीतिक पार्टी की जय-जयकार में दिलचस्पी नहीं रखते बल्कि, वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि आज सत्ता पर काबिज लोगों ने माहौल को जहरीला बना दिया है जिसकी सबसे भयानक कीमत मेहनतकश लोगों ने चुकाई है।
पीली कोठी, बटलोइया, सरैया, छित्तन पुरा, अलई पुरा, मुहल्ले के जितने भी लोगों से हमने बातचीत की उनमें से अधिकांश की तकलीफ अनाप-शनाप बिजली के बिल को लेकर है। पिछले अगस्त महीने में बिजली के बिल को लेकर बनारस के बुनकरों ने आंदोलन किया था। केवल घरेलू ही नहीं बल्कि औद्योगिक बिजली को लेकर भी लोगों में भारी असंतोष था। बुनकरों का कहना था कि पावरलूम के लिए मिलने वाली सब्सिडी एक झटके में खत्म कर दी गई। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के इस निर्णय ने बुनकरों को साँसत में डाल दिया। उन्होंने बताया कि सरकार ने हमें बर्बादी के कगार पर धकेल दिया है। एक तो वैसे ही साड़ी उद्योग मंदी के दौर से गुजर रहा है। ऊपर से बिजली को लेकर यह रवैया बहुत भारी पड़ रहा है। ज्यादातर बुनकर बस्तियों में स्मार्ट मीटर लगाया जा रहा है और नई व्यवस्था बनने तक हर एक को 1500-2000 रुपए तक चुकाने को बाध्य कर दिया गया है। इस झटके से उबरने की फिलहाल कोई सूरत नज़र नहीं आती। मजबूर हो कर बुनकर आंदोलन पर उतरे। लेकिन बात इतनी सी नहीं है बल्कि कहीं ज्यादा जटिल है। नई आर्थिक नीति ने बुनकरों के ऊपर घातक प्रहार किया है। अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार के कार्यकाल में बनारसी साड़ी उद्योग अपनी बर्बादी की ओर तेजी से बढ़ा। रेशम और निर्यात नीति बनारसी साड़ी उद्योग की पुरानी व्यवस्था को बड़ी बेरहमी से ध्वस्त कर दिया। गद्दीदारों का शोषण तेजी से बढ़ा और बिनकारी से जीवन चलाना मुश्किल होता गया। लिहाजा तेजी से पलायन शुरू हो गया।
फ़ज़लुर रहमान अंसारी से मिलें
एक बुनकर और सामाजिक कार्यकर्ता फजलुर रहमान अंसारी उत्तर प्रदेश के वाराणसी के रहने वाले हैं। वर्षों से, वह बुनकरों के समुदाय से संबंधित मुद्दों को उठाते रहे हैं। उन्होंने नागरिकों और कुशल शिल्पकारों के रूप में अपने मानवाधिकारों की मांग करने में समुदाय का नेतृत्व किया है जो इस क्षेत्र की हस्तशिल्प और विरासत को जीवित रखते हैं।
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